Tuesday 3 January 2012

वर्ष : 01, अंक : 8 नई दिल्ली जनवरी (प्रथम) 2012 कुल पृष्ठ 14

राष्ट्रीय हित के लिए खतरनाक होगा अफस्पा हटाना
नई दिल्ली/जम्मू। जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्सों से सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा) को हटाने की जिद पर अड़े मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को झटका देते हुए थल सेना अध्यक्ष जनरल वीके सिंह ने कहा कि यदि ऐसा होता है तो आतंकियों के लिए घाटी सुरक्षित शरणस्थली बन सकती है।
रक्षा मंत्रालय की आधिकारिक पत्रिका सैनिक समाचार के आगामी अंक के लिए दिए साक्षात्कार में जनरल सिंह ने कहा कि यदि एक गर्मी शांति कायम रहती है तो इसका यह मतलब कतई नहीं निकाला जाना चाहिए कि राज्य में सब कुछ सामान्य हो गया है। अफस्पा हटाने को राष्ट्रीय हित में खतरनाक बताते हुए थल सेना अध्यक्ष ने सचेत किया कि यदि विशेष शक्तियां छीन ली जाती हैं तो सेना आतंकी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई के दौरान खुद को मजबूर पाएगी।  
जनरल सिंह के इस बयान पर मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की। उन्होने ट्विटर पर लिखा कि सिर्फ गर्मियों के एक मौसम में नहीं अपितु पिछले 6-7 वर्षों से राज्य के हालात निरंतर बेहतर हुए हैं। राज्य में 22 वर्षों के आतंकवाद के दौर में वर्ष 2011, अब तक का सबसे शांत वर्ष रहा। उमर के इस दावे को जम्मू-कश्मीर पुलिस भी सच साबित कर रही है। राज्य पुलिस के अनुसार, जम्मू संभाग के डोडा व रियासी जिलों से आतंकवाद का दौर खत्म हो गया है।
जम्मू-कश्मीर में सेना द्वारा अफस्पा हटाने का विरोध किए जाने के सवाल पर जनरल सिंह ने कहा, एक गर्मी में कम हिंसा को सुरक्षा समस्या के मद्देनजर नहीं देखा जाना चाहिए। अफस्पा को हटाने से पहले सेना ने वहां जो उपलब्धियां हासिल की हैं, उनका ध्यान रखना चाहिए। सिर्फ एक गर्मी शांति से गुजरने का यह मतलब नहीं है कि स्थिति सामान्य है।
जनरल सिंह ने कहा कि यद्यपि सेना ने अभी कश्मीर के कुछ हिस्सों में कार्रवाई नहीं की लेकिन जहां भी अफस्पा लागू है जरूरत पड़ने पर वहां उसे कार्रवाई करने को कहा जा सकता है। उन्होंने कहा, “यदि अफस्पा हटा लिया जाएगा, तब स्थितियां खराब होने पर सेना को कार्रवाई करने के लिए कानूनी संरक्षण नहीं प्राप्त होगा, इसलिए किसी भी रूप में अफस्पा को कमजोर करना राष्ट्रीय हित के लिए खतरनाक साबित होगा।
हालांकि, अफस्पा हटाने के प्रयास के साथ घाटी में घुसपैठ भी बढ़ी है और 40 आतंकी घुसपैठ में कामयाब भी हो गए हैं। यह जानकारी सैन्य अधिकारियों की विगत दिनों (18 दिसम्बर) हुई नियमित बैठक में सामने आई। बैठक में शामिल रहे केंद्र और राज्य सरकार के अधिकारियों के मुताबिक, सैन्य अधिकारियों ने बताया कि जब से जम्मू-कश्मीर सरकार ने राज्य में आंशिक रूप से अफस्पा हटाए जाने की वकालत शुरू की है, नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर जगह-जगह घुसपैठ के प्रयास हो रहे हैं।
सेना विगत वर्ष के प्रारम्भ से ही दावा कर रही थी कि सीमा पार से कोई घुसपैठ सफल नहीं रही, लेकिन बैठक में यह बात सामाने आई कि घुसपैठ हुई है। राज्य सरकार के एक अधिकारी ने बताया कि यहां घुसपैठ एक नियमित प्रक्रिया है जो वर्ष 2011 के गर्मी में भी हुई। इस पर सेना का रुख था कि अगस्त तक सीमा पार से घुसपैठ का एक भी प्रयास सफल नहीं हो सका। हालांकि, मई में राज्य पुलिस और केंद्रीय एजेंसियों द्वारा उपलब्ध कराए गए साक्ष्यों के आधार पर सेना ने 40 आतंकियों के घुसपैठ की बात स्वीकार की। जबकि, सेना ने विगत दिनों विज्ञप्ति जारी कर घुसपैठ की खबरों को गलत बताया था। 

अलगाववादियों से वार्ता अभी भी संभव : केंद्र
नई दिल्ली। गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने विगत दिनों (30 दिसम्बर) कहा कि जम्मू-कश्मीर के कुछ अलगाववादी समूहों के साथ बातचीत के रास्ते अभी भी खुले हुए हैं और उम्मीद है कि यदि वे आगे आएं तो नए साल में वार्ता हो सकती है। चिदंबरम ने कहा, “जहां तक जम्मू-कश्मीर में अलगाववादियों से वार्ता का सवाल है, हमारे दरवाजे हमेशा खुले हैं। ऐसा नहीं है कि ऐसे कुछ समूहों के साथ बातचीत के रास्ते पूरी तरह बंद हो चुके हैं। रास्ते अभी भी खुले हैं और उम्मीद है कि 2012 में कुछ समूह वार्ता के लिए आगे आएंगे। यदि वे वार्ता के लिए राजी हैं तो हम भी राजी हैं।
गृहमंत्री ने वार्ताकारों की रिपोर्ट के संदर्भ में कहा कि सुरक्षा संबंधी कैबिनेट समिति को इसकी जानकारी दे दी गई है। उन्होंने कहा कि समिति ने विस्तृत जानकारी मांगी है इसलिए हमने समय मांगा है। उम्मीद है कि जनवरी की शुरुआत में यह हो जाएगा और एक बार समिति को पूरी जानकारी मिल जाए तो रिपोर्ट को सार्वजनिक किया जाएगा। इसमें कहीं कोई हिचकिचाहट नहीं है।
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माता वैष्णो देवी यात्रा ने रचा इतिहास
जम्मू। माता वैष्णो देवी की यात्रा ने बुधवार (28 दिसम्बर) की शाम एक करोड़ का आंकड़ा पार कर इतिहास रच दिया। यह पहला अवसर है जब किसी साल एक करोड़ से अधिक यात्रियों ने पवित्र गुफा में माता वैष्णो देवी के दर्शन किए। एक करोड़वां भक्त बनने का गौरव डॉ. राकेश विश्वकर्मा को प्राप्त हुआ है। वैष्णो देवी के आधार शिविर कटड़ा में स्थित पंजीकरण केंद्र से बुधवार शाम चार बजकर दो मिनट पर जब डॉ. राकेश ने यात्रा पर्ची संख्या 01093144 हासिल की तो वह इतिहास में अपना नाम दर्ज करवा चुके थे।
डॉ. राकेश जयपुर (राजस्थान) के निवासी हैं। इस ऐतिहासिक क्षण के गवाह बनने के लिए बोर्ड प्रशासन के एडिशनल सीईओ डॉ. एमके भंडारी सहित बोर्ड प्रशासन के अन्य अधिकारी भी मौजूद थे। जैसे ही डॉ. विश्वकर्मा ने यात्रा का एक करोड़ का आंकड़ा छुआ तो सबसे पहले डॉ. भंडारी ने उन्हें मुबारकबाद दी। इसके उपरांत बोर्ड प्रशासन ने अपने अध्यात्मिक केंद्र में सम्मान समारोह आयोजित कर डॉ. राकेश को माता वैष्णो देवी का स्वर्ण युक्त चित्र, माता की चुनरी तथा प्रमाणपत्र देकर सम्मानित किया।
बोर्ड ने ऐलान किया कि डॉ. राकेश अगले पांच वर्ष के लिए उनके विशेष अतिथि बने रहेंगे। उन्हें पांच साल के भीतर माता के दर्शन के लिए आने पर परिवार सहित नि:शुल्क निवास तथा भोजन की सुविधा दी जाएगी। साथ ही वैष्णो देवी के विशेष दर्शन करवाए जाएंगे।

इस मौके पर डॉ. भंडारी ने कहा कि दिन प्रतिदिन बढ़ रही यात्रा से अनुमान लगाया जा सकता है कि बोर्ड और स्थानीय प्रशासन श्रद्धालुओं को समुचित सुविधाएं प्रदान कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि बोर्ड प्रशासन ने भवन सहित कटड़ा में कई प्रमुख परियोजनाओं का शुभारंभ किया है। इनमें भवन पर करीब तीन हजार नि:शुल्क लाकरों का निर्माण, तीन हजार श्रद्धालुओं के लिए नि:शुल्क पार्वती भवन का निर्माण, भवन से भैरो घाटी तक रोप-वे, घोड़ा चालकों के लिए पांच मंजिला भवन सहित कटड़ा में करीब तीन हजार श्रद्धालुओं के रहने के लिए पांच मंजिला आशीर्वाद भवन का निर्माण शामिल है। इसके अलावा अत्याधुनिक विवेकानंद स्टेडियम का निर्माण आदि भी कराया जा रहा है।

विदित हो कि एक नवंबर 2011 को मुम्बई के श्रद्धालु प्रमोद मांढवी ने वर्ष 2010 का यात्रा का आंकड़ा 8749326 पार कर नया रिकार्ड अपने नाम दर्ज किया था। वर्ष 1986 में स्थापित श्री माता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड के लिए यह काफी ऐतिहासिक क्षण था। 1986 में जहां यात्रा 13.95 लाख थी, वहीं 25 साल बाद अब यह एक करोड़ का आंकड़ा छू गई। वर्ष 2008 में यात्रा 67.8 लाख थी। तीन साल के अंतराल में ही इसमें 32 लाख की जबर्दस्त बढ़ोतरी हुई है।
एलओसी से नहीं हटेंगी तोपें : भारत
नई दिल्ली। भारत ने पाकिस्तान के उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया है जिसमें उसने नियंत्रण रेखा (एलओसी) से भारी तोपखाने व मोर्टारों को हटाने की मांग की थी। नई दिल्ली ने कहा कि वह ऐसे प्रस्तावों पर तब तक गौर नहीं कर सकता जब तक कि एलओसी पर स्थिति नहीं सुधरती।
सूत्रों के मुताबिक, चार वर्षों बाद इस्लामाबाद में परमाणु और पारंपरिक विश्वास बहाली उपायों (सीबीएम) के तहत हुई दो दिवसीय बैठक में भारत ने पाकिस्तानी अधिकारियों को इससे अवगत करा दिया। नई दिल्ली ने इस्लामाबाद से कहा कि वह परमाणु हथियारों पर कमांड और नियंत्रण सहित अपनी परमाणु नीति भी स्पष्ट करे। वार्ता के दौरान भारत ने पाकिस्तान को परमाणु क्षेत्र में धैर्य एवं जवाबदेही के वास्तविक उपाय की आवश्यकता से अवगत कराया और आग्रह किया कि फिसाइल मैटेरियल कट ऑफ संधि पर वार्ता करे। 
विदित हो कि विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा वार्ता में प्रगति की समीक्षा के लिये पाकिस्तान के दौरे पर जाने वाले हैं और दौरे से पहले दोनों पक्ष गृह सचिवों, जल संसाधन सचिवों, रक्षा सचिवों तथा विदेश सचिवों की बैठक करने को इच्छुक हैं। इस दो दिवसीय बैठक में भारत ने पाकिस्तान को स्पष्ट कर दिया कि परमाणु सिद्धांतों पर विचारों का आदान-प्रदान तभी किया जा सकता है जब नीतियों से संबंधित आधिकारिक दस्तावेज सार्वजनिक हों।

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नेशनल कान्फ्रेंस नेता की हत्या
श्रीनगर। पुलिस अभी विधि मंत्री अली मुहम्मद सागर पर हुए हमले की गुत्थी सुलझा भी नहीं पाई थी कि विगत दिनों आतंकियों ने फिर सत्ताधारी नेशनल कांफ्रेंस के एक ब्लॉक अध्यक्ष को बटमालू में मौत के घाट उतार दिया। नेकां नेता की पहचान बशीर अहमद डार निवासी बटमालू के रूप में हुई है।

फिलहाल, किसी आतंकी संगठन ने इस हमले की जिम्मेदारी नहीं ली है। आतंकियों ने सुबह करीब 9.15 बजे डार पर उनकी दुकान के भीतर हमला किया। आतंकियों ने पिस्तौल से उनके सिर में नजदीक से गोली मारी और फरार हो गए। डार की दुकान के निकट ही सीआरपीएफ का एक बंकर भी है। वहां से सीआरपीएफ और पुलिस के जवान मौके पर पहुंचे और पूरे इलाके की घेराबंदी कर तलाशी अभियान चलाया। इस बीच खून से लथपथ डार को अस्पताल पहुंचाया गया, लेकिन डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। डार के के पिता जमाल अहमद डार भी पार्टी के ब्लॉक अध्यक्ष थे। उन्हें भी वर्ष 1996 में आतंकियों ने मौत के घाट उतारा था। विदित हो कि मात्र बीते एक माह के दौरान शहर में सत्ताधारी दल के किसी नेता पर यह दूसरा आतंकी हमला है। इससे पूर्व 11 दिसम्बर को आतंकियों ने डाउन टाउन में विधि मंत्री पर जानलेवा हमला किया था। हालांकि वह बाल-बाल बच गए थे, लेकिन उनका एक सुरक्षाकर्मी शहीद हो गया था।
फई की रिहाई को हुर्रियत ने पारित किया प्रस्ताव
श्रीनगर। जम्मू-कश्मीर में हुर्रियत कांफ्रेंस के कट्टरपंथी धड़े ने विगत दिनों (24 दिसम्बर) गुलाम नबी फई के समर्थन में एक प्रस्ताव पारित किया और उसकी सम्मानजनक रिहाई के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय से प्रयास करने की अपील की। अमेरिका में पकड़ा गया फई पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के लिए काम करता था और वाशिंगटन में रहकर कश्मीर पर अमेरिकी नीति को प्रभावित करने के लिए लॉबिंग करता था। 62 वर्षीय फई पर अमेरिकी जांच एजेंसी एफबीआइ अदालत में मुकदमा चला रही है। उसे जुलाई 2011 में गिरफ्तार किया गया था। श्रीनगर में आयोजित सेमिनार में हुर्रियत नेता सैयद अलीशाह गिलानी ने कहा कि हमें पूरा भरोसा है कि फई ने कुछ भी गलत नहीं किया। फई ने एक न्यायोचित मांग को पूरा करने के लिए लॉबिंग की, जो गलत नहीं है।
पहली बार निकलेगी भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा
जम्मू। मंदिरों की नगरी जम्मू शहर में पहली बार भगवान जगन्नाथ की भव्य रथ यात्रा निकाली जाएगी। यह यात्रा आगामी 21 जून को शहर के विभिन्न बाजारों से गुजरेगी। गोकुल संस्था के सचिव डॉ. राजेंद्र मिश्र ने बताया कि शहर में पहली बार जगन्नाथ रथ यात्रा निकाली जाएगी। संस्था ने जन-जागरण के निमित्त कई कार्यक्रम शुरू किए हैं जिसमें रथ यात्रा भी शामिल है। यह कार्यक्रम आगे भी जारी रहेंगे।
आतंकियों को सिमकार्ड देने वाला कर्मचारी गिरफ्तार
श्रीनगर। सोपोर व उससे सटे क्षेत्रों में सक्रिय आतंकियों को सिमकार्ड और मोबाइल फोन उपलब्ध कराने वाले बीएसएनएल के एक कर्मचारी को विगत दिनों गिरफ्तार किया गया है। वह बीते एक साल से हिजबुल मुजाहिदीन नामक आतंकी संगठन से जुड़ा हुआ था। बीएसएनएल कर्मी सज्जाद अहमद डार पुत्र गुलाम नबी डार सोपोर के संग्रामपोरा का निवासी है। उसकी नियुक्ति आईटी विशेषज्ञ के पद पर कांट्रेक्ट के आधार पर हुई थी। डार ने बीते एक साल के दौरान हिज्ब और अन्य संगठनों के दस से ज्यादा आतंकियों को मोबाइल फोन सिमकार्ड और एक डब्ल्यूएलएल कनेक्शन भी दिलाया। उसने ये सभी सिम उन्हें फर्जी नामों पर बीएसएनएल में अपनी पहुंच व कुछ और अन्य लोगों से मिलकर उपलब्ध कराए हैं। पुलिस ने डार के खिलाफ मामले दर्ज कर लिए हैं।

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जम्मू-कश्मीर में कोई मदरसा पंजीकृत नहीं
श्रीनगर। जम्मू-कश्मीर में मदरसों को सरकार द्वारा आर्थिक मदद देने को लेकर पैदा विवाद बेशक हल नहीं हुआ है, लेकिन इसने राज्य सरकार के लिए एक और मुसीबत खड़ी कर दी है। राज्य में कोई भी मदरसा पंजीकृत नहीं है और पंजीकृत होना ही सरकार से आर्थिक अनुदान प्राप्त करने के लिए एक जरूरी शर्त है। केंद्र सरकार ने दावा किया था कि जम्मू-कश्मीर में 372 मदरसों को वित्त वर्ष 2010-11 में पांच करोड़, जबकि मौजूदा वर्ष में सात करोड़ रुपये की अतिरिक्त राशि दी गई है। इसके विपरीत राज्य सरकार ने 362 मदरसों का उल्लेख करते हुए उन्हें लगभग साढे़ तीन करोड़ की राशि बांटने का दावा किया। यह राशि केंद्र सरकार ने स्कीम फॉर प्रोवाइडिंग क्वालिटी एजूकेशन इन मदरसा (एसपीक्यूईएम) के तहत उपलब्ध कराया था।

केंद्र व राज्य सरकार के परस्पर दावों के बीच कश्मीर में विभिन्न मदरसा संचालकों ने यह कहकर सनसनी फैला दी थी कि उन्होंने न कभी सरकारी मदद के लिए आवेदन किया है और न कभी उन्हें यह मदद मिली है। संचालकों ने इस मामले की उच्चस्तरीय जांच कराने की मांग करते हुए बताया कि सरकारी सूची में शामिल कई मदरसे हकीकत में कहीं नहीं है।

अब इस विवाद में एक और खुलासा हुआ है कि कश्मीर में स्थित कोई भी मदरसा केंद्र द्वारा प्रायोजित एसपीक्यूईएम योजना के तहत आर्थिक सहायता पाने योग्य नहीं है। इसलिए उन्हें आर्थिक मदद नहीं मिल सकती। नियमों के अनुसार, केवल वही मदरसे इस योजना का लाभ उठा सकते हैं जो बीते तीन साल से गतिशील हों और मदरसा बोर्ड व नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओपन स्कूलिंग (एनआईओएस) में पंजीकृत हों। हालांकि, राज्य सरकार ने कुछ मदरसों को इस योजना के तहत लाने का प्रस्ताव तो बनाया है, लेकिन शिक्षा विभाग द्वारा ऐसे मदरसों की सूची अभी तक केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय को नहीं भेजी गई है।

घाटी में घुसपैठ को तैयार बैठे हैं सौ आतंकी
श्रीनगर। सेना ने एलओसी के पार स्थित विभिन्न स्थानों पर घुसपैठ के लिए करीब 100 आतंकियों के तैयार बैठे होने का दावा किया है। साथ ही अफस्पा के मुद्दे को सीमा पार से घुसपैठ में बढ़ोतरी के साथ जोडे़ जाने की खबरों को निराधार बताया और कहा कि यह हालात खराब करने की राष्ट्रविरोधी तत्वों की साजिश है।

श्रीनगर स्थित रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता लेफ्टिनेंट कर्नल जेएस बरार ने विगत दिनों (19 दिसम्बर) कहा कि विभिन्न खुफिया एजेंसियों से मिली जानकारी के अनुसार एलओसी के पास लगभग 100 आतंकी घुसपैठ के लिए तैयार बैठे हैं। हालांकि, सर्दियों में सीमा पार से घुसपैठ बहुत कम होती रही है, लेकिन इस समय वादी में अधिकांश आतंकी मारे जा चुके हैं, इसलिए आतंकी सरगना चाहते हैं कि सर्दियों में ज्यादा से ज्यादा घुसपैठ हो। इस बार नियंत्रण रेखा से सटे इलाकों में अभी तक बर्फ पहले की तरह नहीं गिरी है और कई पहाड़ी दर्रे अभी पूरी तरह बंद नहीं हुए हैं।

अफस्पा को घुसपैठ से जोडे़ जाने पर एतराज जताते हुए रक्षा प्रवक्ता ने कहा कि बेशक इस मुद्दे पर कुछ मतभेद हो सकते हैं, लेकिन सेना किसी भी दायरे में रहकर अपना काम करने में समर्थ है। आतंकियों की किसी भी साजिश को नाकाम बनाने के लिए सेना पूरी तरह तैयार है और विभिन्न सुरक्षा एजेंसियों व राज्य प्रशासन के साथ उसका पूरा समन्वय है। इसी समन्वय के चलते राज्य में आतंकवाद पर काबू पाया गया है, जिससे हताश होकर कुछ लोग भ्रम पैदा करने का प्रयास कर रहे हैं। 

सुरक्षाबल आतंकरोधी रुख पर कायम
नई दिल्ली। रक्षामंत्री एके एटंनी ने विगत दिनों लोकसभा में कहा कि जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा परिदृश्य की सतत समीक्षा की जाती है, हालांकि सुरक्षाबल अलगाववाद रोधी और आतंकरोधी रुख अख्तियार किए हुए हैं। उन्होंने कहा कि सुरक्षाबलों ने जम्मू-कश्मीर में हिंसा को नियंत्रित कर नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित की है। रक्षामंत्री एंटनी ने ये बातें लोकसभा में प्रश्नकाल के दौरान नाथूभाई गोमनभाई पटेल के प्रश्न के लिखित उत्तर में कही। पटेल ने पूछा था कि क्या सरकार का विचार जम्मू-कश्मीर में सशस्त्रबलों की शक्तियों को कम करने का है? एंटनी ने कहा, “जम्मू-कश्मीर में आंतरिक सुरक्षा का व्यापक आकलन करने के लिए सुरक्षा परिदृश्य की समीक्षा की जाती है। एकीकृत मुख्यालय में भी इस पर विचार-विमर्श किया जाता है और प्रभावी रणनीति तैयार की जाती है।उन्होंने बताया कि राज्य में सुरक्षाबलों पर दर्ज 24 मामलों में से 19 को खारिज कर दिया गया है।

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मुख्यमंत्री बदलने के लिए प्रदेश कांग्रेस ने तेज की मुहिम
जम्मू। जम्मू-कश्मीर में सत्तारूढ़ गठबंधन में भागीदार कांग्रेस ने मुख्यमंत्री बदलने के लिए मुहिम तेज कर दी है। पार्टी राज्य में अपना मुख्यमंत्री चाहती है। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सैफुद्दीन सोज के नेतृत्व में पार्टी के एक धड़े ने रैलियों आदि के माध्यम से इस मुद्दे को उठाना शुरू कर दिया है। विगत दिनों (25 दिसम्बर) एक रैली में पार्टी के प्रदेश उपाध्यक्ष मंगत राम शर्मा ने कहा, ''उमर अब्दुल्ला ने राज्य में मुख्यमंत्री के तौर पर तीन साल पूरे कर लिए हैं। अब कांग्रेस का मुख्यमंत्री होना चाहिए।'' वहीं, उत्तरी कश्मीर के संग्रामा में आयोजित एक रैली में पार्टी की युवा इकाई के पूर्व अध्यक्ष शोएब लोन ने सोज को राज्य का अगला मुख्यमंत्री बताया। हालांकि इस पर सोज ने कहा, ''पार्टी कार्यकर्ताओं को अपनी बात रखने का अधिकार है, लेकिन इस बारे में अंतिम फैसला पार्टी हाईकमान को करना है।
विदित हो कि पांच जनवरी को उमर को मुख्यमंत्री के रूप में तीन साल पूरे हो जाएंगे। जम्मू-कश्मीर में विधानसभा का कार्यकाल छह वर्ष का होता है। इस बीच, नेशनल कांफ्रेंस ने कहा कि उमर मुख्यमंत्री के रूप में पूरे छह साल का कार्यकाल पूरा करेंगे। राज्य के कानून एवं संसदीय मामलों के मंत्री अली मोहम्मद सागर ने कहा, ''इस बारे में पार्टी का कांग्रेस हाईकमान से समझौता हुआ है और इसमें कोई परिवर्तन नहीं होगा।'' वहीं, उमर के राजनीतिक सलाहकार देवेंद्र सिंह राणा ने कहा कि उमर वर्ष 2014 तक मुख्यमंत्री रहेंगे। कांग्रेस के कई नेताओं ने यह मुद्दा सोनिया गांधी के समक्ष भी उठाया, लेकिन यह साफ है कि उमर अपना कार्यकाल पूरा करेंगे। 
74वें संशोधन के बिना चुनाव बेमानी : भाजपा
जम्मू। भाजपा ने विगत दिनों कहा कि जम्मू-कश्मीर में संविधान के 74वें संशोधन के बिना स्थानीय निकाय चुनाव का कोई औचित्य नहीं है। अपने लिए स्वायत्तता मांग रही नेशनल कांफ्रेंस के नेतृत्व वाली उमर अब्दुल्ला सरकार ने लोगों को अधिकार न देने के लिए चुनाव को मजाक बना दिया है। भाजपा प्रवक्ता डॉ. जितेंद्र सिंह ने संवाददाताओं को संबोधित करते हुए कहा कि पार्टी चुनाव से पहले संशोधन की मांग को लेकर विधानसभा के अंदर व बाहर प्रदर्शन करेगी। हालांकि, उन्होंने स्पष्ट किया कि पार्टी चुनाव के खिलाफ नहीं है। डॉ. सिंह ने कहा कि उमर सरकार केंद्र में लागू संशोधनों को राज्य में लागू न कर एक तरफ अलगाववादियों को खुश कर रही है। दूसरी ओर वह पंचायतों, स्थानीय निकायों के लिए केंद्र से मिलने वाले करोड़ों रुपये हासिल करने के लिए चुनाव की औपचारिकता पूरी कर रही है। दरअसल, लोकतंत्र को मजबूत करना कश्मीर केंद्रित सरकार के एजेंडे में नहीं है।
भाजपा नेता ने कहा कि राज्य में संविधान के 73वें, 74वें संशोधन को लागू करने की चुनावी घोषणाएं करने वाली कांग्रेस कुर्सी मिलने के बाद खामोश है। कांग्रेस दस जनपथ के निर्देशों पर उमर को खुश कर रही है। संविधान के 73वें, 74वें संशोधन को वर्ष 1990 में लोकतंत्र को मजबूत बनाने वाले संस्थानों को आर्थिक, प्रशासनिक स्तर पर मजबूत बनाने के लिए प्रभावी बनाया गया था। इस संबंध में खराब नीयत का परिचय दे रही राज्य सरकार बिना संशोधन के ही चुनाव करवाने पर तुली है।
चिनाब दरिया पर बनेगा तीसरा पुल
जम्मू। अखनूर जाने के लिए चिनाब दरिया पर जल्दी ही एक और पुल का निर्माण कराया जाएगा। 26 करोड़ रुपये की लागत से प्रस्तावित इस पुल का निर्माण नमानधर-अखनूर में होगा। इसके बनने से अखनूर क्षेत्र के एक लाख से ज्यादा लोग लाभान्वित होंगे। यह जानकारी विगत दिनों स्वास्थ्य मंत्री शाम लाल शर्मा ने दी। शर्मा ने कहा कि केंद्र सरकार ने चिनाब पर प्रस्तावित इस पुल को मंजूरी दे दी है और जल्दी ही निर्माण कार्य शुरू हो जाएगा। चिनाब पर दो पुल पहले से बने हुए हैं। तीसरे पुल के निर्माण से अखनूर के अलावा ज्यौडि़यां और खौड़ के लोगों को काफी लाभ मिलेगा।  

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जम्मू-कश्मीर को लोकपाल में लाने पर आपत्ति
नई दिल्ली/जम्मू। केंद्र सरकार द्वारा राज्यसभा में पेश लोकपाल विधेयक का नेशनल कांफ्रेंस ने भी विरोध किया। पार्टी को जम्मू-कश्मीर को लोकपाल के अंतर्गत लाए जाने पर आपत्ति है। नेशनल कान्फ्रेंस के एकमात्र राज्यसभा सांसद मुहम्मद शफी ने कहा कि अनुच्छेद 370 के चलते जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त है, ऐसे में उसे लोकपाल के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता। शफी ने कहा कि व्हिसल ब्लोअर विधेयक में जब जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे का ध्यान रखा गया, तो लोकपाल के मामले में ऐसा क्यों नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि जब भारतीय दंड संहिता जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं है, तो लोकपाल कैसे लागू हो सकता है। हालांकि, विधेयक पर 29 दिसम्बर को चर्चा के दौरान सभापति हामिद अंसारी ने सदन में शफी को इस मामले पर बोलने की अनुमति नहीं दी।
वहीं, नेशनल कान्फ्रेंस के इस रूख पर भाजपा ने कहा कि उमर सरकार नहीं चाहती कि राज्य से भ्रष्टाचार खत्म हो। भाजपा प्रवक्ता डॉ. जितेंद्र सिंह ने कहा कि नेकां-कांग्रेस गठबंधन सरकार भ्रष्टाचार को खत्म नहीं करना चाहती है। उन्होंने कहा कि कश्मीर केंद्रित पार्टियां राज्य को मिले विशेषाधिकार की आड़ में राज्य में ऐसे कानूनों की राह में बाधाएं डाल रही हैं जो पारदर्शिता लाना चाहती हैं। इसी सोच के चलते उमर सरकार ने जबावदेही आयोग को पंगु बना दिया है। सरकार का कहना है कि जवाबदेही आयोग होने के कारण लोकपाल की जरूरत नहीं है, जबकि सच यह है कि तीन साल बाद आयोग का चेयरमैन बनाने वाली सरकार ने आयोग का स्टाफ नियुक्त नहीं किया है। वहीं, पीडीपी इस मुद्दे पर फिलहाल चुप्पी साधे हुए है। जबकि, पैंथर्स पार्टी के प्रदेश प्रधान बलवंत सिंह मनकोटिया का कहना है कि सरकार ने राज्य को भ्रष्टाचार का अड्डा बना दिया है। राज्य सरकार ऐसा कोई कानून राज्य में लागू नहीं करवाना चाहती है जिससे राज्य में पारदर्शिता आए। इसी लिए लोकपाल विधेयक का विरोध किया जा रहा है।
डोगरी भाषा को मिले प्राथमिकता
जम्मू। आठ वर्ष पहले संवैधानिक दर्जा मिलने के बाद भी डोगरी भाषा को पर्याप्त प्रचार-प्रसार नहीं मिलने पर डुग्गर प्रदेश के साहित्यकारों में मंथन चल रहा है। आखिर डोगरी भाषा के विकास के प्रयासों में ढुलमुल नीति के लिए कौन जिम्मेदार है? डोगरी भाषा के मान्यता दिवस पर विगत दिनों डुग्गर मंच ने कला, संस्कृति एवं भाषा अकादमी के सहयोग से कार्यक्रम आयोजित किया। इसमें डोगरी के कई साहित्यकार व जानी मानी हस्तियों ने भाग लिया।
डोगरी भाषा को संविधान की 8वीं अनुसूची में लाने के लिए किए गए प्रयासों को याद करते हुए डुग्गर कवि व साहित्यकार मोहन सिंह ने कहा कि डोगरी भाषा भी कश्मीरी नेतृत्व वाली राज्य सरकारों के भेदभाव का शिकार हुई है। संविधान में शामिल होने के आठ वर्ष बाद भी डोगरी को न तो वह पहचान मिली है और न ही इसके प्रचार के लिए सरकार की ओर से प्रयास किए गए हैं। इस अवसर पर डोगरी भाषा के समर्थक कई प्रतिष्ठित साहित्यकार व लेखक उपस्थित थे।
उमर सरकार खुश तो अलगाववादी खफा
जम्मू। वर्ष 2011 में रही शांति और सामान्य स्थिति को लेकर जहां जम्मू-कश्मीर की उमर अब्दुल्ला सरकार अपनी पीठ ठोंकते हुए इसे बीते दो दशकों में सबसे बढ़िया दौर करार दे रही है, वहीं अलगाववादी खेमा बीते वर्ष को त्रासद व तानाशाही भरा बता रही है। विदित हो कि वर्ष 2010 की तुलना में वर्ष 2011 आतंकी घटनाओं में लगभग 47 प्रतिशत और वर्ष 2006 की तुलना में 87 प्रतिशत की कमी आई है। इस दौरान कश्मीर में पर्यटकों की संख्या ने भी रिकार्ड तोड़ा और अलगाववादी खेमा चाहकर भी आम लोगों को अपने एजेंडे के मुताबिक सड़कों पर सरकार के खिलाफ नहीं उतार पाया।
मुख्यमंत्री उमर और राज्य सरकार के वरिष्ठ मंत्रियों से लेकर प्रधानमंत्री व केंद्रीय गृह राज्यमंत्री भी इस पर प्रसन्न हैं। वे कह रहे हैं कि कश्मीर में अलगाववाद अपनी अंतिम सांसे ले रहा है। आतंकी हिंसा लगभग समाप्त हो चुकी है और लोगों ने भी अलगाववादियों के एजेंडे को पूरी तरह नकारते हुए पंचायत चुनावों के जरिए अपनी मंशा जता दी है। हालांकि, अलगाववादी खेमा इससे कहीं भी प्रभावित नजर नहीं आता।
अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी ने कहा कि यह साल तो बहुत ही त्रासदीजनक रहा है। पुंछ की फर्जी मुठभेड़, सोपोर में हिरासती मौत और सौ से ज्यादा नाबालिग बच्चों को जिनकी उम्र 14 साल से भी कम रही है, वर्ष 2011 के दौरान पीएसए के तहत बंदी बनाए गए। यह बात दीगर है कि दुनिया में अपनी बदनामी के डर से इन बच्चों को बाद में जमानत पर रिहा किया गया है। मीरवाइज उमर फारूक ने कहा कि बीता साल कश्मीरियों पर अब तक का सबसे भारी साल रहा है। 

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सम्पादकीय
भारत का उत्तरी सीमांत- मुजफ्फराबाद, गिलगित और बाल्टिस्तान, पाकिस्तान का जिस पर अवैध कब्जा है तथा शक्सगाम घाटी, जिसे पाकिस्तान ने चीन को सौंप दिया तथा अक्साई चिन जिसे चीन ने 1962 में कब्जा कर लिया, देश की सुरक्षा की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है।
शारदीय तथा नारदीय पर्वत चोटियों के बीच की शारदा घाटी तथा वहां स्थित शारदा पीठ, जहां संत रामानुज ने रहकर अपने ब्रह्मसूत्र भाष्य की रचना की। शारदा लिपि का यहां जन्म हुआ जिसमें अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना हुई।
कराकोरम मार्ग को चौड़ा करने के नाम पर उन हजारों भित्तिचित्रों को नष्ट कर दिया गया जिन्हें वहां की पहाड़ियों पर स्थानीय निवासियों, आते-जाते यात्रियों और बौद्ध भिक्षुओं ने उकेरा था। दुर्भाग्य से आज श्रीनगर घाटी में खूनी खेल खेल रहे आतंकवादियों के मानवाधिकारों की चर्चा अधिक होती है और पाक अधिकृत कश्मीर में स्थित हमारी सांस्कृतिक धरोहरों की कम।
गिलगित सामरिक दृष्टि से देश का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान है जहां पांच देशों की सीमाएं मिलती हैं। इसी मार्ग से भारत के व्यापारियों ने सुदूर यूरोप तक अपने व्यापार को बढ़ाया और सांस्कृतिक संवाद स्थापित किया। यही मार्ग अपनाया था उन बौद्ध भिक्षुओं ने जो प्रेम और करुणा का संदेश लेकर सुदूर देशों तक गये। पाकिस्तान ने अवैध कब्जा कर भारतीयों को भौतिक रूप से इससे दूर कर दिया है तो इसे हमारी स्मृति से दूर करने की अपराधी हमारी सरकारें हैं।
संसद का यह संकल्प है कि पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीरभारत का अभिन्न अंग है और इसे हर हाल में वापस लेना है। यदि ऐसा है तो उस भूमि के प्रति देश का अनुराग बना रहे, इसके लिये सरकार द्वारा क्या प्रयास किये जा रहे हैं ? क्या सरकार द्वारा वहां की कला संस्कृति और साहित्य आदि की चर्चा की जाती है ? क्या वहां से विस्थापित होकर भारत में रह रहे लाखों लोगों की ससम्मान वापसी की कोई योजना बनायी है ? क्या पाकिस्तान से चल रही वार्ताओं के दौर में कभी यह मुद्दा भी उठा है ? क्या इन लोगों का कोई राष्ट्रीय रजिस्टर सरकार के पास मौजूद है ? क्या उस भूमि के कब्जे के साथ ही वहां की शारदा लिपि और उसमें रचे गये ग्रंथों के संरक्षण की जिम्मेदारी भी पाकिस्तान को सौंप दी है ?
सरकार के नकारात्मक व्यवहार और उपेक्षा के कारण आज स्थिति यहां तक आ पहुंची है कि विश्वविद्यालय से स्नातक कर चुका भारत का नौजवान लंदन, पेरिस और वाशिंगटन के बारे में अधिक जानता है और मुजफ्फराबाद के बारे में कम। वह स्विटजरलैंड के पहाड़ों की खूबसूरती पर भाषण दे सकता है लेकिन धरती के इस स्वर्गके बारे में पूछे जाने पर कंधे उचका कर अपना अज्ञान जताता है।
भारत सरकार, जिसमें संसद की कार्यकारी शक्तियां निहित हैं, यदि वास्तव में संसद के संकल्प को जीवित रखना और एक दिन उसे पूरा होते हुए देखना चाहती है तो सर्वप्रथम देश के नागरिकों के मन में इस क्षेत्र की स्मृति को जीवित रखने के प्रयत्न करने होंगे।
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अफस्पा पर मानवाधिकारों की दुहाई
केवल कृष्ण पनगोत्रा
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक ताजा रिपोर्ट ने जम्मू-कश्मीर में सशस्त्र सेना विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा) की तार्किकता पर सवाल उठाए हैं। आयोग का कहना है कि भारत सरकार स्वयं जानती है कि देश किसी सशस्त्र विवाद की स्थिति का सामना नहीं करता। देश में मानवाधिकारों की दूसरी व्यापक सामयिक समीक्षा (सेकंड यूनिवर्सल पीरियोडिक रिव्यू) में आयोग के इस नजरिए का खुलासा हुआ है। आयोग की यह दृष्टि मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को काफी रास आ रही है। वह अपनी संतुष्टता भी जाहिर कर चुके हैं। उनकी दलील है कि कुछ लोग उन पर जनता का ध्यान बंटाने का आक्षेप लगाते हैं, लेकिन राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तो ध्यान नहीं बंटा रहा। बात का लबोलुआब यह है कि अफस्पा एक निर्दयी कानून है और मानवाधिकारों की रोशनी में अफस्पा का हटना तर्कसंगत है। लेकिन मानवाधिकारों को आधार मानकर अफस्पा को अनुचित बताना समझ से परे है। मानवाधिकारों की कसौटी पर राज्य का नागरिक प्रशासन भी खरा नहीं उतरता।

वास्तव में जम्मू-कश्मीर ही नहीं अपितु पूरी दुनिया में मानवाधिकारों का हनन एक गंभीर और चिंतनीय मुद्दा है। मानवाधिकारों का एक विस्तृत क्षेत्र है। कालक्रम की लिहाज से देखा जाए तो भारत में मानवाधिकार संदर्भित घटनाओं की सूची और क्षेत्र बड़ा लंबा है। 1829 में अंग्रेजी शासन के दौरान राजा राममोहन राय के प्रयासों से सती प्रथा का बंद होना, 1929 में बाल-विवाह अधिनियम, 1947 में ब्रिटिशराज से राजनैतिक आजादी, 1950 में बने संविधान में मूल अधिकारों की गारंटी तक का संबंध किसी न किसी रूप में मानवाधिकारों से ही है। मगर फिर भी 1829 से लेकर आज तक मानवाधिकारों के हनन का चैप्टर बंद नहीं हुआ। अगर यह चैप्टर बंद होता तो न आज मानवाधिकार आयोग होता, न ह्यूमन वॉच और न ही एमनेस्टि इंटरनेशनल जैसी मानवाधिकारवादी एजेंसियां।

मोटे तौर पर देखा जाए तो कुछ अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार एजेंसियां, यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकारों के हनन की शिकायत की है। मानवाधिकार उच्चायुक्त कार्यालय के एक प्रवक्ता ने एक प्रेस विज्ञप्ति में कश्मीर में नागरिकों की मृत्यु और अभिव्यक्ति के अधिकार पर पाबंदियों का संज्ञान लिया है। यह पाबंदियां मात्र कश्मीर घाटी में ही नहीं अपितु पूरे राज्य में हैं। काबिलेगौर है कि ये पाबंदियां मात्र अफस्पा जैसे कानून से ही पैदा नहीं हुई हैं बल्कि नागरिक और सरकारी स्तर पर जनता पर थोपी गई हैं। आखिर जब जनता अपने नागरिक अधिकारों के लिए धरने-प्रदर्शन करती है तो उन पर सेना नहीं बल्कि नागरिक प्रशासन लाठियां बरसाता है। क्या एक सरकारी कर्मचारी को दंडित करने के लिए उसके वेतन पर लगाई गई रोक उसके मानवाधिकार का हनन नहीं?

मानवाधिकार सिर्फ अफस्पा तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि इनका दायरा बहुत बड़ा है। सवाल यह भी है कि अगर मानवाधिकारों को आधार बनाकर अफस्पा समाप्त होना चाहिए तो राज्य में व्याप्त भ्रष्टाचार के चलते नागरिक अधिकारों के हनन के आधार पर राज्य सरकार को भी जाना चाहिए। गहनता से देखा जाए तो कोई भी सरकार मानवाधिकारों के विभिन्न आयामों और पहलुओं के हिसाब से नागरिकों के प्रत्येक अधिकार की रखवाली करने में नाकाम रही है। कुछ लोग तो मात्र संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों को ही मानवाधिकार प्रतिपादित करते हैं। अगर भारतीय संविधान में दर्ज मूल अधिकारों के संदर्भ में देखा जाए तो भी सरकार लोगों के मानवाधिकारों की रक्षा करती नजर नहीं आती।

भारत में आपातकाल के दौरान संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों को स्वमेव निलंबित माना जाता है। क्या यह मानवाधिकार का उल्लंघन नहीं? इसी बात के दृष्टिगत 1978 में मेनका गांधी बनाम भारत संघ के एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी थी कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन का अधिकार आपातकाल के दौरान निलंबित नहीं किया जा सकता। मानवाधिकारों की सूक्ष्म दृष्टि से तो नागरिकों को शिक्षा और रोजगार से वंचित रखना भी मानवाधिकारों का हनन है। वस्तुत: भारत में मानवाधिकारों की स्थिति ही बहुत पेचीदा है। हालांकि संविधान में जिन मूल अधिकारों का उल्लेख है वह मानवाधिकारों के दृष्टिगत ही नागरिकों को दिए गए हैं। मगर फिर भी 2010 के दौरान प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में ह्यूमन राइट्स वॉच नामक मानवाधिकार संस्था ने भारत को मानवाधिकारों के हनन का देश बताया है।

संस्था ने मात्र सुरक्षाबलों को ही नहीं अपितु पुलिस की क्रूरता पर भी सवाल खड़े किए हैं। यहां यह ध्यान देना भी जरूरी है कि नागरिक प्रशासन की सहयोगी पुलिस मात्र जम्मू-कश्मीर जैसे आतंकग्रस्त राज्यों में ही क्रूर नहीं है बल्कि हिमाचल, पंजाब और हरियाणा जैसे शांत राज्यों में भी सामान कार्यप्रणाली से काम करती है। मानवाधिकार संस्थाओं का अपना कार्यक्षेत्र और कार्यपद्धति है। इन्हें मानवाधिकारों के प्रत्येक पहलू के दृष्टिगत अपने निष्कर्ष एवं रिपोर्ट देनी होती है। बेशक इनका कार्य तथ्यों पर आधारित होता है, लेकिन अक्सर इन रिपोर्टों पर बहस और विवाद भी बने रहते हैं। इन एजेंसियों पर आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों में आतंकियों द्वारा मारे जाने वाले निर्दोष लोगों के मानवाधिकार की चिंता न करने के आक्षेप लगते रहे हैं।

जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में यह तो माना ही जा रहा है कि अफस्पा जैसे कानून से ही राज्य के कुछ भागों में शांति स्थापित हुई है। जाहिर है कि इस शांति को बनाने में सैनिक कार्रवाई के दौरान मानवाधिकार का हनन हुआ होगा। कई बार शांति के लिए समाज और देशविरोधी तत्वों से सशस्त्र टकराव जरूरी हो जाता है और टकराव में मानवाधिकारों के हनन को टाला नहीं जा सकता। ऐसे मामलों में सुरक्षाबल किसी के अधिकारों के हनन के इच्छुक नहीं होते बल्कि ये घटनाएं आतंकियों और देशविरोधी तत्वों की क्रिया की स्वाभाविक प्रतिक्रिया का परिणाम होती है। 
 (लेखक : जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं।)

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अफस्पा पर अस्तित्व की लड़ाई
प्रो. हरिओम
कश्मीरी नेता सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) को निरस्त करने की मांग कर रहे हैं। सेना को यह कानून राज्य में विद्रोह को कुचलने के लिए वैधानिक प्रतिरक्षा शक्ति प्रदान करता है। यह जरूरी नहीं है कि इस मांग को रखने के लिए कश्मीरी अलगाववादियों का हो-हल्ला परिलक्षित हो। कारण, वे किसी भी भारतीय प्रतीक या प्राधिकरण को मानने से इंकार करते हैं। लेकिन सत्ताधारी नेशनल कांफ्रेंस, मुख्य विपक्षी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मा‌र्क्सवादी) या सीपीआई (एम) के तथाकथित मुख्यधारा के कश्मीरी नेताओं पर यह परिलक्षित होना आवश्यक है। यह इसलिए जरूरी है कि वे खुद को मुख्यधारा के नेता के रूप में प्रस्तुत करते हैं, लेकिन उनकी मांग वही है जो वैश्विक आतंकवाद का केंद्र और भारत के दुश्मन नंबर एक कश्मीरी अलगाववादी और इस्लामाबाद आए दिन करते रहते हैं।
मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने अफस्पा मुद्दे को अपने भाषण, बयान और ट्विट्स का आधार बना लिया है। उनका कहना है कि राज्य के कई हिस्सों में स्थिति बेहतर है। इसलिए वहां से अफस्पा हटाने की जरूरत है। उनका मूल तर्क यह होता है कि इससे कश्मीरी मुस्लिमों को सांस लेने की जगह मिलेगी, जिसकी उन्हें सख्त जरूरत है और एक नागरिक के रूप में वे इसके हकदार भी हैं। कई अवसरों पर वह सेना के साथ विचार-विमर्श में इस मुद्दे का समर्थन करते रहे हैं। उनके पिता और नेकां अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला जो कि केंद्रीय मंत्री हैं, यही राग अलापते हुए अफस्पा को हटाने की वकालत कर रहे हैं। अपने पुत्र की उद्देश्य प्राप्ति के लिए वे केंद्र में सत्ता की कुर्सी पर बैठे लोगों के साथ लॉबिंग कर रहे हैं।
उमर के चाचा, पार्टी के पूर्व अतिरिक्त महासचिव और मुख्य प्रवक्ता मुस्तफा कमाल भी सेना और अफस्पा के कटु आलोचक हैं। वास्तव में, इस साल 25 अक्टूबर को कश्मीर घाटी में हुई आतंकी वारदातों और उसके बाद 11 दिसम्बर को नेकां के वरिष्ठ नेता और विधि मंत्री अली मुहम्मद सागर पर हुए जानलेवा हमले के लिए भी मुस्तफा कमाल सेना और अफस्पा को ही जिम्मेदार ठहराते हैं। ये हमले मीरवाइज उमर फारूक के गढ़ में हुए थे। मुस्तफा कमाल की यह राय है कि सेना और अ‌र्द्धसैनिक बल इस प्रकार की गतिविधियों में शामिल हैं, क्योंकि वे नहीं चाहते कि राज्य से अफस्पा हटे। दूसरे ही दिन उन्होंने शक की सुई सेना की तरफ मोड़ते हुए कहा कि अली मुहम्मद सागर पर जानलेवा हमला मीरवाइज उमर फारूक और नेकां के बीच दरार पैदा करने के लिए किया गया था, जिनके बीच कटुता और वैमनस्यता का इतिहास है।
पीडीपी भी अफस्पा के निरस्तीकरण को सुनिश्चित बनाने के लिए संघर्षरत है। यह नेकां पर इस मुद्दे को तोड़-मरोड़ कर पेश करने और कश्मीर घाटी में इसका दोहन कर अब्दुल्ला वंश के जनाधार को नुकसान पहुंचाने का आरोप लगा रही है। व्यावहारिक रूप से यह कश्मीर के लोगों को आश्वस्त करने में सफल रही है कि नेकां सचमुच अफस्पा को हटाने के लिए प्रतिबद्ध नहीं है और इसने सत्ता में बने रहने के लिए इस मुद्दे पर अपने नजरिए से समझौता कर लिया है। वास्तव में, कश्मीर में दो प्रमुख राजनीतिक संगठनों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का खेल जारी है। यह सच है कि इस खेल में पीडीपी आगे और नेकां पीछे है। दोनों पार्टियां अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए राजनीति कर रही हैं। हालांकि सत्ता के लिए नेकां और पीडीपी के बीच संघर्ष जारी है। इन दोनों पार्टियों के नेताओं का कहना है कि अफस्पा के हटने से कश्मीर के लोगों को सांस लेने के लिए जगह मिलेगी। उन पर विश्वास करना कठिन है।
मुद्दा यह नहीं है कि इस कानून के निरस्त होने से कश्मीरी मुस्लिमों को सांस लेने के लिए जगह मिलेगी। वास्तविक मुद्दा यह है कि अफस्पा के हटने से कश्मीर घाटी में अशांति दूर होगी या नहीं। अफस्पा के निरस्तीकरण से घाटी में मौजूदा अशांति कदापि दूर नहीं होगी। कारण, कश्मीर में अशांति अफस्पा लागू करने का नतीजा नहीं है। कश्मीरी नेता दशकों से जिस तरह शोर-शराबा की राजनीति कर रहे हैं, यह अशांति उसी का परिणाम है। इस मसले का मुख्य बिंदु धर्म पर आधारित पाकिस्तान की राजनीति, स्वतंत्रता, वृहत्तर स्वायत्तता और स्वशासन है। घाटी में जारी हिंसात्मक आंदोलन का अंतिम नतीजा विखंडन है। कश्मीरी नेता प्रतियोगितात्मक, सांप्रदायिकतावाद और अलगाववाद की राजनीति में शामिल हैं। उनका मकसद कश्मीर और देश के शेष हिस्सों के बीच विभाजन पैदा करना है। तथ्य यह है कि तथाकथित मुख्यधारा के नेकां नेतृत्व अफस्पा मुद्दे को फिर से उखाड़ने में लगे हुए हैं ताकि वास्तविक मुद्दों और अन्य मोर्चों पर मिली नाकामियों से लोगों का ध्यान हटा सकें। राज्य सरकार और विधानमंडल में जो कश्मीरी नेता हैं, वे अपनी मांगों पर पुनर्विचार कर अच्छा काम करेंगे। उन्हें लोकतंत्र, आर्थिक और प्रशासनिक मुद्दों पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इसके साथ ही उन्हें सुरक्षा संबंधी मामलों में हस्तक्षेप करने से परहेज करना चाहिए, क्योंकि ये मामले रक्षा मंत्रालय के क्षेत्राधिकार में हैं।
(लेखक : जम्मू विवि के सामाजिक विभाग के पूर्व डीन हैं।)
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बीता वर्ष नादान उमर के नाम
जवाहर लाल कौल
बीता वर्ष जम्मू-कश्मीर की वास्तविक त्रासदी को रेखांकित करने वाला रहा है। यह आतंकियों और सरकार के टकराव से अधिक सरकार और सुरक्षाबलों के विवाद का वर्ष रहा। ऐसे प्रश्नों पर बहस चल पड़ी जो आपसी बातचीत के विषय हो सकते थे, मसलन- कश्मीर घाटी में आतंकवाद समाप्त हो गया है कि नहीं, आतंकवाद से लड़ने के लिए सेना को मिले विशेषाधिकारों को छीन लिया जाए कि नहीं आदि।
दिलचस्प बात है कि यह सवाल स्वयं मुख्यमंत्री की पहल पर उठ रहे थे। वर्ष का आखिरी भाग तो इन्हीं प्रश्नों से जूझते हुए बीता। नौबत यहां तक आ गई थी कि राज्य में नेशनल कान्फ्रेंस और कांग्रेस की मिलीजुली सरकार के लिए भी खतरा पैदा होने लगा था। विवाद के तीन ही पक्ष थे- मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला, कश्मीर में तैनात सशस्त्र बलों के अधिकारी और भारत सरकार। शेष सभी पक्ष और दल या तो तमाशाई बने रहे या बीच-बीच में अपने छिटपुट बयानों से आग में घी का काम करते रहे।
यह साल उमर अब्दुल्ला की अनुभवहीनता के भी उदाहरण पेश करता रहा। इसे उनके विरोधी उनका बचकानापन कहते हैं। सशस्त्र सेना विशेष अधिकार कानून को निरस्त करने के पीछे मुख्यमंत्री की योजना अपने विरोधियों, खासकर पीडीपी नेता मेहबूबा मुफ्ती से मुद्दा छीनना था। अलगाववादी नेताओं सैयद अली शाह गिलानी और उमर फारूक के अतिरिक्त महबूबा मुफ्ती भी सेना की कथित ज्यादतियों को मुद्दा बना चुकीं थी। उनका आरोप था कि सेना बेकसूर लोगों की धर-पकड़ करती है और औरतों से छेड़छाड़ भी करती रही है। यह सब इसलिए हो रहा है कि उनके पास आतंकवाद के नाम पर विशेष अधिकार हैं और वे स्थानीय कानून व्यवस्था के सामने जवाबदेह नहीं हैं।
राज्य में आतंकवादी घटनाओं में कमी और कुछ जिलों में तुलनात्मक रूप से शांति के आसार दिखने का राजनीतिक लाभ लेने के लिए उमर अब्दुल्ला ने एक योजना बनाई। अगर श्रीनगर समेत कुछ जिलों से सेना की गतिविधि कम कर दी जाए तो विपक्ष के आरोप ही अप्रासंगिक हो जाएंगे। जब सेना के पास विशेषाधिकार ही नहीं रहेंगे तो वह बिना स्थानीय पुलिस के कोई कार्रवाई ही नहीं कर पाएगी क्योंकि उसकी हर कार्रवाई स्थानीय नियमों और कायदों के ही तहत होगी। लेकिन उमर अब्दुल्ला इस सरल सी बात को भूल गए कि आतंकी गतिविधियों में कुछ कमी केवल सामयिक ठहराव मात्र है; उसकी समाप्ति नहीं।
कश्मीर घाटी पहाड़ों से घिरा एक मैदान है, जिसमें एक जिले और दूसरे के बीच कोई भौगोलिक सीमाएं नहीं हैं, जिनकी पहरेदारी करके किसी जिले को पड़ोसी जिले के आतंकियों से सुरक्षित रखा जा सकता है। घाटी को ही नहीं, पूरे राज्य को भी आतंकवाद के परिमाण के लिहाज से सुरक्षित और असुरक्षित भागों में नहीं बांटा जा सकता है। अपनी राजनीतिक योजना पेश करने से पहले उमर अब्दुल्ला ने सेना के अधिकारों में कटौती के दूरगामी परिणामों के बारे तो सोचा ही नहीं था और देश के अन्य आतंकवाद ग्रस्त क्षेत्रों में जारी व्यवस्था के बारे में भी जानकारी प्राप्त नहीं की थी।
आतंकवाद सामान्य अपराधियों के विपरीत कानून को पूरी तरह नकारता है और उसे खुली चुनौती देता है। वह छिप कर वार करता है और आम जनता को आड़ बनाता है। समाज, प्रशासन में और पुलिस में डर पैदा कर ही आतंकवाद पनपता है। ऐसे गुटों को काबू करना असाधारण काम है, जिसके लिए असाधारण अधिकारों की आवश्यकता होती है। ऐसा कश्मीर में ही नहीं, देश के अन्य भागों में भी होता है और देश से बाहर अन्य लोकतांत्रिक देशों में भी। देश के अन्य राज्यों में सामान्य कानूनों में ही ऐसी व्यवस्था है जिसमें सुरक्षा का अपना कर्त्तव्य निभाते समय किसी आवश्यक कार्रवाई के लिए सैनिकों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। उन पर सेना के नियमों के तहत ही कार्रवाई की जा सकती है। कश्मीर में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है।
आवेश में मुख्यमंत्री ने धमकी दी कि मैं विषेशाधिकारों को मुख्यमंत्री होने के नाते एक तरफा हटा सकता हूं, सैनिक अधिकारी इससे सहमत हों या नहीं। परोक्ष रूप से यह केंद्र सरकार को धमकाने के बराबर था, जो शायद उनका इरादा नहीं रहा होगा। विवाद इस हद पर पहुंचने के बाद जब मुख्यमंत्री ने कश्मीर के आपराधिक कानूनों में संशोधन करने की पेशकश की तो अलगाववादी गुट मैदान में उतर पड़े और ऐसी किसी भी कार्रवाई का विरोध करने की धमकी दी। जिस कदम से उमर अपने विरोधियों पर हावी होना चाहते थे, उसी से उनके विरोधियों के हाथ एक नया हथियार लग गया।
मुख्यमंत्री अपने आप को आधुनिक दिखाने की धुन में यह भी भूल जाते हैं कि जिस पद पर वे हैं, उससे कहे गए किसी शब्द या किए गए छोटे से काम की तरंगें बहुत दूर तक जाती हैं और उनकी प्रतिध्वनि कभी-कभी अपने आप को ही भयभीत कर देती है। जब राजीव गांधी की हत्या में दोषी कुछ तमिल अपराधियों की फांसी की सजा माफ कराने के लिए तमिलनाडु विधानसभा में प्रस्ताव पारित किया गया तो उमर अब्दुल्ला ने इंटरनेट पर टिप्पणी की कि अगर हम कश्मीर में संसद पर हमले के अपराधी अफजल गुरु को क्षमा करने का प्रस्ताव विधान सभा में पारित करें तो कैसा हंगामा होगा? उमर अब्दुल्ला शायद विनोद कर रहे थे लेकिन इसके ठीक कुछ दिन बाद प्रदेश विधान सभा में सचमुच एक निर्दलीय सदस्य ने ऐसा प्रस्ताव पेश करके उमर और कांग्रेस के लिए परेशानी पैदा कर दी।
वर्ष 2011 अंतरंग वार्ताकारों की अब तक गोपनीय रपट के लिए विभिन्न पक्षों से बातचीत के लिए भी याद किया जाएगा। हालांकि अब तक सरकार इस रपट को दबाए बैठी है लेकिन वह इतनी गोपनीय भी नहीं रही है। कुछ तो कश्मीर में बातचीत के दौरान वार्ता में शामिल लोगों ने ही बताया और कुछ शायद वार्ताकारों या सरकार ने जानबूझ कर इसे लीक करवा दिया। आम तौर पर माना जाता है कि इस रपट में सरकार से सिफारिश की गई है कि कश्मीर में आंतरिक स्वायत्तता दी जानी चाहिए और इस स्वायत्तता की मात्रा भी तय की गई है- 1953 से पहले की स्थिति बहाल की जाए।
याद होगा इसी वर्ष शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार किया गया था। इसके बाद बख्शी गुलाम मोहम्मद के शासन के दौरान विधानसभा ने कुछ ऐसे कानून पारित किए जिनसे कई भारतीय कानून, जैसे चुनाव आयोग, महालेखाकार और सर्वोच्च न्यायालय का अधिकार कश्मीर में लागू किए गए। शेख अब्दुल्ला, फारूक अब्दुल्ला और अब उमर मानते रहे हैं कि इससे अनुच्छेद 370 का उल्लंघन होता है, पर जो संशोधन कश्मीर के कानूनों में हुए, उन्हें भी इसी अनुच्छेद के अनुसार किया गया और उन्हें जम्मू-कश्मीर की चुनी हुई विधान सभा ने ही तय किया तो उन्हें उल्लंघन कैसे माना जा सकता है? अगर अंतरंग वार्ताकारों ने ऐसी सिफारिश की है और भारत सरकार उस पर अमल करने वाली है तो यह न तो भारत और कश्मीर को पास लाने के बदले पीछे हटने वाला कदम होगा अपितु कश्मीर के गरीब और पिछड़े वर्गों के ही हित में भी नहीं होगा। इससे कश्मीर व जम्मू में दूरी और बढ़ जाएगी।
(लेखक : वरिष्ठ पत्रकार एवं जम्मू-कश्मीर मामलों के जानकार हैं।)
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Jammu-Kashmir in the words of Padgaonkar
Rustam
Interlocutors on Jammu-Kashmir Dileep Padgaonkar, Radha Kumar and MM Ansari submitted their report to Union Home Minister P. Chidambaram on October 12, 2011. The report has not been made public so far. Hence, one cannot say what exactly the report contains. However, one can say with some authority about what Padgaonkar thinks about Jammu-Kashmir and the nature of the problem the nation has been facing in the state since decades. It would be appropriate to quote him verbatim to put things in perspective.
What he says about Jammu-Kashmir reads like this: “Our experience was that the people across the state were not satisfied. They had suffered and the reasons were different in different regions. One of the main reasons for the unrest among the youth was the acute employment problem. Youth were not getting jobs. That was the reason they were turning towards militants.”
“When we tried to find what the people’s political aspirations were, we found the people inhabiting different regions of the state had different and mutually exclusive political perceptions and aspirations. The people of the Valley had different political perceptions, whereas the people of Jammu and Ladakh had altogether different political perceptions. Their standpoints were altogether different. Not just this, the people of Kargil had political perceptions different from those of the people of Leh. Similarly, the political thinking of the people of the Muslim-majority districts in Jammu province was different from those of the people of Jammu city. How should one tackle all these diversities and satisfy all the interests? This was the fundamental issue before us. I think a way could be found out of the report we had submitted.”
“I view the issues facing the state from three angles. One is the relations between the centre and the state. We know that the Instrument of Accession signed by Maharaja Hari Singh had restricted the jurisdiction of New Delhi to just three subjects (read defence, foreign affairs and communication) as far as Jammu-Kashmir was concerned and the rest of the subjects were under the ambit of the state government. But in course of time New Delhi eroded the internal autonomy the state enjoyed under Article 370 of the Indian Constitution and brought the state under the ambit of several central laws.”
“The Government of India also applied various schedules of the Indian Constitution to the state. Article 370 had envisaged for the state a very special status and the purpose was to enable the state to preserve and promote its distinct identity. The application of the central laws and the various schedules of the Indian constitution caused dissatisfaction among the people of the Valley (read Kashmiri Muslims), they got alienated from India. But the people of Jammu and Ladakh felt jubilant. They accepted the central laws and central institutions very cheerfully because they were for their full integration into India.”
“The other was that there were inter-regional tensions and animosities. For example, the people of Jammu and Ladakh hate the people of Kashmir (read Kashmiri Muslims) from the core of their heart. They complained that Kashmir and the people of Kashmir (read Kashmiri ruling elite) had consistently followed a policy of discrimination with them. If the people of Jammu elected one MLA at the rate of one per 100,000 voters, the people of Kashmir elected one MLA at the rate of one per 85,000 voters. It meant that the people of Kashmir had seven seats more in the assembly as compared to the people of Jammu province, although the population of this province was almost equal to that of the Valley.”
“They also complained that it was the people of Kashmir who had occupied the bulk of positions in the vital service sector. The share of the people of Jammu province and Ladakh region in the public services was very inadequate and negligible. Not just this, it was the Kashmir province which always got more funds for developmental activities and creating infrastructure. The people of Jammu and Ladakh always got only crumbs. The people of Jammu and Ladakh were extremely angry with Kashmir. There existed in Jammu and Ladakh anti-Kashmiri sentiment. This was the internal situation in the state. It was said again and again that the inter-regional bitterness would continue to dot the state’s political scene unless there was decentralization of the state power.”
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Fai did the bidding of his handlers
K.N. Pandita
In the court hearing at Alexandria Court House, Virginia, Washington DC on December 07, the 62-years old Dr. Sayed Ghulam Nabi Fai pleaded guilty to secretly receiving millions of dollars from Pakistan’s spy agency at the bidding of his handlers in Pakistan for 20 years and to tax evasion in contravention of financial transaction rules of the US. He could not plead innocent to the charges brought against him by the FBI because the documentary and other proofs submitted by the prosecutors to the court are copious and irrefutable. He had no way but to plead guilty.What for did Pakistan give him millions of dollars?

FBI concludes that as a paid operative of ISI, he did the bidding of his handlers in Pakistan while he met with US elected officials, funded high-profile conferences and promoted Pakistan’s stand on Kashmir to decision-makers in Washington.Deceptive device was forged to circumvent direct receipt of huge funds from Pakistan government. In close collaboration with Pakistani spy agency, he recruited people to act as ‘straw’ donors who would give money to his NGO Kashmiri American Council (KAC), which really was coming from the Pakistani government.

The donated money would be reimbursed to the ‘straw’ donors through one Zaheer Ahmad, an accomplice of Fai but actually an ISI agent, who remains untraceable. Fai wrote letters to the ‘straw’ donors to mark their remittances as ‘charitable donations’ failing which these would be subject to tax deductions. FBI claims Fai made false statements and told lies to cover up the fake transactions so as to give it some legal semblance. For example, Fai told FBI agents in March 2007 that he had never met anyone from the ISI and in July 2011, he had falsely denied to FBI agents that he or the KAC received money from the ISI or government of Pakistan.

In fact, Fai repeatedly submitted annual KAC strategy reports and budgetary requirements to Pakistani government officials for approval. For instance, in 2009, Fai sent the ISI a document entitled ‘Plan of Action of KAC / Kashmir Centre, Washington, D.C., for the Fiscal Year 2010,’ which itemized KAC’s 2010 budget request of $658,000 and listed his plans to secure US congressional support for US action in support of Kashmir’s right to self-determination.

Fai admitted that, from 1990 until about July 18, 2011, he conspired with others to obtain money from officials employed by the government of Pakistan, including the ISI, for the operation of the KAC in the United States. According to court documents, Fai accepted the transfer at least $3.5 million to the KAC from the ISI and the government of Pakistan through Pakistani American co-accused Zaheer Ahmad and middlemen (straw donors), who received reimbursement from Ahmad for their purported ‘donations’ to the KAC.

Fai graduated KAC by opening the branches of Kashmir Centre in Brussels and in London. The Brussels branch is conducted by Barrister Tramboo (originally from Srinagar) and the London branch by Prof. Shawl originally from Baramulla. The success through money power of the Brussels branch of Kashmir Centre can be gauged by how it managed to scuttle the original report on Kashmir by the European Union representative nominee Emma Nicholson.On the same day, Fai issued a lengthy statement distributed into four parts, viz. (a) Why Kashmir is important to me? (b) The Policy of the Kashmiri American Council (c) Who I represent, and (d) Conclusion.

In this statement, he has tried to endear himself to Kashmiris by projecting them as oppressed and depressed, and hence invokes the sympathy of the Untied States administration and civil society. Apart from this, there is the same rhetoric as we hear from Pakistanis, viz. the UN Resolutions, plebiscite, right to self-determination, human rights violations etc. The statement is essentially a desperate attempt by the beleaguered Fai to tell Kashmiris that he has been obtaining huge funds from Pakistan to push the case of Kashmir’s freedom in world assemblies. He wants to tell defiant Kashmiris subtly that he has been robbing Pakistan for their cause and not for any self aggrandizement, which though he feels may or may not work with skeptic Kashmiris at the end of the day. He strengthens his contention by referring to several of his articles published in various American news papers like Washington Times, Boston Globe, and Quarterly Magazine etc. In order to substantiate his premise, he claims to have tried to strike balance by handling the Indians as well.

Examine this excerpt from his statement under reference: “The most important constituency which we have to address is not United States, not Pakistan, not elsewhere, but India itself. Meeting with Indian officials was fundamental to my strategy in communicating with New Delhi to find the means by which we as Kashmiri Americans could contribute to peace in that part of the world and in resolving the crisis in Kashmir. During the past twenty years, I along with Ambassador Yusuf Buch, former Senior Advisor to the United Nations Secretary General and late Dr. Ayub Thuker, President, World Kashmir Freedom Movement, have met with various Indian Cabinet Ministers, belonging to the administrations of Prime Minister Chandra Shekhar, Prime Minister Narasimha Rao, Prime Minister Atal Behari Vajpayee and current Prime Minister, Dr. Manmohan Singh. And during the past eleven years, I also met with four different officials at the Indian embassy who succeeded each other periodically and introduced me to the new incoming official before leaving for a new post.”

“It has always been my habit to keep the channel of communication open to the Indian embassy. I have met with the officials of Indian embassy in Washington since 1999, sometimes monthly, sometimes bi-monthly. From March 2006 onward we met monthly and at times twice a month. Whenever we had a seminar or a conference on Kashmir I would invite the Indian ambassador to speak. I had a habit of exchanging information and establishing the details in advance with an official of the embassy, and then a final copy of the invitation for the ambassador would be given to the official, whom I usually met at a public cafeteria. An Indian official called me either on July 18 or July 19, 2011, the day I was arrested. He left a voicemail that we must meet, which I heard ten days later after my release.”

Insertion of these two paragraphs in his statement in reference to Indian interlocutors is done with the purpose of conveying very subtly to his Pakistani handlers that he has been trying to buy the Indian spy agency operatives and perhaps some high ups as well to promote Pakistan’s standpoint. In final analysis, Kashmir separatists may realize what harm Fai and others like him have done to their so-called cause of freedom movement.

The US and the world are convinced that the “freedom struggle” is only a mask behind which lie the nefarious designs of Pakistan. Fai has vexed eloquent on Kashmir’s so-called communal harmony but speaks not a word of killing of hundreds of innocent members of Kashmir religious minority and their total ethnic cleansing from Kashmir. He claims to be repudiating the stand of both India and Pakistan, but has no qualms of conscience in accepting huge monies from Pakistan. The concluding paragraph of Fai’s press statement is revealing. He philosophizes as this: “If one party to a solution feels exploited or unfairly treated, then national sentiments to undo the settlement will naturally swell.” This is how he justifies externally sponsored terrorism in Kashmir. And to perpetuate the pro-terrorist philosophy, he became a pawn in the hands of his Pakistani handlers. Who is responsible for the death and destruction of thousands of innocent Kashmiris?

सम्पादक : आशुतोष           सम्पादकीय सहयोग : पवन कुमार अरविंद 
जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र, प्रावासी भवन, 50, दीनदयाल उपाध्याय मार्ग, नई दिल्ली 02, द्वारा आतंरिक प्रचार हेतु जनहित में प्रसारित।  E-mail : vitastajk@gmail.com

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