Wednesday 18 April 2012

वर्ष : 1, अंक : 13, नई दिल्ली, अप्रैल (द्वितीय), कुल पृष्ठ 12


नई दिल्ली द्वारा निर्मित है कश्मीर समस्या
नई दिल्ली। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने विगत दिनों (3 अप्रैल) दिल्ली विश्वविद्यालय में जम्मू-कश्मीर पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया। कार्यक्रम के मुख्य वक्ता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अ.भा. सह-सम्पर्क प्रमुख श्री अरुण कुमार थे। इस अवसर पर उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर समस्या मूलत: नई दिल्ली द्वारा निर्मित और पोषित है। नई दिल्ली में बैठे रणनीतिकार जम्मू-कश्मीर की वास्तविक समस्याओं से पूर्णत: परिचित नहीं है और जानकारी के अभाव में गलत नीतियों का निर्माण कर रहे हैं।
उन्होंने कहा कि कश्मीर वास्तव में जम्मू-कश्मीर राज्य का एक छोटा सा हिस्सा मात्र है। राज्य के अन्य दो हिस्से लद्दाख और जम्मू हैं। इन क्षेत्रों में न कोई अलगाववादी व राष्ट्रविरोधी स्वर हैं और न रहे हैं। कश्मीर के भी केवल सामान्यत: पांच जिलों में ही अलगाववादी गतिविधियां चलायी जाती रही हैं। पृथकतावादी नेतृत्व केवल इन्हीं जिलों में से हैं।
श्री कुमार के अनुसार, कश्मीर के संदर्भ में तीन भ्रांतियां हैं जिसका निवारण आवश्यक है। प्रथम- जम्मू-कश्मीर एक विवाद है, यह सत्य नहीं है। जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने उसी विलय पत्र पर हस्ताक्षर किये थे जिस पर अन्य देशी रियासतों के राजाओं ने किये थे। साथ में ही जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा ने भी इस विलय को अनुमोदित कर दिया। जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय पूर्ण वैधानिक प्रक्रिया के अन्तर्गत है।
दूसरी भ्रांति जनमत संग्रह को लेकर है। भारत ने सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव को सशर्त स्वीकार किया था। पूर्व शर्त के अनुसार, पाकिस्तान को पहले अपनी सेनाओं को वापस बुलाना और पाकिस्तान अधिगृहीत जम्मू-कश्मीर (पीओजेएंडके) की अवैधानिक सरकार को भंग करना था। ये दोनों शर्तों का पालन नहीं हुआ। इसलिए यह प्रस्ताव स्वत: ही निरस्त हो जाता है।
तीसरी भ्रांति अनुच्छेद 370 को लेकर है। यह न तो जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देता है और न ही राज्य को किसी प्रकार की स्वायत्तता प्रदान करता है। इस अनुच्छेद का प्रारम्भ से दुरुपयोग ही हो रहा है। इस अनुच्छेद के कारण पश्चिमी पाकिस्तान से आये तीन लाख शरणार्थियों का बसाया नहीं जा सका है। इसी की आड़ में अन्य पिछड़े वर्ग को लोकसेवाओं में और अनुसूचित जनजाति को राजनीतिक आरक्षण प्राप्त नहीं है। पंचायती राज और सूचना के अधिकार जैसे विधेयक भी ठीक से लागू नहीं किये गये। उन्होंने गिलगित और बल्तिस्तान के सामरिक महत्व को भी बताते हुए कहा कि वास्तव में मुद्दा कश्मीर नहीं अपितु पीओजेएंडके है।    
फई के खिलाफ एसआईटी गठित
जम्मू। जम्मू-कश्मीर सरकार ने कश्मीर-अमेरिकी काउंसिल के चेयरमैन गुलाम नबी फई, मुम्बई हमलों के आरोपी हाफिज सईद और कुछ अन्य लोगों के खिलाफ भारत-विरोधी गतिविधियों की जांच के लिए विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन किया है। कश्मीरी अलगाववादी फई के खिलाफ कश्मीर के थानों में कई मामले दर्ज हैं।
राज्य के पुलिस महानिदेशक कुलदीप खोड़ा ने विगत दिनों (14 अप्रैल) इंटर जोनल पुलिस स्पो‌र्ट्स मीट के दौरान पत्रकारों से बातचीत में बताया कि इस टीम का नेतृत्व एसएसपी बड़गाम उत्तमचंद करेंगे। उन्होंने कहा कि इन लोगों के खिलाफ रेड कार्नर नोटिस भी जारी किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि फई, लश्कर-ए-तैयबा के संस्थापक हाफिज सईद, हिज्बुल मुजाहिद्दीन सुप्रीमो सलाहुद्दीन और राज्य में कुछ अन्य लोगों के खिलाफ जांच की जा रही है। कई दस्तावेजों को खंगाला जा रहा है। जांच में जिसका नाम आएगा, उसके खिलाफ पूरे सुबूत जुटाए जाएंगे और उसे सजा दिलाने के लिए हर संभव कदम उठाए जाएंगे। उन्होंने दावा किया कि फई के खिलाफ जांच जल्द निर्णायक मोड़ पर पहुंच जाएगी।
विदित हो कि 62 वर्षीय फई को अमेरिकी अदालत ने विगत दिनों (30 मार्च) दो वर्ष कैद और रिहाई के बाद तीन साल तक निगरानी में रहने की सजा सुनाई। कारावास के दौरान फई को पाकिस्तान सरकार और आईएसआई के किसी भी अधिकारी व एजेंट से सम्पर्क नहीं करने को कहा है। फई को अमेरिका की संघीय जांच एजेंसी (एफबीआई) ने पिछले वर्ष 19 जुलाई को गिरफ्तार किया था। न्यायालय ने उसे आईएसआई से पैसा लेकर उसके एजेंट के तौर पर काम करने का दोषी करार दिया गया था। आईएसआई एजेंट होने का आरोप कबूल कर चुके फई ने अवैध रूप से अमेरिकी सांसदों के बीच लॉबिंग कर कश्मीर पर अमेरिकी नीति को प्रभावित करने की कोशिश की।
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महाराजा हरि सिंह की प्रतिमा का अनावरण
जम्मू। तवी नदी के तट पर स्थापित महाराजा हरि सिंह की प्रतिमा का विगत दिनों (1 अप्रैल) अनावरण किया गया। यह राज्य में लगाई गई उनकी पहली डबल लाइव साइज प्रतिमा है। इसको जम्मू के प्रख्यात मूर्तिकार रवींद्र सिंह जम्वाल ने तराशा है। इस अवसर पर आयोजित कार्यक्रम को संबोधित करते हुए महाराजा हरि सिंह के पुत्र एवं पूर्व सदर-ए-रियासत डॉ. कर्ण सिंह ने राज्य में ऐसी प्रतिमा स्थापित करने का सारा श्रेय गुलाम नबी आजाद को दिया। उन्होंने कहा कि यह जम्मू क्षेत्र के पहले मुख्यमंत्री बने गुलाम नबी आजाद के प्रयासों का ही नतीजा है कि महाराजा की प्रतिमा के अनावरण के साथ पार्क उन्हें समर्पित हुआ। महाराज ने राज्यवासियों के विकास के बारे में सोचा, जिससे वे हमेशा प्रेरणाश्रोत बने रहेंगे।
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री एवं राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद ने कहा कि महाराजा हरि सिंह ने जम्मू-कश्मीर के विकास की नींव डालते हुए यहां पर बाल विवाह, छुआ-छूत खत्म करने के साथ प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य बना दिया था। उन्हीं के दूरदर्शी सोच का नतीजा है कि आज राज्य विकास की पथ पर अग्रसर है। विदित हो कि आजादी के बाद महाराज हरि सिंह ने भारत में जम्मू-कश्मीर रियासत का विलय करने और कश्मीर को कबायली हमले से बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 

वार्ता में शामिल हो क्रॉस एलओसी ट्रेड
जम्मू। जम्मू-कश्मीर विधानसभा ने विगत दिनों (4 अप्रैल) ध्वनिमत से प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार से आग्रह किया कि निकट भविष्य में होने वाली भारत-पाक वार्ता में क्रॉस एलओसी ट्रेड का मुद्दा भी शामिल किया जाए। इसमें दोनों तरफ के व्यापारियों के लिए निर्विघ्न टेलीफोन और बैंकिंग सुविधा बहाल करना प्रमुख है।
विधानसभा में प्रश्नकाल के दौरान क्रॉस एलओसी व्यापार के मुद्दे पर बहस में हस्तक्षेप करते हुए मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा कि राज्य के दो हिस्सों के लोगों में संवाद बढ़ाने और उनकी बेहतरी के लिए बस सेवा और ड्यूटी फ्री व्यापार शुरू किया गया था। बस सेवा में बेहतरी आई लेकिन अफसोस कि क्रॉस एलओसी ट्रेड में उम्मीद के मुताबिक सुधार नहीं हुआ, क्योंकि एलओसी को अंतरराष्ट्रीय सीमा का दर्जा नहीं दिया जा सकता, जिसके चलते वाघा बार्डर और नाथूला बार्डर की तरह श्रीनगर-मुजफ्फराबाद और पुंछ-रावलाकोट में व्यापारिक सुविधाएं नहीं हैं। 
उमर ने कहा कि हमारे व्यापारियों को इस व्यापार का जितना फायदा होना चाहिए, वह नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि इस व्यापार का फायदा तभी होगा जब दोनों तरफ के व्यापारियों के बीच चौबीस घंटे संवाद की सुविधा हो, नकद लेन-देन के लिए बैंकिंग व्यवस्था हो।   
विस अनिश्चितकाल के लिए स्थगित
जम्मू। विधानसभा स्पीकर मुहम्मद अकबर लोन ने विगत दिनों (4 अप्रैल) बजट सत्र 2012-13 को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया। सत्र समाप्ति की घोषणा करते हुए स्पीकर ने कहा कि 23 फरवरी को राज्यपाल के अभिभाषण के साथ शुरू हुए इस सत्र में 27 कार्यदिवस थे। इस दौरान 140.45 घंटे की कार्यवाही हुई। सदस्यों ने प्रश्नकाल के दौरान 151 तारांकित प्रश्न और शून्यकाल में जनहित के 209 मुद्दों को उठाते हुए सरकार से जवाब तलब किया।
उन्होंने बताया कि सत्र की कार्यवाही के लिए विधानसभा सचिवालय ने कुल 1033 प्रश्न स्वीकार किए थे। मौजूदा सत्र में 14 सरकारी बिल पास किए गए, जबकि 24 निजी प्रस्तावों में से चार को सदन के पटल पर पेश किया गया। विभिन्न सदस्यों ने 125 ध्यानाकर्षण प्रस्ताव जमा किए थे, इनमें से 34 सदन के पटल पर रखे गए, जिनका जवाब संबधित मंत्रियों ने दिया। जबकि 45 ध्यानाकर्षण प्रस्तावों को खारिज किया गया।
स्पीकर ने बताया कि मौजूदा सत्र के लिए विधानसभा सचिवालय को विधायकों की तरफ से मिले 84 प्रस्तावों में से 65 को ही स्वीकार किया गया। वहीं, सदन की कार्यवाही में शामिल करने के लिए मतदान द्वारा तय किए गए 14 बिलों में से सिर्फ छह को ही सदन में लाया जा सका। विधानसभा सचिवालय को 2240 कटौती प्रस्ताव मिले, इनमें से 322 को अस्वीकार किया गया, जबकि 1918 को कार्यवाही की सूची में शामिल किया गया।  

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संपादकीय

अफगानिस्तान में महत्वपूर्ण ठिकानों पर हुए तालिबानी हमले ने साबित कर दिया है कि लम्बे अमेरिकी अभियान के बावजूद तालिबानों के  हौंसले पस्त नहीं हुए हैं। अमेरिका जिस तरह वहां से भागने की जल्दी दिखा रहा है उससे यह संकेत भी मिलता है वह बुरी तरह फंस  चुका है और अब इससे पीछा छुड़ाना चाहता है। इस अभियान के कारण समूचे क्षेत्र में जो अराजकता पनपी है, अमेरिका के पलायन के बाद उसमें और तेजी आने का संदेह बढ़ रहा है। अपने दम पर न अफगानिस्तान उनसे निपटने में सक्षम दिखता है न ही पाकिस्तान में वह आत्मविश्वास नजर आता है। हामिद करजई द्वारा हमलों की जिम्मेदारी नाटो पर डालने की कोशिश और उनके हम तालिबान को अपना भाई कहना बंद नहीं करेंगेजैसे बयानों से भी यह संकेत मिलते हैं।
एक अन्य महत्वपूर्ण घटना, हमलों की चर्चा के चलते जिस पर अधिक ध्यान नहीं गया, भी चिंताजनक है। हमलों से कुछ घंटों पहले ही तालिबान के एक धड़े ने उत्तर-पश्चिम पाकिस्तान की एक जेल पर हमला करके 384 कट्टर आतंकवादियों को छुड़ा लिया। दोनों घटनाओं को साथ रख कर देखने पर स्थिति की गंभीरता का अनुमान सहज ही लग सकता है। इससे जाहिर होता है कि अफगानिस्तान ही नहीं पाकिस्तान में भी तालिबान अपनी ताकत बढ़ाने में कामयाब हुए हैं। साथ ही, पाकिस्तान की सरकार उत्तर-पश्चिम प्रांत से अपना नियंत्रण खो चुकी है, यह भी साबित होता है।
एक दशक से अधिक के संघर्ष के बाद की वस्तुस्थिति का अनुमान हाल ही में नाटो के शीर्ष अधिकारियों की एक रिपोर्ट से लगा सकते हैं। इस रिपोर्ट में संभावना व्यक्त की गयी है कि 2014 में विदेशी सेनाओं की वापसी के बाद पूरे अफगानिस्तान पर तालिबान फिर से कब्जा कर लेंगे। इस संभावित अराजकता को ध्यान में रख कर ही शायद करजई ने 2014 तक कार्यकाल पूरा करने के बजाय 2013 में ही राष्ट्रपति पद छोड़ने की इच्छा व्यक्त की है। अनुमान यह है कि विदेशी सेनाओं की रवानगी के साथ ही अफगानिस्तान और पाकिस्तान में गृहयुद्ध की स्थिति आ सकती है।
भारत के लिये यह स्थिति चिंताजनक इसलिये है क्योंकि भारत के यह सीमावर्ती देश हैं। दोनों ही देशों में होने वाले संघर्ष भारत को किस सीमा तक प्रभावित करेंगे, यह तो समय ही बतायेगा। लेकिन इसका असर भारत पर जरूर होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। स्वाभाविक ही इनसे लगते हुए जम्मू-कश्मीर के क्षेत्र में सर्वाधिक असर पड़ने की संभावना है इसलिये सबसे ज्यादा सावधानी भी वहीं बरते जाने की जरूरत है। आश्चर्य नहीं कि घाटी में एक बार फिर तालिबान समर्थक आतंकवादियों की हलचल बढ़ जाये और वे अफगानिस्तान और पाकिस्तान में चल रही अपनी लड़ाई का एक मोर्चा यहां भी खोलने की कोशिश करें।
यद्यपि यह सारी संभावनाएं काल्पनिक ही हैं किन्तु यदि ऐसा हुआ तो देश को अपनी सैन्य शक्ति का इस्तेमाल भी करना पड़ सकता है। 1962 के चीनी हमले से हमें यह सीख तो लेनी ही होगी कि अपनी सीमाओं पर हो रही अवांछित गतिविधियों को नजरअंदाज करना मंहगा साबित होता है। भारत सरकार और जम्मू-कश्मीर सरकार को अपने नागरिकों को आश्वस्त करना होगा कि वह ऐसी किसी भी परिस्थिति के लिये तैयार है। यह निराशाजनक है कि जब केन्द्र सरकार आतंकवाद के विरुद्ध रणनीति बनाने के लिये दिल्ली में मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन बुलाती है तो उसमें आतंकवाद के शिकार के रूप में सबसे ज्यादा कीमत चुकाने वाले जम्मू-कश्मीर राज्य के मुख्यमंत्री ने इन संभावित परिस्थितियों को नजरअंदाज करते हुए आतंकवाद में कमी की गुलाबी तस्वीर प्रस्तुत की और अफस्पा को हटाने की वकालत की।
राष्ट्रीय मंचों का इस्तेमाल राज्य की राजनीति में तात्कालिक लाभ के लिये किये जाने का यह उदाहरण है। कहा जाता है कि कुछ समय पहले जब सैफुद्दीन सोज की अध्यक्षता में कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस की समन्वय समिति की बैठक हुई तो दोनों पक्षों में से किसी ने भी यह मुद्दा नहीं उठाया। अगर यह सच है तो इसके लिये मुख्यमंत्रियों की बैठक के मंच का इस्तेमाल करने की क्या जरूरत थी ?
जाहिर है कि इसका मकसद कश्मीर घाटी के अलगाववादियों को यह दिखाना था कि वे उनकी मांग को राष्ट्रीय मंच पर उठाते हैं। घाटी केन्द्रित अलगाववादी राजनीति जब तक एजेन्डा निर्धारित करती रहेगी तब तक कश्मीर समस्या का स्थायी समाधान होने की उम्मीद करना भी बेमानी है।

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जरदारी की यात्रा और कश्मीर मसला
 केवल कृष्ण पनगोत्रा
पाकिस्तानी शासकों की भारत यात्रा की लंबी कड़ी में राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी का नाम भी जुड़ गया। क्या पाया और क्या खोया? बस दोनों देशों की जनता, नेताओं और विश्लेषकों की ओर से स्वाभाविक और पूर्व परिचित सामान्य प्रतिक्रियाएं और थोड़ी बहुत औपचारिकताएं ताकि दोनों देशों के शासकों के मिलाप को जमीनी हकीकत का रूप मिल सके। मात्र 40 मिनट की बातचीत में आखिर क्या समा सकता था और वह भी एक निजी यात्रा में जब दौरे को लेकर कोई विशेष पूर्वाभास नहीं था।
जनता किसी भी अपेक्षा से पूर्णतया मुक्त ही दिखी। बेशक जिन मुद्दों पर बातचीत हुई उनमें कश्मीर के अलावा अन्य मुद्दे आम आदमी की नजर में इतने महत्वपूर्ण नहीं थे कि उनके दिलो-दिमाग में आशाओं और अपेक्षाओं का ज्वार उठता। कारण, जब तक किसी पाकिस्तानी शासक के भारत दौरे पर कश्मीर का रंग न चढ़े तो ऐसी यात्रा को सामान्य और रुखी समझे जाने में आश्चर्य नहीं होना चाहिए। कारण यह है कि 1947 से ही जब देश का धर्माधारित द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत पर विभाजन हुआ दोनों देशों के संबंध प्रगाढ़ नहीं रहे और न ही उनमें अपेक्षानुसार प्रगति हुई। दोनों देशों के संबंधों को लेकर मुख्य मुद्दा कश्मीर ही रहा। द्विपक्षीय व्यापारिक संबंध, क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग, व्यापार संबंधी मामलों की परस्पर तारीफें, वीजा नियमों में संशोधन आदि बातें सामान्यत: ज्यादा आकर्षित नहीं करती। उद्योगपतियों को मल्टीपल विजिट वीजा बेशक प्रसन्न करने वाला हो लेकिन आतंकवाद से पीडि़त जम्मू-कश्मीर की अवाम को इस दौरे से पूर्ववर्ती दौरों की भांति कुछ खास नजर नहीं आया।
इन बातों के मद्देनजर लोग न निराश थे और न ही आशावान। नेता, राजनेता, सरकार समर्थित विश्लेषक और बुद्धिजीवी जो चाहे कहें, आम जनता और सामाजिक हलकों में जिन बातों को लेकर आशा और अपेक्षा थी वह इस दौरे के दौरान अछूती ही रहीं। कश्मीर, आतंकवाद, सियाचिन, वीजा, व्यापार, क्रिकेट आदि मुद्दों पर बात जरूर किसी नतीजे पर पहुंच सकती है लेकिन मुख्य मुद्दे कश्मीर और आतंकवाद को लेकर ठोस नतीजों की संभावना जरा दूर की बात है। बेशक हम पाकिस्तान से यह उम्मीद करते हैं कि वह कश्मीर मसले के समाधान के लिए भारत से सहयोग करेगा, लेकिन पिछले अनुभवों के दृष्टिगत और उसके चिरपरिचित स्टैंड के चलते यह इतना आसान भी नहीं है। हालांकि इस बातचीत में पाकिस्तान की ओर से कश्मीर मुद्दे के समाधान की मांग की गई है मगर जिस तरह इस दौरे के दौरान हाफिज सईद के मुद्दे को जरदारी टाल गए उसे देखते हुए पाकिस्तान की अंदरूनी मजबूरियों को समझा जा सकता है।
मुम्बई हमले के दोषियों को सजा दिलाने के मुद्दे पर जरदारी अदालती प्रक्रिया की पेचीदगियां ही गिनाते रहे। इसलिए जैसा कि जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री ने अपनी टिप्पणी में कहा है कि बैठक में उम्मीद से ज्यादा मुद्दों पर बातचीत हुई, राज्य की जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं लगता। हालांकि मुख्यमंत्री ने सोशल साइट ट्विटर पर यह भी स्वीकार किया कि जरदारी के दौरे के एजेंडे में कश्मीर मसला शामिल नहीं रहा। यह कहकर एक प्रकार से उन्होंने राज्य की जनता के दिल की बात ही कही है। हो सकता है उमर अब्दुल्ला ने कश्मीर मसले की बात करते हुए ऐसे समाधान की उम्मीद की हो जो अधिकतर कश्मीर केंद्रित सियासत की पसंद हो लेकिन यह अवश्य है कि कश्मीर समस्या के समाधान के लिए राज्य के जम्मू और लद्दाख क्षेत्रों की जनता भी समान रूप से चिंतित है।
चाहे अलगाववादी हों या मुख्य धारा से जुडे़ लोग दोनों हलकों में कश्मीर मसला चिंता का विषय है। दोनों ही हलके बातचीत जारी रखना चाहते हैं। जरदारी के दौरे पर अलगाववादी मीरवाइज उमर फारूक का कहना है कि जरदारी ने कोई उत्साह नहीं दिखाया। मुलाकातें अच्छी हैं, लेकिन ये आगे नहीं बढ़ती। पाकिस्तान के राष्ट्रपति का दौरा निजी था। मुफ्ती मुहम्मद सईद ने इसे मात्र अच्छी पहल ही कहा है और भाजपा के निर्मल सिंह का मानना है कि यह बातचीत एक दिखावा है। पाकिस्तान आतंकवाद को लगातार शह दे रहा है। इन प्रतिक्रियाओं से जाहिर होता है कि राज्य की जनता के लिए जितना अहम कश्मीर मुद्दा है उतना शायद ही कोई दूसरा मुद्दा हो। अत: जरदारी के दौरे से राज्य की जनता में कोई विशेष उत्साह देखने को नहीं मिला।
कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के अध्यक्ष बिलावल भुट्टो जरदारी की मुलाकात से राज्य की जनता को शायद ही कोई सरोकार हो। इसमें कोई दो राय नहीं कि पाकिस्तान भारत से अच्छे संबंध चाहता है। शायद यही वजह है कि पाकिस्तान भारत को मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा देने में कुछ रुचि दिखाई देता नजर आ रहा है। समस्या मात्र यही है कि पाकिस्तान आतंकवाद पर लगाम लगाने का इच्छुक नजर नहीं आ रहा। वह एक तरफ तो स्वयं को आतंकवाद का शिकार मान रहा है जबकि दूसरी ओर भारत आतंकवाद और कश्मीर मसले के समाधान में कोई ठोस प्रगति करता नजर नहीं आता। हैरानी तो तब होती है जब पाकिस्तानी शासक ऐसे बयान देते हैं जिनसे कश्मीर मसले के समाधान में प्रगति के बजाए अवनति ही नजर आने लगती है। आखिर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री युसूफ रजा गिलानी का कुछ माह पूर्व यह कहना कि अगर पाकिस्तान को एक हजार साल तक भी भारत से लड़ना पड़े तो वह कश्मीर की खातिर लड़ेंगे। 1989 में चर्म पर पहुंचा आतंकवाद पाकिस्तानी शासकों की ऐसी ही फितरत का एक उदाहरण है।
पाकिस्तान अभी भी कश्मीर में जनमत-संग्रह की पैरवी करता नजर आता है। पाक परस्त अलगाववादी अभी भी कश्मीर को द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत पर पाकिस्तान में शामिल करना चाहते हैं। आजादी और जनमत-संग्रह की दलील तो मात्र एक छलावा है। यकीनन यही कारण है कि 1951 से ही पाकिस्तान और वर्तमान में अलगाववादी भी जनमत-संग्रह की मांग को दोहरा रहे हैं। इस दृष्टि से जरदारी की भारत यात्रा उम्मीद के मुताबिक उत्साहजनक नहीं रहा।
(लेखक : जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं।)
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शंका समाधान की जरूरत
दयासागर
ऐसा प्रतीत होता है कि तवी पुल के पास महाराजा हरि सिंह की मूर्ति दिल्ली वालों से पूछ रही हो कि मैंने तो भारतीय गणराज्य में अपने राज्य का विलय कर दिया था फिर यहां इतनी अशांति क्यों है? आज भी कुछ लोग किस कश्मीर समस्या की बात कर रहे हैं, जिसके बारे में मनमोहन सिंह और जरदारी के बीच बातचीत हो सकती है? महाराजा को क्या पता कि जिस गैर जिम्मेदाराना ढंग से केंद्र सरकार ने वीपी मेनन के हाथों भेजे गए विलय दस्तावेज का निपटारा किया था उससे वर्ष 1947 में भारत में विलय नहीं चाहने वालों को बातचीत करने का अवसर मिला था। इसके साथ ही न तो कांग्रेसी नेताओं ने अपनी कार्रवाई की सही तरह से व्याख्या करने की कोशिश की, जिस कारण देश विरोधी तत्व बेरोकटोक अपनी बातों को लोगों तक पहुंचाने में लगे रहे, जिस कारण कुछ लोगों के मन में शंकाएं उत्पन्न होती चली गई। यही नहीं, राजसत्ता के कुछ भूखे लोग भी केंद्र सरकार के ऐसे रवैये में अपना लाभ देखने लगे और आम कश्मीरियों को भ्रमों के जाल से निकालने के लिए ईमानदारी से कोशिश नहीं की।
महाराजा द्वारा हस्ताक्षरित विलय दस्तावेज एक चिट्ठी से ढंका हुआ था, जिसमें तत्कालीन मौजूदा शर्तों की व्याख्या की गई थी। 27 अक्टूबर 1947 को विलय दस्तावेज स्वीकारने के बाद लॉर्ड माउंटबेटन ने भी महाराजा हरि सिंह को एक चिट्ठी लिखी थी, जिसमें 26 अक्टूबर को उनकी लिखी चिट्ठी मिलने की बात कही गई थी। अलगाववादियों और देश विरोधी तत्वों ने विलय की पूर्णता के बारे में प्रश्न पूछने के लिए माउंटबेटन की चिट्ठी का सबसे अधिक प्रयोग किया है। कुछ लेखकों ने भी अंतिम विलय पर सवाल उठाने के लिए इस चिट्ठी का खूब प्रयोग किया है। यद्यपि यह चिट्ठी विलय दस्तावेज का हिस्सा नहीं थी। दिल्ली में सत्ता की कुर्सी पर काबिज लोगों को बहुत पहले इन सवालों के जवाब देने चाहिए थे। यहां तक कि महाराजा हरि सिंह की चिट्ठी के प्रारूप का भी अलगाववादियों के विचारों का विरोध करने के लिए प्रयोग नहीं हुआ है। हालांकि बहुत देर हो चुकी है, लेकिन अभी भी समय है। जेएंडके (खासकर कश्मीर घाटी के लोगों) के कुछ मासूम लोगों के दिमाग में वर्षों से घर कर चुके भ्रमों को दूर करने के लिए सामान्य और व्यापक स्वीकार्य तर्कों को विस्तार देने की आवश्यकता है। भारतीय स्वतंत्रता कानून 1947 से संबंधित भारत सरकार कानून 1935 यह अवसर प्रदान करता है कि देश के किसी भी राज्य का शासक विलय दस्तावेज पर अमल कर भारतीय गणतंत्र में अपने राज्य का विलय कर सकता है।
महाराजा द्वारा हस्ताक्षरित विलय दस्तावेज के अनुसार- मैं श्रीमान् इंदर महेंदर राजराजेश्वर महाराजाधिराज श्री हरि सिंह, जम्मू और कश्मीर नरेश तत्था तिब्बत आदि देशाधिपति, जम्मू-कश्मीर का शासक अपने राज्य की संप्रभुता अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए राज्य को भारतीय गणराज्य में विलय करता हूं। साथ ही सूची में वर्णित शर्तों को स्वीकार करता हूं ताकि विधानमंडल राज्य के लिए कानून बना सके। भारतीय स्वतंत्रता कानून 1947 से विलय के दस्तावेज में किसी तरह का संशोधन या बदलाव नहीं होगा, जब तक कि मैं ऐसे संशोधनों को स्वीकार नहीं करता। मैं राज्य की ओर से विलय शर्तो को लागू करने की घोषणा करता हूं। तत्कालीन गवर्नर जनरल ऑफ इंडिया लॉर्ड माउंटबेटन ने इसे स्वीकार करते हुए 27 अक्टूबर 1947 को इस पर हस्ताक्षर कर दिया। उन्होंने कहा मैं 27 अक्टूबर 1947 के विलय के दस्तावेज को स्वीकार करता हूं। इसलिए तकनीकी रूप से यह विलय पूर्ण और असंदिग्ध है। यह उल्लेख करना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि जेएंडके राज्य के विलय दस्तावेज का प्रारूप देश के अन्य राज्यों के विलय दस्तावेज से भिन्न नहीं था।
हरि सिंह ने 26 अक्टूबर को अपनी चिट्ठी में विलय दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने के लिए 14 अगस्त 1947 के बाद देरी के कारणों का उल्लेख करने की कोशिश की है। महाराजा ने अपनी चिट्ठी में कहा है कि महामहिम मैं आपको सूचित करना चाहता हूं कि मेरे राज्य में एक गंभीर स्थिति पैदा हो गई है। मैं आपकी सरकार से तत्काल मदद पहुंचाने का आग्रह करता हूं। महामहिम जैसा कि आप जानते हैं कि जम्मू-कश्मीर राज्य का न तो भारतीय गणराज्य और न ही पाकिस्तान में विलय हुआ है। उत्तरी पश्चिमी सीमांत प्रांत के दूरस्थ क्षेत्रों से बड़ी संख्या में जनजातियों का घुसपैठ हो रहा है। ये मानसेहरा-मुजफ्फराबाद सड़क से बड़ी संख्या में ट्रकों में सवार होकर आ रहे हैं और आधुनिक हथियारों से पूरी तरह लैस हैं। उत्तरी पश्चिमी सीमांत प्रांत की स्थानीय और पाकिस्तान सरकार की जानकारी के बिना यह संभव नहीं है। बार-बार अपील करने के बावजूद इन हमलावरों को रोकने के लिए कोई प्रयास नहीं किए जा रहे हैं।
महाराजा ने राज्य के लोगों के बारे में जो कुछ कहा उससे बहुत कुछ खुलासा होता है। उन्होंने कहा कि मेरे राज्य के लोग जिसमें मुस्लिम, गैर मुस्लिम और सामान्य लोग शामिल हैं, उनका इसमें कोई हाथ नहीं है। मौजूदा आपातकालीन स्थिति को देखते हुए भारत सरकार से मदद मांगने के अलावा मेरे पास कोई विकल्प नहीं है। इसी कारण मैंने ऐसा करने का फैसला किया है और आपकी सरकार हमारी बात को स्वीकार करे इसके लिए विलय के दस्तावेज को संलग्न करता हूं। इसलिए स्पष्ट रूप से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि महाराजा ने जेएंडके के राजकुमार के साथ मौजूदा परिस्थितियों का वैचारिक और तार्किक मूल्यांकन के बाद यह निर्णय लिया था। जबकि लॉर्ड माउंटबेटन द्वारा महाराजा को लिखी चिट्ठी से तत्कालीन अनुत्तरित केंद्र सरकार और माउंटबेटन के इरादों का पता चलता है। तत्कालीन जवाहर लाल नेहरू की कैबिनेट ने उन अनुत्तरित प्रश्नों का स्पष्टीकरण देने तक की परवाह नहीं की।
लॉर्ड माउंटबेटन ने विचित्र ढंग से अपनी चिट्ठी में लिखा है कि परिस्थितियों को देखते हुए मेरी सरकार ने भारतीय गणराज्य में कश्मीर के विलय को स्वीकार करने का निर्णय लिया है। अगर किसी राज्य में विलय का मुद्दा विवाद का विषय रहा है तो उस राज्य के लोगों की इच्छाओं के अनुरूप विलय के सवाल पर फैसला लेना चाहिए। मेरी सरकार की इच्छा है कि कश्मीर में कानून व्यवस्था बहाल होने और यहां की धरती को हमलावरों से मुक्त करवाने के बाद राज्य के विलय के प्रश्न को लोगों के माध्यम से निपटाना चाहिए। सवाल है कि जेएंडके के विलय के मुद्दे पर माउंटबेटन का नाम विवाद के रूप में कैसे लिया जा सकता है। महाराजा ने किसी विवाद के बारे में बात नहीं की थी। न ही भारतीय स्वतंत्रता कानून को लेकर कोई विवाद था और न ही नेहरू ने इसकी व्याख्या की थी और न ही कांग्रेसियों ने उनका अनुसरण किया था।
(लेखक : जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं।)
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क्षेत्रीय अखंडता सर्वोपरि
प्रो. हरिओम
 देश में धर्मनिरपेक्षता के लिए सबसे बड़ा खतरा पाकिस्तान के साथ टकराव है। मनमोहन सिंह सरकार में कांग्रेसी नेता, राज्यसभा सांसद और पूर्व मंत्री मणिशंकर अय्यर ने 29 मार्च को यह निंदनीय और संदेहास्पद बयान दिया। नई दिल्ली में दिल्ली आधारित तथाकथित थिंक टैंक, केंद्र के लिए नीति समीक्षा (सीपीए) द्वारा आयोजित तीन दिवसीय कांफ्रेंस भारत-पाकिस्तान : सिविल सोसायटी रिव्यू ऑफ स्ट्रैटेजिक रिलेशंस में उन्होंने यह बात कही। सीमा मुस्तफा जो राज्यसभा और राम जेठमलानी की कश्मीर कमेटी के भी सदस्य हैं, इस घटना के पीछे मुख्य रूप से शामिल थी। यह बिल्कुल स्पष्ट है।
12 मार्च को सीपीए ने भी संवैधानिक क्लब में एक दिवसीय युवा सम्मेलन का आयोजन किया था, जोकि संसद से कुछ मीटर दूर था, जिसमें विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों के 150 से अधिक कश्मीरी विद्यार्थियों ने भाग लेकर अपने विचार व्यक्त किए। उनका कहना था कि सिर्फ आत्मनिर्णय के अधिकार से ही कश्मीर समस्या का समाधान हो सकता है। सम्मेलन में कई भारतीय कानून निर्माताओं, कश्मीर के कुछ विधायकों और अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष वजाहत हबीबुल्ला ने भी भाग लेकर अपने विचारों को व्यक्त किया। अधिकांश वक्ताओं ने सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) और जन सुरक्षा कानून (पीएसए) को हटाने का सुझाव दिया।
इसके साथ ही राजनीतिक बंदियों को छोड़ने की मांग और राज्य के लिए वृहत्तर स्वायत्तता की वकालत भी की। उन्होंने इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया कि राज्य की एक बहुत बड़ी आबादी जेएंडके को और स्वायत्तता देने के विचार का पुरजोर विरोध करती है। सचमुच सीपीए कुछ समय से नई दिल्ली में जनमत को लामबंद करने का प्रयास कर रही है ताकि कश्मीर में निहित स्वार्थी तत्वों को वे अधिकार मिल जाएं जिससे वे अपनी अधूरी इच्छा पूरी कर सकें। उनकी इच्छा क्या है? यह सबको मालूम है। यदि संभव हो तो वे देश से आजाद होने के मंसूबे पाले हुए हैं। 12 मार्च को संवैधानिक क्लब में जो कुछ हुआ उसे हम नजरअंदाज कर इस तीन दिवसीय सम्मेलन के पहले दिन अय्यर ने जो सुझाव दिया था, उस पर ध्यान केंद्रित करें। उनका सुझाव था कि भारत में धर्मनिरपेक्षता के लिए पाकिस्तान के साथ टकराव सबसे गंभीर खतरा है। उन्होंने इस्लामाबाद के साथ सामरिक संबंधों के महत्व पर जोर दिया। उनका कहना था कि सभी देशों के साथ हमारी सामरिक साझेदारी है जिसका कोई अर्थ नहीं है, लेकिन जिस देश के साथ कोई सामरिक साझेदारी नहीं है उसका सचमुच महत्व है।
अय्यर का कहना था कि पाकिस्तान के साथ सामरिक साझेदारी न होने से हम लोग अत्यंत असुरक्षित हो गए हैं। धर्मनिरपेक्षता हमारे देश को एकसूत्र में बांधने का काम करता है लेकिन भारतीय समाज का एक वर्ग जो 15-16 प्रतिशत है, भावनात्मक रूप से हमारे देश में पूरी तरह एकीकृत महसूस नहीं करता है। कारण, कई भारतीय और पाकिस्तानी मुस्लिम एक जैसे दिखाई देते हैं। उनके तर्कों का यह निष्कर्ष था कि कई भारतीय मुस्लिम जब कभी पाकिस्तान का दौरा करते हैं तो उन्हें बुखार हो जाता है। वे सोचते हैं कि जब वापस लौटेंगे तो उन पर शक किया जाएगा। यही नहीं, अय्यर ने पाकिस्तान को सचेत किया कि 26/11 जैसी घटनाएं शांति प्रक्रिया को पटरी से उतार देगी। यदि इस तरह की घटनाएं होती हैं तो भारत में किसी भी लोकतांत्रिक सरकार के लिए शांति पथ पर निरंतर कार्य करते रहना असंभव हो जाएगा।
कोई भी अय्यर की सलाह को अस्वीकार नहीं कर सकता कि भारत और पाकिस्तान के बीच सामरिक महत्व का संबंध होना चाहिए। वास्तव में, हर शांतिप्रिय भारतीय दृढ़तापूर्वक इसका समर्थन करेगा, लेकिन अय्यर के प्रतिपादन के साथ समस्या यह है कि यह अत्यधिक दोषपूर्ण है। यह जमीनी सच्चाई पर आधारित नहीं है। भारत पहले से ही समय-समय पर इस्लामाबाद को और अधिक समय देकर यह बीड़ा उठाने का उपाय करता रहा है, लेकिन पाकिस्तान एक बार भी सदाशय भावों का परस्पर आदान-प्रदान नहीं किया है। इस्लामाबाद ने सदैव एक ही वर्ग की सदाशय भावों को भारतीय कमजोरी के रूप में चिन्हित किया है।
बेहतर होता अगर अय्यर दो देशों के बीच असहमति के बिंदुओं पर प्रकाश डालते और भारत-पाकिस्तान के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित करने के लिए जो कदम उठाने चाहिए, उसकी सलाह देते। क्या वह कह सकते हैं कि इस्लामाबाद अपनी आक्रामकता छोड़ देगा और भारतीय सेना को वर्ष 1947-1948 से अवैध रूप से अपने कब्जे में लिए क्षेत्रों में कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए जाने की अनुमति देगा? इस्लामाबाद जम्मू-कश्मीर पर भारतीय स्टैंड का समर्थन करेगा? क्या इस्लामाबाद भारतीय पानी पर ध्यान केंद्रित करना बंद करेगा? क्या इस्लामाबाद बीजिंग को गिलगित-बल्तिस्तान क्षेत्र से बोरिया बिस्तर समेटने की बात कहेगा? क्या इस्लामाबाद अफगानिस्तान पर भारतीय स्टैंड की सराहना करेगा?
क्या इस्लामाबाद सियाचिन ग्लेशियर और सर क्रीक पर अपने दृष्टिकोण बदलेगा? क्या इस्लामाबाद कश्मीरी अलगाववादियों को नैतिक, राजनीतिक और कूटनीतिक समर्थन बंद करना चाहेगा? इन सभी मुद्दों पर पाकिस्तान का ठोस दृष्टिकोण है और यह कहना अतिश्योक्ति होगा कि वर्षों से वह जिस पथ पर चला आ रहा है उससे वह विचलित होगा। पाकिस्तान टकराव के इस मार्ग से जिस दिन विचलित होगा उसी दिन समाप्त हो जाएगा। भारत में धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देने के लिए नई दिल्ली को क्या करना चाहिए? क्या पाकिस्तान को अपनी इच्छा पूरी करने की छूट देनी चाहिए? अय्यर की इच्छा है कि नई दिल्ली उपरोक्त बातों पर गंभीरता से विचार करे, लेकिन यह संभव नहीं है। वास्तव में, कोई भी देश अपने संप्रभु अधिकारों से समझौता कर धर्मनिरपेक्षता के लिए अपनी क्षेत्रीय अखंडता की जड़ें खोदने का अधिकार नहीं देगा। धर्मनिरपेक्षता और संप्रभुता दो भिन्न चीजें हैं। अय्यर इस कटु सच को स्वीकार कर बढि़या काम करेंगे। धर्मनिरपेक्षता का मतलब पाकिस्तान जिस चीज को समर्थन देता है, उसे स्वीकार करना नहीं हो सकता।  (लेखक : जम्मू विवि के सामाजिक विभाग के पूर्व डीन हैं।)
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दुरभिसन्धि का शिकार अमरनाथ यात्रा?
डॉ. सुरेन्द्र जैन
कश्मीर में स्थित अमरनाथ तीर्थ हिंदू समाज का एक महत्वपूर्ण तीर्थ तो है ही, अब यह राष्ट्रीयता का भी प्रतीक बन गया है। यहां सम्पूर्ण देश का हिन्दू समाज उपस्थित होकर लघु भारत का दृश्य निर्माण कर देता है। शायद  इसी कारण वहां के अलगाववादी इस तीर्थ को समाप्त करना चाहते हैं। उन्हें मालूम है कि जब तक बाबा अमरनाथ वहां उपस्थित हैं, इस क्षेत्र को हिंदू शून्य बनाने का उनका स्वप्न पूरा नहीं हो सकता। पहले उन्होंने यात्रियों पर हमले किये। जब मौत का खौफ भी शिवभक्तों को नहीं रोक पाया तो उन्होंने  सरकार व धर्मनिरपेक्ष दलों में अपने शुभचिंतकों के द्वारा इस पावन यात्रा को रोकने के प्रयास शुरु कर दिये। इन सब लोगों ने दासत्व जैसे भाव से उनके अधूरे एजेंडे को पूरा करने में अपना पूरा सामर्थ्य लगा दिया।
इस प्रयास में राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति भी अपने पद की मर्यादा को ताक पर रखकर उनके षडयंत्रों को लागू करने में उनकी सहायता करता दिखाई पड़ता है। वर्तमान राज्यपाल श्री वोहरा ने ही २००८ में अमरनाथ की जमीन सरकार को वापस देकर शिवभक्तों व देश के संविधान का अनादर किया था। उस समय सम्पूर्ण देश के शिवभक्तों नें इसको अपने लिये चुनौती माना था और सारा देश जम्मू के समाज के साथ खडा हो गया था। अमरनाथ यात्रा के विरोधी हाथ में पाकिस्तान का झंडा लेकर भारत मुर्दाबादके नारे लगा रहे थे। भारतीय सेना के जवानों को देखते ही वे उन्हें हिंदुस्तानी कुत्तेकहकर संबोधित करते थे।
इसके विपरीत बाबा के समर्थक भारत का राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा हाथ में  लेकर भारत माता की जय के नारे लगाकर पुलिस की लाठी-गोली खाते थे परन्तु देश के प्रति उनका समर्पण उनको पीछे नहीं हटने देता था। देश के कथित राष्ट्रीय मीडिया में कौन कितना राष्ट्रीयहै, इसका परीक्षण भी उस समय हो गया था। राष्ट्रीयता की इस लडाई में अन्ततोगत्वा राष्ट्रभक्ति की विजय हुई और पूरे देश में एक आत्मविश्वास की लहर दौड़ गई कि जब तक अमरता के प्रतीक बाबा अमरनाथ हैं, यह देश अमर रहेगा चाहे अलगाववादी और उनके समर्थक कितना ही जोर लगा लें। ज्ञात हो विफलता के बाद भी अलगाववादी चुप नहीं बैठे। २००९ में उन्होंने धमकी दी कि वे अमरनाथ यात्रा को ३० दिन से अधिक नहीं चलने देंगे। उस समय तक यात्रा ६० दिन की होती थी। ज्येष्ठ पूर्णिमा से शुरु करके श्रावण पूर्णिमा तक चलाने की परम्परा भी थी और सभी यात्रियों को सुविधा और सुरक्षा के साथ दर्शन कराने के लिये इसको आवश्यक समझकर मा. उच्च न्यायालय ने यह आदेश भी दिया था। इस यात्रा को सफल बनाने के लिए मुखर्जी कमेटी की स्थापना की गई थी। उनकी अनुशंसा भी इसी प्रकार की रही है, इसके बावजूद २०१० में इसी राज्यपाल नें यात्रा की अवधि अपने आप घटाकर ५५ दिन कर दिया था।
यात्रा के संचालन के लिये न्यायालय के आदेश से श्रीअमरनाथ श्राईन बोर्ड की स्थापना हुई थी और राज्यपाल इसके पदेन अध्यक्ष हैं। इस बोर्ड का संविधान, मा. उच्च न्यायालय का निर्णय और मुखर्जी कमेटी की रिपोर्ट बोर्ड के अधिकार और कर्तव्यों को स्पष्ट रूप से परिभाषित करता है। बोर्ड का दायित्व यात्रा के लिये उचित व्यवस्था जुटाना है जिससे सभी यात्री सुरक्षा और सुविधा से दर्शन कर सकें। यात्रा के आन्तरिक मामलों में दखल देने का बोर्ड का अधिकार नहीं है। यात्रा की तिथि, मुहूर्त या अवधि तय करना उनका काम नहीं है।यह संविधान की धारा २५ और २६ का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन भी है। इसके लिये हिंदू संत और परम्परा ही महत्वपूर्ण है। इसके बावजूद बोर्ड इस मामले दखल देने की कोशिश करता रहा है।
२०१० में समाज ने इस निर्णय का विरोध किया। तब राज्यपाल नें कहा कि यह गलती २०११ में नहीं दोहराई जायेगी। परन्तु २०११ में इसको और घटाकर ४५ दिन की कर दी। उस समय हिंदू समाज के विरोध करने पर एक उपसमिति के निर्माण का ढोंग रचकर हिंदू समाज को धोखा दिया गया। इस उपसमिति के अध्यक्ष को स्पष्ट रूप से कहा गया कि यदि अवधि बढाई गई तो अलगाववादी नाराज हो जायेंगे और २००८ दोहराया जायेगा। इसी दिशा  में तर्क गढे़ गये। कभी कहा गया कि पर्यावरण की समस्या आयेगी। जब यह तर्क भोथरा हो गया तो कहा गया कि इस बार ज्येष्ठ  पूर्णिमा जल्दी आ गई है और बर्फ साफ नहीं हो पायेगी। यह कुतर्क भी अलगाववादियों के अधूरे एजेंडे को पूरा करने के लिये ही दिया गया।
जब श्रीनगर-जम्मू हाईवे की बर्फ ७ दिन में साफ हो सकती है, रोहतांग मार्ग पर जमी १५-१६ फीट की बर्फ की दीवार ६ दिन में साफ हो सकती है, तो अमरनाथ के १३ कि.मी. मार्ग की बर्फ क्यों नहीं साफ हो सकती? राज्य का प्रशासन कह चुका था कि अगर बोर्ड कहे तो हम मार्ग साफ करा सकते हैं। फिर भी यदि बोर्ड यात्रा को कम करने पर अडा, तो इसका मतलब स्पष्ट है कि उनका इरादा यात्रा कराने का नहीं, धीरे- धीरे उसको छोटा करते हुए उसे समाप्त करने का है। २०१२ में अब उन्होंने इसे मात्र ३९ दिन का कर दिया है। बोर्ड का यह आदेश पूर्ण रूप से देश विरोधी, संविधान विरोधी, यात्रा विरोधी तो है ही; अपितु  न्यायपालिका की अवमानना भी है।
इस निर्णय को देश के शिवभक्तों ने अपने लिये चुनौती माना। विरोध करने जब विश्व हिंदू परिषद के कार्यकारी अध्यक्ष डा. प्रवीण तोगडिया वहां पहुंचे तो अलगावादियों नें उनके पुतले जलाये। इसके तुरंत बाद प्रवीण भाई पर झूठा केस दर्ज कर दिया गया जैसे मानों राज्यपाल इसी के इंतजार में बैठे थे। संभवतः यह सारा षडयंत्र अलगाववादियों को खुश करने के लिये ही केंद्र सरकार के इशारे पर रचा गया है। अब विरोधियों का मुंह बंद करने के लिये जगह-जगह कफर््यू लगाकर शिवभक्तों पर अत्याचार किये जा रहे हैं। उनके दुःख में शामिल होने के लिये जा रहे नेताओं को भी गिरफ्तार किया जा रहा है। ऐसा लग रहा है कि २००८ दोहराया जा रहा है।
अलगाववादी शक्तियां बाबा अमरनाथ के खिलाफ खड़ी हैं, तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल इनके साथ मिलकर षडयंत्र कर रहे हैं और समस्त देश की राष्ट्रीय शक्तियां बाबा के साथ खडी होकर इस चुनौती का जवाब देने के लिये तैयार हो रही हैं। शिवभक्तों ने तय कर लिया है कि यात्रा २ महीने की ही निकलेगी। यात्रा का मुहूर्त ज्येष्ठ पूर्णिमा (४ जून) का ही रहेगा और लाखों यात्री उस दिन यात्रा में शामिल होने के लिये पहुंचेंगे। इस बार भी यह चुनौती देश की राष्ट्रभक्त जनता को है। इसके बाद ही यह सिद्ध होगा कि अब देश में अलगाववादियों की चलेगी या देशभक्तों की। देश की जनता को यह चुनौती स्वीकार करनी चाहिये और बढ़चढ़कर इस आन्दोलन में भाग लेना चाहिये।   (लेखक विहिप के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं।)

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India has a long history of ignoring Pakistan-Occupied Kashmir. With China entering the fray, can the country afford to follow this policy of indifference? Utpal Kumar talks to two well-known experts from Gilgit-Baltistan. 
To anyone not knowing much about him, Senge Hasnan Sering would appear to be an easy-going person with a big smile on his face. The president of the Institute of Gilgit-Baltistan Studies in Washington, DC, he is upright, punctual and greets you with a warm namaskar. But underneath this gentle demeanour is a hurt Sering has been carrying for years. “India could have done more for us,” he says. Prod him a little, and he adds: “Constitutionally and legally, Pakistan-Occupied Kashmir and Gilgit-Baltistan are still being claimed by New Delhi. And this claim has been recognised by the international community. This is the reason why Islamabad hasn’t been able to take the unilateral decision to formally merge this region with Pakistan. The Indian Government should have used this legal sanctity to its advantage.”
At this point, Mumtaz Khan, director of the International Centre of Peace and Democracy in Toronto, steps in. “Yes, the people in the region have close ties with Pakistan. But do they have a choice? It’s India’s policy that forced them to look westward. They knew Delhi won’t be doing anything. If India doesn’t even talk about this region, then how can people of Gilgit-Baltistan say they would be part of this country? Pakistan, for wrong or right reasons, has always been there,” he says. The hurt is obvious. Ever since Pakistan wilily captured this part of Kashmir in 1947-48, the region hasn’t figured much on India’s political radar. Instead, Delhi seems to have made the sanctity of the LoC an article of faith, though Islamabad continues to breach it at the first given opportunity. Even the media hardly talks about it. Interestingly, while weather reports of PTV talk in detail about Srinagar and Gulmarg, the Indian media keeps a steady silence over Gilgit, Skardu and Muzaffarabad, except when it talks about Pakistan-sponsored terrorist camps being run in the region. Maybe we have taken Jawaharlal Nehru’s “not-a-blade-of-grass” comment too seriously.
This moronic status quo could have continued but for the ominous entry of the dragon. There are reports in Pakistani newspapers that Islamabad has agreed to lease Gilgit-Baltistan to Beijing for 50 years. This has alarmed Delhi, which now realises that the land where not a blade of grass grows is actually the region where most Asiatic or even non-Asiatic empires — including the British and the Soviet — played some sort of Great Game for centuries. With a new player in sight, eyeing not only the resource-rich Persian Gulf but also threatening the interests of India and the US, particularly the former, Delhi seems to be in a fix. It’s, however, on the Kashmir issue that the country appears to be more worried. With Pakistan allegedly ready to swap its role to take the backseat as China exerts itself as a major player in the Kashmir issue, India can’t afford to miss the Gilgit-Baltistan bus this time. At least that’s what Sering and Khan believe. Over to the two experts on Chinese strategic grandstanding, Indian ruinous restraint, Pakistani duplicitous expediency and the ongoing human rights violation in Pakistan-Occupied Kashmir.
What’s your take on the increased Chinese activities in Gilgit-Baltistan?
China has been involved with the region since the early 1950s and the 1960s. First, it occupied 5,180 sq km of Gilgit-Baltistan which Pakistan gifted it in the 1960s. And then in the 1970s, it started working on infrastructure, building roads through Gilgit-Baltistan into Pakistan’s Karakoram Highway. Since then, there have been trade activities and military movements between China and Pakistan through this region. There were also reports of Pakistani missiles being transported through this highway. So, it has been a strategic route used by Beijing for a long time. In the past 10 years, however, China has realised the need to exploit the resources of West Asia as well as enhance its military/strategic relationship with the Muslim world. And it’s Gilgit-Baltistan that can provide it a short, safe and quick access to Iran, Afghanistan and Arab countries. No wonder, the Chinese are now talking about spending $16-18 billion on a rail line between Pakistan and China through Gilgit-Baltistan. They have built more than 20 tunnels to quicken the time needed to transport humans as well as goods — both civilian and military — between Pakistan and China. It is expected that when this whole road and rail transportation is completed, it will take less than three days to cover the distance between Beijing and the Persian Gulf, whereas right now it takes about two-three weeks. It will allow Beijing to build a strong economic and military/strategic alliance with the Arab world. Also, China is working on increasing the influence of the Shanghai Cooperation Organisation (SCO) and is offering membership to other countries. Maybe one day it will be extended to Arab countries.
There are reports in Pakistani newspapers that Islamabad has agreed to lease Gilgit-Baltistan to Beijing for 50 years. Is it true? How is it going to impact the region?
Like many others we too have read these reports. Incidentally, it hasn’t been denied by any side, Government or non-Government, military or civilian. This is strange as they could have just denied the report, especially as it has come from a leading American think tank. Also, Pakistan’s military chief Ashfaq Parvez Kayani has recently said that the two countries are starting a strategic programme — the Pakistan-China Strategic Programme for Gilgit-Baltistan — in June this year. Eventually it will enable China to have more military presence in the region. China does understand that having control over Gilgit-Baltistan is important to safeguard its economic and military interests in east Turkistan and Tibet, besides having more access to the Persian Gulf and Afghanistan. And, of course, this will help tighten noose over India.
Has it something to do with growing rift between America and Pakistan?
Pakistan tries in its own way to play China against the US — and vice versa. But Beijing is pragmatic and believes in pursuing a long-term goal. There are reports that China eventually wants to transform the SCO into an Asian NATO. One also needs to understand that these are the issues of mutual interest for Iran, Pakistan and China. Iran is isolated and the way out of isolation is getting help from China. Beijing wants the Persian Gulf for its strategic and economic growth. As for Pakistan, it is playing the game to extract benefits from the US by using the China card and vice versa. So, Gilgit-Baltistan has today become the focal point of a new ‘Great Game’ being played in the region.
How are the people of POK reacting to the Chinese presence?
We should first understand the perspective of the people of the region, its history and the nature of Pakistan’s control and its use of this territory for terrorism against India. Before 2005, POK was a closed territory. During this time China wasn’t involved with it. But after 2007, Chinese role increased in the area, particularly after negotiations between India and Pakistan during the Musharraf era entered into a more serious phase. China was alarmed by these developments and didn’t want complete breakthrough on the issue. As a result, we witnessed a shift in the Chinese policy vis-à-vis Kashmir as it started issuing visa on a separate sheet of paper. Also, Beijing started calling POK an integral part of Pakistan. In 2007-08, China jumped onto a reconstruction bandwagon in Gilgit-Baltistan and signed almost 72 projects with Pakistan. Such reconstruction activities, however, are just a Chinese excuse to control the region. China does understand the importance of POK in politico-strategic terms. Now, as the crises have deepened in Pakistan, whether political, economic or strategic, China is alarmed. Tomorrow Pakistan might disintegrate, and China could find India in control of POK, thanks to its historical, constitutional and cultural claims. So, in order to prevent such eventualities, China has registered its presence. If Islamabad disintegrates, Beijing is there to question Delhi’s claims. There are two schools of opinion in POK: One is nationalist, and the other is pro-Pakistan. Of course, the latter will say what Islamabad will dictate, but the nationalists have a mind of their own. They have sent protest letters to China when it started giving stapled visas to those belonging to Jammu & Kashmir, saying it should do the same for POK. So, the nationalists are quite concerned with the increasing influence of China.
What role do you expect from India?
India has a strong legal case. It should, therefore, bridge the gap between Delhi and the people of POK. Also, it needs to understand that it can’t be ignored. Those who don’t want to be a part with India, they have to talk to India. Those who want to merge with India, they have to talk to India. And even those who want to be independent will have to talk to India. As for Pakistan, it only claims to provide a moral and diplomatic support to the region and its people. That’s what the UN resolution means when it calls Pakistan an outsider. So, this attitude that we have developed in the past 64 years that we will not talk to India or we will only talk through Pakistan won’t work. Pakistan is just a middleman. And it doesn’t want the issue to be resolved. But to blame people is not right. It’s India’s policy that forced them to look towards Pakistan. They knew that India won’t do anything. If Delhi doesn’t even talk about this region, then how can people of POK say we would be part of India? Even today many political activists are in jail, but they don’t expect India to stand up for them. This country has to perform its responsibilities — moral, legal, constitutional and even economic. It can give students access to its universities; it can admit patients to its hospitals. India can have trade with Gilgit-Baltistan.
Do you find any change in global perception regarding POK?
To be frank, in the past 10 years whatever changes we have seen at the international level, they are mainly because of China. Otherwise, nobody cared about us. Even India wasn’t bothered about the region. The fact is that from early times, this region has been strategically important. The valleys between the Karakoram-Hindukush mountains were closely contested by the empires of the Persian Gulf, West Asia, Central Asia, South Asia, China and even Russia. That’s what the British realised: They worked hard to keep the Russians out of it. Khunjerab Pass (in Gilgit), for instance, is today called the Khyber Pass of China, underlining the fact that it is as important for Beijing as Khyber Pass was for the British. In 2003-2004, for instance, when we talked to Congressmen or think tanks in the US, they would just ask us for a cup of tea and there would be no follow up. The same was the case with Indians. We met so many Indian researchers, professors, politicians, etc, but nothing concrete came out. Thankfully, the attitude has changed in the past five-six years.
What about human rights violations in the region?
Human rights violations are at different levels. At the political level, we don’t have any freedom of political activity, voice or expression. Local people aren’t even allowed to participate in elections. We are ruled by political masters in Islamabad. Intimidation is very much there. The media has been particularly under attack in the last two years. Situation hasn’t been so bad even during Musharraf’s time. It’s no better for political activists: Babajan Hunzai, Manzoor Parwana, Abdul Hamid Khan, among others — they all have been treated shabbily. In many cases, terrorism charges have also been filed against them. Then there are violations at the cultural level. The identities of the Gilgits, Baltis, Wakhis, Khowars, etc, have existed for thousands of years. They are proud of their culture, their land, their identity. Suddenly, the Wahaabi movement is threatening to uproot the indigenous culture. Also, there are violations at the economic level. Our natural resources, the decisions over how to exploit them, or how to generate revenue — all these are decided by Islamabad. All our means of production and revenue are controlled by central authorities. Our transit routes are exploited by China and Pakistan. Revenue from the Khunjerab Pass custom check-post goes to Islamabad. Nothing at all is shared with Gilgit-Baltistan.
You have worked for the revival of the local script. Has it made any change?
Our local scripts are fighting a losing battle against the Government-imposed Urdu. We experimented with Persian/Arabic languages, but it didn’t work. When I was in the ninth grade I got in touch with Tibetans who provided money for the project and that’s how we brought up signboards in our local script. If you want to grab attention, you must start with a signboard. That’s what we tried to do. Also, this is what would make Skardu Bazaar different from, say, Peshawar and Karachi. But since I (Sering) was connected with Tibetans, it became a huge issue. As I worked within the framework of pan-Tibetanism, it annoyed many. I started getting angry letters, saying culture was good but I must not forget that I was a Muslim first. One Prof Fateh Malik, then chairman of the National Language Board, came all the way to Skardu to register his protest, saying I belonged to the Muslim ummah and Urdu — and not my local script — was my present! Also, the fact that I worked with Tibetans annoyed the power that be in Pakistan as it not only challenged their two-nation theory but also could weaken their case in POK and Gilgit-Baltistan. So, I had to stop my work. And I realised that till the moment there is a political guarantee and a constitutional setup, we can’t save our identity, culture. First, we needed a political identity, a constitutional system to save our culture. So, the real issue — the issue that comes before culture, language — is our politico-administrative identity and our freedom from Pakistan.
How do people in POK see the rise of Imran Khan?
Imran Khan is one of the Taliban without a beard. He is very much the extension of the Pakistan Army. There’s a famous female activist in Pakistan who recently said that the women of that country would fear the day Imran Khan would come to power. Minorities fear the day he would come to power. The disputed areas fear the day he would come to power. Imran Khan’s emergence is a lesson for the West, which erroneously thinks that if someone drinks or has an open relationship with the opposite sex, he is a liberal. In Pakistan, if you want to find a real liberal, ask him five questions: About India, Kashmir, China, Taliban and America. The person on the extreme left and the right would have the same answers. So, there is no liberal community in Pakistan. Here there is no difference between a Bhutto and a Mullah Omar. They all work for the Army and Islam. They are all same. (Courtesy : The Pioneer)
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अमरनाथ यात्रा : हवाई किराए में भारी कमी     
गैर पंजीकृत श्रद्धालु नहीं कर पाएंगे दर्शन
श्रीनगर। श्री अमरनाथ यात्रा पर इस बार कोई भी गैर पंजीकृत श्रद्धालु नहीं जा पाएगा। पुलिस ने यह व्यवस्था पिछले साल यात्रा मार्ग पर गैर पंजीकृत श्रद्धालु की भीड़ के कारण हुई असुविधा और सुरक्षा को देखते हुए की है। श्री अमरनाथ यात्रा 25 जून से शुरू हो रही है। यात्रा के लिए सुरक्षा व्यवस्था की रूपरेखा तय करने के लिए विगत दिनों (9 अप्रैल) कश्मीर रेंज के आईजीपी एसएम सहाय ने वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के साथ बैठक की। इसमें आतंकियों की किसी भी चुनौती से निपटने के लिए यात्रा मार्ग को त्रि-स्तरीय सुरक्षा चक्र में रखने का फैसला किया गया। विभिन्न जगहों पर श्रद्धालुओं के लिए लगने वाले लंगरों और शिविरों में अवांछित तत्वों के प्रवेश को रोकने के लिए भी रणनीति तय की गई।
बैठक में पुलिस अधिकारियों ने कहा कि गैर पंजीकृत श्रद्धालुओं के कारण न सिर्फ यात्रा मार्ग और आधार शिविरों में दिक्कतें पैदा होती हैं बल्कि सुरक्षा का संकट भी खड़ा हो जाता है। इस पर आईजीपी ने संबंधित अधिकारियों को निर्देश दिए कि वे किसी भी सूरत में गैर पंजीकत यात्री को यात्रा मार्ग पर दाखिल होने की अनुमति न दें। ऐसे श्रद्धालुओं को सख्ती से रोकते हुए उन्हें वापस भेजा जाएगा। उन्होंने अधिकारियों को विभिन्न सुरक्षा एजेंसियों, लंगर संस्थाओं व प्रशासनिक विभागों के साथ पूरा समन्वय बनाने को भी कहा। आईजीपी ने बालतल और पहलगाम से पवित्र गुफा तक विभिन्न जगहों पर पुलिस के विशेष दस्ते तैयार करने और यात्रा मार्ग की रेकी के लिए दल भेजने का निर्देश दिया।
वहीं, श्रद्धालुओं के लिए हेलीकॉप्टर यात्रा सस्ती कर दी गयी है। इसकी जानकारी श्राइन बोर्ड के सीईओ नवीन चौधरी ने दी। उन्होंने बताया कि पिछले वर्ष बालतल-पंचतरनी से किराया 2425 रुपए था जो इस वर्ष 1445 रुपए होगा। इसी तरह पहलगाम-पंचतरनी से पिछले वर्ष 3495 रुपए किराया था जो इस वर्ष 2355 रुपए कर दिया गया है। बुकिंग की तिथि की घोषणा जल्द की जाएगी। अमरनाथ यात्रा के प्रबंधों को लेकर राज्यपाल एन.एन. वोहरा ने विगत दिनों सेना और पुलिस के अधिकारियों के साथ बैठकें कीं। इस दौरान सुरक्षा प्रबंधों की समीक्षा भी की गई।
श्राइन बिल को लेकर हिंदू हो रहे लामबंद
जम्मू। पांच वर्ष से अधर में लटके कश्मीरी हिंदू श्राइन बिल को लेकर सरकार के रवैये के खिलाफ कश्मीरी हिंदू फिर लामबंद हो गए हैं। संपत्ति पर बढ़ते अवैध कब्जों से चिंतित हिंदू समुदाय ने सड़क पर उतरने की तैयारी कर ली है। पंडित प्रेमनाथ भट्ट मेमोरियल ट्रस्ट के बैनर तले शुरू होने वाले संघर्ष के लिए बैठकों का दौर जारी है।
ट्रस्ट के चेयरमैन ए.एन. पंडिता के नेतृत्व में अन्य संगठन फिर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलने को तैयार हैं। विगत दिनों (11 अप्रैल) यहां बैठक के दौरान ट्रस्ट के नेताओं ने बजट सत्र के दौरान बिल को विधानसभा में न लाए जाने पर रोष जताया। ट्रस्ट के राष्ट्रीय प्रवक्ता हीरा लाल भट्ट ने हिंदू समुदाय को गुमराह करने के लिए सरकार को आड़े हाथों लिया। उन्होंने कहा कि हिंदू अपनी सांस्कृतिक विरासत को बचाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। ट्रस्ट तब तक अपना संघर्ष जारी रखेगा जब तक सरकार वादी में हिंदुओं की धार्मिक स्थलों व मंदिरों की संपत्ति को संरक्षित नहीं करती।

विशेष दर्जे में फंसी शिक्षा
सुरेंद्र सिंह, जम्मू। विशेष दर्जा प्राप्त राज्य जम्मू-कश्मीर के सरकारी और गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूलों में गरीब बच्चों के लिए 25 फीसद सीटें आरक्षित नहीं होंगी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद यहां के गरीब लोगों के चेहरों पर कोई खुशी नहीं है। लंबे समय से प्राइवेट स्कूलों सरकार के बीच चली रही तनातनी पर सुप्रीम कोर्ट ने बेशक यह आदेश जारी कर विराम लगा दिया हो, लेकिन राज्य के गरीबों का कोई खैरख्वाह नहीं बन पा रहा है।
भारतीय संसद ने जब शिक्षा का अधिकार (राइट टू एजुकेशन) एक्ट को हरी झंडी दिखाई थी तो उस समय भी जम्मू-कश्मीर राज्य को इससे बाहर रखा गया था। राज्य ने अपना राइट टू एजुकेशन लागू कर रखा है, लेकिन उसे सही ढंग से क्रियान्वित नहीं किया जा रहा। इस एक्ट के अनुसार, सभी बच्चों को सरकारी स्कूलों में शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त है। यही नहीं सभी बच्चों को नि:शुल्क पुस्तकें व वर्दी देने का प्रावधान भी है, लेकिन हकीकत कुछ और ही है। अभिभावक आज भी अपने बच्चों के लिए बाहर से ही वर्दी व पुस्तकें खरीदते हैं।
राज्य के शिक्षा निदेशक जी.ए. कुरैशी ने कहा कि केंद्र का राइट टू एजुकेशन एक्ट जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं होगा। हमारे राज्य में पहले से ही अपना राइट टू एजुकेशन एक्ट लागू है। अगर राज्य सरकार जरूरी समझेगी तो ही इसमें संशोधन होगा। सुप्रीम कोर्ट की ओर से जारी आदेशों में भी जम्मू-कश्मीर राज्य को इससे बाहर रखा गया है और फिलहाल इसे यहां पर लागू नहीं किया जा रहा है। (दैनिक जागरण)
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अफस्पा पर सेना अपने रुख पर कायम
 कांग्रेस का पूर्ण समर्थन नहीं मिलने से नेकां अलग-थलग
नई दिल्ली। जम्मू-कश्मीर के कुछ क्षेत्रों से सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा) की आंशिक वापसी पर सेना और उमर अब्दुल्ला सरकार के बीच मतभेद एक बार फिर सामने गए। विगत दिनों (16 अप्रैल) दिल्ली में आंतरिक सुरक्षा के मुद्दे पर बुलाई गई मुख्यमंत्रियों की बैठक में उमर ने सेना अर्द्धसैनिक बलों को विशेष अधिकार देने वाले कानून को क्रमिक तरीके से हटाने की मांग दोहराई।
जबकि सेना प्रमुख जनरल विजय कुमार सिंह ने पत्रकारों से बातचीत में साफ कहा कि सशस्त्र बलों को अपने दायित्वों के निर्वहन के लिए इस कानून की जरूरत है। हालांकि, गृह मंत्रालय ने अफस्पा पर तीन संशोधनों का प्रस्ताव दिया है जो सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति (सीसीएस) के समक्ष विचाराधीन है। श्रीनगर स्थित 15 कार्प्स के कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टिनेंट जनरल एसए हसनैन ने भी कहा कि अफस्पा पर हमारे रुख में किसी तरह का बदलाव नहीं आया है।
उमर ने कहा कि राज्य में जब आतंकवाद अपने चरम पर था, उस दौरान सेना और अर्द्धसैनिक बलों के लिए यह कानून बहुत उपयोगी साबित हुआ। मगर जो इलाके घुसपैठ और आतंकवाद की गतिविधियों से प्रभावित नहीं हैं, वहां से इसे हटाने की क्रमिक शुरुआत की जानी चाहिए। वहीं, विगत दिनों (10 अप्रैल) जम्मू के एक दिवसीय प्रवास के दौरान गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने कहा कि जम्मू-कश्मीर में अफस्पा में संशोधन को लेकर तीन प्रस्ताव आए हैं, जो सीसीएस के पास विचाराधीन हैं। फैसला होते ही इसे सार्वजनिक कर दिया जाएगा। चिदंबरम ने पत्रकारों से कहा कि अफस्पा के सभी पहलुओं पर गंभीरता से गौर किया जा रहा है। इसके अलावा जम्मू-कश्मीर को लेकर केंद्र के वार्ताकारों द्वारा सौंपी गई रिपोर्ट पर भी विचार-विमर्श किया जा रहा है।
अफस्पा हटाने की जोरदार पैरवी कर रहे उमर का कहना है कि राज्य के कठुआ, जम्मू, सांबा, श्रीनगर और बड़गाम क्षेत्रों को अफस्पा से मुक्त किया जाना चाहिए, क्योंकि यहां आतंकी वारदातों में उल्लेखनीय कमी आई है। उनका कहना है कि शहरी इलाकों से बंकर हटाने और सुरक्षाबलों में कटौती की प्रक्रिया में भी तेजी लायी जानी चाहिए। हालांकि अफस्पा हटाये जाने की मुहिम में राज्य कांग्रेस के नेताओं का पूर्ण सहयोग व समर्थन नहीं मिलने पर उमर और उनकी नेकां इस मुद्दे पर अलग-थलग पड़ती जा रही है। कांग्रेस राज्य में सत्तारूढ़ नेकां गठबंधन की प्रमुख सहयोगी है। वैसे कहा तो यह भी जा रहा है कि कांग्रेस के नेताओं में अफस्पा हटाने को लेकर आम सहमति नहीं है। कुछ कांग्रेस नेताओं का मानना है कि राज्य से अफस्पा हटाने के हालात नहीं हैं। ऐसा करने का फायदा देशविरोधी तत्वों को हो सकता है। यह मुद्दा चिदंबरम के साथ हुई प्रदेश कांग्रेस के नेताओं की बैठक के दौरान उठा।
कांग्रेस नेताओं का कहना था कि अफस्पा हटाने पर ये क्षेत्र देशविरोधी तत्वों की शरणस्थली बन सकते हैं। बैठक के दौरान कांग्रेस के कई नेताओं ने नेकां की ओर इशारा करते हुए कहा कि अफस्पा हटाने के मुद्दे पर राजनीति हो रही है। हालांकि, इस मसले पर कांग्रेस के कश्मीर केंद्रित कई नेता मौन रहे। जानकारी के मुताबिक, बैठक के दौरान अफस्पा का मुद्दा सबसे पहले जम्मू-पुंछ संसदीय क्षेत्र के सांसद मदन लाल शर्मा ने उठाया। उन्होंने कहा कि इसे हटाने से नुकसान हो सकता है। इसके बाद पुंछ के कुछ नेताओं ने भी इसे न हटाने की वकालत की।  
ध्यातव्य है कि अफस्पा के मुद्दे पर रक्षा मंत्रालय और गृह मंत्रालय के बीच भी सहमति नहीं है, इसलिए केंद्र सरकार भी कोई स्पष्ट राय कायम करने से अब तक बचती रही है। केंद्रीय वार्ताकारों की रिपोर्ट में अफस्पा की जम्मू-कश्मीर से वापसी की कथित सिफारिशों पर भी सरकार मौन है। वैसे संभावना है कि इस मुद्दे पर कोई फैसला सीसीएस बैठक के बाद ही हो सकेगा। (वितस्ता ब्यूरो)

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