Monday 5 March 2012

वर्ष : 1, अंक : 11, नई दिल्ली, मार्च (संयुक्तांक), कुल पृष्ठ 12


Page 1 & 2
पाकिस्तानी चंगुल से गिलगित-बल्तिस्तान को मुक्त कराए भारत
नई दिल्ली। सेंटर फॉर सिक्योरिटी एन्ड स्ट्रैटेजी के तत्वावधान में गत 22 व 23 फरवरी को नई दिल्ली में पाकिस्तान अधिगृहीत कश्मीर और जम्मू-कश्मीर उत्तरी सीमांत की वर्तमान स्थिति एवं भावी दिशा विषयक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया। सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए पूर्व विदेश मंत्री श्री यशवंत सिन्हा ने कहा कि "जम्मू-कश्मीर की समस्या भारत की सिलसिलेवार गलतियों का नतीजा है। जनवरी 1948 को भारत द्वारा इस विषय को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाना सबसे बड़ी गलती थी। पाकिस्तान भारत के प्रति हमेशा से आक्रामक रहा है। भारत-पाक वार्ता के दौरान पाकिस्तान का मुख्य मुद्दा जम्मू-कश्मीर ही रहता है। आज पाकिस्तान भारत के खिलाफ खुलकर बोल रहा है और हम चुप बैठे हैं। पाकिस्तान आज अवैध रूप से जम्मू-कश्मीर के एक बड़े हिस्से पर अपना अधिकार जमाए हुए है। वहीं उत्तरी क्षेत्र में भी पाकिस्तान वहां की काउंसिल के जरिए अप्रत्यक्ष रूप से शासन कर रहा है।"
श्री सिन्हा ने कहा, "पीओके में मानवाधिकारों का हनन किया जा रहा है और युवाओं में भी बेरोजगारी को लेकर रोष व्याप्त है। जम्मू-कश्मीर को पूर्ण रूप से प्राप्त करने के लिए आज एक देशव्यापी आंदोलन के जरिए लोगों को जागरूक करने की आवश्यकता है। भारत इस मुद्दे पर लम्बे समय से सभ्य तरीके से व्यवहार कर रहा है, लेकिन अब समय गया है कि पीओके सहित गिलगित-बल्तिस्तान को वापस पाने के लिए भारत हर संभव प्रयास करे।"
पूर्व केन्द्रीय मंत्री श्री सुरेश प्रभु ने कहा, "गिलगित-बल्तिस्तान में 15 हजार मेगावॉट जल विद्युत की क्षमता है और इसे बेचकर वहां की आर्थिक स्थिति में सुधार लाया जा सकता है। इस क्षेत्र में प्राकृतिक संसाधनों की काफी संभावनाएं हैं, लेकिन पाकिस्तान ने उन सभी को चीन को सौंप दिया है। चीन आज इन संसाधनों का प्रयोग अपने लिए कर रहा है। आज जम्मू-कश्मीर के उत्तरी क्षेत्र में स्वास्थ्य, शिक्षा रोजगार के लिए संभावनाएं नहीं हैं। भारत को भारत-चीन सीमा विवाद के मुद्दों में इस क्षेत्र को भी शामिल करना चाहिए।"
वाशिंगटन स्थित इंस्टीट्यूट फॉर गिलगित-बल्तिस्तान स्टडीज के निदेशक श्री सिंगे हसनैन सेरिंग ने कहा, उत्तरी क्षेत्रों में रहने वाले लोग पाकिस्तानी शासन से त्रस्त हो चुके हैं। वहां के लोगों पर पाकिस्तान द्वारा घोर अत्याचार किया जा रहा है। अभी हाल ही में वहां कई लोग बेरोजगारी, भोजन रहने की समस्या को लेकर सड़कों पर उतर आए तो पाकिस्तान ने उन पर लाठियां बरसाईं और कइयों को जेल में डाल दिया। वहां लोगों के लिए कोई स्वतंत्र प्राधिकरण नहीं है। लोगों पर प्रशासन कुछ खर्च भी नहीं कर रहा। मुर्गीपालन फार्म में स्कूल चल रहे हैं। कालेज को पुलिस चौकी में तब्दील कर दिया गया है। 14 से 18 घंटे तक बिजली की कटौती होती है। सरकारी कर्मचारियों को 6-7 महीनों से वेतन नहीं मिला है।  
उन्होंने कहा, इस क्षेत्र में यूरेनियम समेत अन्य खनिजों के भंडार हैं, लेकिन सरकार उसका उपयोग वहां के लोगों के आर्थिक हितों के लिए नहीं कर रही। वहां के निवासियों के खनन करने पर प्रतिबंध है। सरकार ने खनन का हक चीन को दे रखा है और इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि चीन द्वारा यूरेनियम का प्रयोग कितना विनाशकारी होगा। भारत को इस क्षेत्र में अपना दखल बढ़ाना चाहिए और अन्तरराष्ट्रीय समुदाय को भी चीन पर पीछे हटने के लिए दबाव बनाना चाहिए।"
कनाडा की संस्था इंटरनेशनल सेंटर फॉर पीस एंड डेमोक्रेसी के कार्यकारी निदेशक श्री मुमताज खान ने कहा, "आजाद कश्मीर को पाकिस्तान की सेना द्वारा नियंत्रित किया जा रहा है। 1974 के कानून के तहत कश्मीर विधानसभा बनी और उसमें सभी नेता पाकिस्तान द्वारा भेजे गए। पाकिस्तान की सेना आजाद कश्मीर का प्रयोग भारत के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियां चलाने के लिए कर रही है। सेना स्थानीय निवासियों पर कड़ी नजर रखती है। इस क्षेत्र में स्वास्थ्य, शिक्षा अन्य सभी क्षेत्रों पर पाकिस्तानी सेना का आधिपत्य है और इन सभी बुनियादी सुविधाओं की हालत जर्जर है। आज वहां के लोग अपनी स्वतंत्र पहचान चाहते हैं।
पंजाब पुलिस के पूर्व महानिदेशक श्री पी.सी. डोगरा ने कहा, "जम्मू-कश्मीर के उत्तरी क्षेत्रों में चीन की उपस्थिति भारत के लिए खतरे की घंटी है। गिलगित- बल्तिस्तान भारत के लिए रणनीतिक तौर पर बहुत महत्वपूर्ण हैं। आज वहां चीन ने कराकोरम राजमार्ग का निर्माण कर लिया है और वहां वह अपने हथियार जमा रहा है। चीन जम्मू-कश्मीर के उत्तरी क्षेत्रों में अपना प्रभुत्व स्थापित कर रहा है। न्यूयार्क टाइम्स के मुताबिक, वहां करीब 7 से 10 हजार तक चीनी सैनिक मौजूद हैं। चीन वहां सड़क निर्माण तो कर ही रहा है, इसके साथ ही उसने वहां 22 सुरंगें भी बनाई हैं, जहां से ईरान से चीन तक गैस पाइपलाइन बिछाई गई है। पाकिस्तानी सेना केवल गिलगित-बल्तिस्तान में मौजूद है, बल्कि वह पीओके में भी उपस्थित है।
सम्मेलन को जी. पार्थसारथी, प्रो. के.एन. पंडिता, सांसद एवं द पॉयनियर के सम्पादक चंदन मित्रा, कैप्टन आलोक बंसल, अजित डोवाल, राणा बनर्जी, विजय क्रांति और डॉ. नरेन्द्र सिंह ने भी सम्बोधित किया। 


अमरनाथ यात्रा अवधि में कटौती मंजूर नहीं
जम्मू/नई दिल्ली। विहिप, ऑल जम्मू होटल एंड लॉज एसोसिएशन और सर्वधर्म राष्ट्रीय एकता मंच सहित कई धार्मिक व सामाजिक संगठनों ने बाबा अमरनाथ यात्रा अवधि में कटौती का विरोध किया है। इन संगठनों का कहना है कि श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड द्वारा 25 जून से दो अगस्त तक यात्रा अवधि निर्धारित करने का फैसला स्वीकार नहीं है। लिहाजा बोर्ड इस फैसले पर पुनर्विचार करे।
इस मामले को लेकर विहिप ने विगत दिनों (28 फरवरी) देश के गृहमंत्री को ज्ञापन सौंपा। विहिप के दिल्ली प्रांत के अध्यक्ष स्वदेश पाल गुप्ता ने कहा,बाबा बर्फानी के दर्शनार्थियों की निरन्तर बढ़ रही संख्या को देखते हुए यात्रा अवधि में कटौती से यात्रियों को अनेक प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पडेग़ा। अत: यात्रा को कम से कम दो माह किया जाना चाहिए।
 वहीं, श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) राज कुमार गोयल ने विगत दिनों (29 फरवरी) कहा कि बाबा अमरनाथ यात्रा की अवधि रक्षाबंधन पर निर्भर है। बोर्ड ने हर पहलू को ध्यान में रखते हुए यात्रा की तिथि निर्धारित की है। उन्होंने कहा कि इस वर्ष दो अगस्त को रक्षाबंधन है और यात्रा की अवधि 39 दिन है। यात्रा उस समय शुरू की जा सकती है जब दोनों मार्ग सुचारू हों और जमा बर्फ को हटाया जा सके। बोर्ड ने फैसला किया कि 25 जून से पहले यात्रा शुरू करने की संभावनाओं पर विचार होगा। इस सिलसिले में जून के पहले सप्ताह में बर्फबारी का जायजा लिया जाएगा।
श्री गोयल ने बताया कि वर्ष 2011 में 13 अगस्त को रक्षाबंधन था, जिस कारण यात्रा 46 दिन की थी। वर्ष 2010 में यह त्योहार 24 अगस्त को था तो यात्रा 56 दिन की थी। उन्होंने कहा कि वर्ष 2013 में रक्षाबंधन का त्योहार 21 अगस्त को आएगा। इस वर्ष के मुकाबले अगले साल 19 दिन अधिक की यात्रा रहेगी। बोर्ड ने श्री श्री रविशंकर के नेतृत्व में उप-समिति का गठन किया था, जिसने अपनी रिपोर्ट दी। गोयल ने बताया कि बोर्ड ने कमेटी की सिफारिशों पर विचार विमर्श करने के बाद ही तिथि की घोषणा की।

Page 3
सम्पादकीय
समरनीति के बारे में दृष्टि दोष हमारा राष्ट्रीय रोग रहा है। घर के बाहर जुटते तूफानों का आभास हमें तब होता है तब तूफान हमें बुरी तरह झकझोर देता है। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित एक महत्त्वपूर्ण गोष्ठी में वरिष्ठ राजनयिक जी. पार्थसार्थी का कहना है कि हम ने दो ही समरनीति विशारद पैदा किए, प्राचीन भारत में कौटिल्य और हाल के इतिहास में महाराजा रणजीत सिंह। रणजीत सिंह को इस बात का एहसास था कि हमारी पश्चिमी सीमा के बाहर राजनैतिक और सांप्रदायिक स्थितियां हर समय अस्थिर रहतीं हैं और समय समय पर जब उन में उबाल आता है तो पश्चिमोत्तर भारत पर आक्रमण होता है। उन्हें यह समझने में देर नहीं लगी कि सीमाओं के बाहर आकार लेते हुए इस तूफान को अप्रभावी करने के लिए उस के भारत का रुख करने की प्रतीक्षा करने के बदले उस के स्रोत पर ही वार करना होगा। काबुल पर चढाई पंजाब के राजा की क्षेत्रीय भूख का परिणम नहीं था, अपने राज्य की सुरक्षा की आवश्यकता का सही आकलन था। लेकिन पश्चिमोत्तर और पूवोत्तर दिशाओं से होने वाले सभी अन्य खतरों के बारे में स्वतंत्र भारत की सरकारों के समरनैतिक अंधत्व का ही परिचय मिलता है। वह 1947 में उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत से  कश्मीर पर होने वाले कबाइली हमला हो, 1962 में पूवोंत्तर से चीनी आक्रमण हो या फिर हाल में कर्गिल का आक्रमण हो। वास्तव में तिब्बत पर चीनी अधिकार को स्वीकार करना स्वतंत्र भारत की सब से बडी राजनैतिक भूल थी जिसका निराकरण हम तब भी नहीं कर पाए जब चीन ने बाकायदा चीन में फौजी कार्रवाई करके दलाई लामा को पलायन करने पर मजबूर कर दिया। विस्तारवादी चीन और भारत के बीच एक मित्र देश एक सुरक्षा दीवार की तरह काम कर सकता था। लेकिन इस के विलीन होने के बाद चीन की सीमाएं भारत के साथ ही नहीं आई, अपितु हमारी अपनी समाएं विवादस्पद बन गईं। नेपाल और भारत के बीच अविश्वास की खाई भी इसी कारण पैदा हुई और पाकिस्तान और चीन की सामरिक धुरी भी इसी का परिणाम हैं।
लेकिन अब हमें एक और खतरे का सामना करने के लिए तैयार होना चाहिए। जम्मू कश्मीर के बीच ही नए तिब्बत का विकास किया जा रहा है, जो न केवल कश्मीर के एक बड़े भू-भाग को भारत से अलग कर सकता है अपितु जिससे पूरे भारत की प्रभुसत्ता भी खतरे में पड़ सकती है। एक अमेरिकी अनुसंधान संस्थान के इस दावे को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि पाकिस्तान और चीन के बीच एक समझौता होने जा रहा है जिस के तहत पास्तिान गिलगित और बल्तिस्तान के एक बडे क्षेत्र को चीन के हवाले करेगा। सामान्यतया पश्चिमी स्रोतों से छपे बहुत से समाचारों पर एकदम विश्वास करना मुश्किल होता है, क्योंकि उन का उद्देश्य अमेरिकी हितों को ही साधना होता है। लेकिन इस समाचार का मूल स्रोत अमेरिका नहीं, स्वयं बल्तिस्तान ही है। बांगे रोजनामा सहर ने इस समाचार को अपने विषेश संवाददाता के नाम से छापा कि पाकिस्तान चाहता है कि चीन कश्मीर में भारत के खिलाफ राजनैतिक और सैनिक सहयोग के अतिरिक्त ग्वादर में सैनिक बंदरगाह बनाने में मदद कर। लेकिन चीन इस बदले पाकिस्तान से मांग कर रहा है कि वह कश्मीर के गिलगित और बल्तिस्तान क्षेत्रों को पच्चास साल के पट्टेपर चीन के हवाले करे ताकि वहां पर्याप्त संख्या में चीनी सैनाऐं तैनात की जा सकें। साफ है चीन केवल अपनी सेना को कश्मीर में केवल कारोकरम राजमार्ग की सुरक्षा के लिए नहीं रखना चाहता है अपितु वह स्थाई तौर पर इस इलाके पर अपना शासन स्थापित करने के दूरगामी षड्यंत्र पर काम कर रहा है। चीन के इरादों का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि सियाचिन ग्लेशियर के पार शक्सगाम घाटी में में भी चीन और पाकिस्तान के बीच ऐसा ही एक समझौता हुआ है। हांलांकि समझौते की शर्तों में यह बताया गया था कि जब इस क्षेत्र का अंतिम फैसला होगा ,यानी जब कश्मीर पर भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद सुलझ जाएगा तो जो देश शक्सगाम का कानूनी उत्तराधिकारी होगा उसके साथ नया समझौता किया जाएगा। लेकिन कुछ साल बाद मूल समझौते में से यह शर्त भी हटा दी गई। स्पष्ट है कि चीन ने इस समझौते को सर्वकालिक मानलिया है। यह दावा सही नहीं है कि कारोकरम राजमार्ग की सुरक्षा के लिए उसे सेना रखना आवश्यक है। इस काम के लिए सेना तो एक दशक से शक्सगाम में तैनात है। शक्सगाम की ही तरह चीन गिलगित और बल्तिस्तान में भी स्थाई तौर पर पांव जमाना चाहता है। अगर यह योजना अमल में आ गई तो इस से कश्मीर के एक बडे इलाके में पाकिस्तान के अतिरिक्त चीन भी दावेदार बन जाएगा। और कश्मीर की धरती को विदेशी अधिकार से मुक्त कराना पहले से भी दुष्कर हो जाएगा। इसलिए समय रहते इस षड्यंत्र का परदाफाश होना आवश्यक है। भारत के विदेश और रक्षा मंत्रालयों को कारगर समरनीति पर तुरंत विचार करना होगा। खतरे को देखकर रेत में मुंह छिपाने की नीति देश के लिए घातक सिद्ध होगी।
Page 4
 कश्मीरी हिन्दुओं के पुनर्वास का पाखंड
प्रमोद भार्गव
नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री डॉ. फारूक अब्दुल्ला ने एक बार फिर कहा है कि पण्डितों के पुनर्वास के बिना कश्मीर अधूरा है। यदि वे सत्ता में होते तो पंडितों को कभी घाटी से पलायन नहीं करने देते। डा. अब्दुल्ला शायद इस भ्रम में हैं कि लोगों की याददाश्त कमजोर है। इसलिए उन्हें याद दिलाना जरूरी है कि जब 22 साल पहले उनके घर के सामने सितम्बर 1989 में भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष टीकालाल टपलू की हत्या हुई थी और अलगाववादी हड़ताल तथा उग्र प्रदर्शन से बाज नहीं आ रहे थे, तब  घाटी से अल्पसंख्यक हिन्दुओं के सामूहिक पलायन का सिलसिला शुरू हुआ था। तब जम्मू-कश्मीर राज्य में कांग्रेस तथा नेशनल कांफ्रेंस गठबंधन की सरकार थी और खुद डा. फारूक अब्दुल्ला मुख्यमंत्री थे। इस बेकाबू हालत को नियंत्रित करने में राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाने की बजाय 20 जनवरी 1990 को एकाएक डा. अब्दुल्ला कश्मीर को जलता छोड़ लंदन भाग खड़े हुए थे। अभी भी एक तरह से सत्ता उन्हीं के हाथ में है। राज्य में कांग्रेस-नेशनल कांफ्रेंस गठबंधन की सरकार है और उनके पुत्र उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री हैं। लेकिन हकीकत यह है कि कश्मीर के नेता पंडितों की बहाली का विलाप तो करते हैं, किंतु ऐसी कोई कारगर पहल नहीं करते जिससे पुनर्वास का सिलसिला शुरू हो।
1990 में शुरू हुए पाक प्रायोजित आतंकवाद के चलते घाटी से कश्मीर के मूल सांस्कृतिक चरित्र के प्रतीक कश्मीरी हिन्दुओं को बेदखल करने की सुनियोजित साजिश रची गई थी। इस्लामी कट्टरवादियों का मूल मकसद घाटी को हिन्दुओं से विहीन कर देना था। इस मंशापूर्ति में वे सफल भी रहे। देखते-देखते वादी से हिन्दुओं का पलायन शुरू हो गया और वे अपने ही पुश्तैनी राज्य में शरणार्थी बना दिए गए। ऐसा हैरान कर देने वाला उदाहरण अन्य किसी देश में नहीं है। पूरे जम्मू-कश्मीर में करीब 45 लाख कश्मीरी अल्पसंख्यक हैं, जिनमें से 7 लाख से भी ज्यादा विस्थापन का दंश झेल रहे हैं।
कश्मीर की महिला शासक कोटा रानी पर लिखे मदन मोहन शर्मा "शाही" के प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यास "कोटा रानी" पर गौर करें तो कश्मीर में शांति और सद्भाव का वातावरण था। प्राचीन काल में कश्मीर संस्कृत, सनातन धर्म और बौद्ध शिक्षा का उत्कृष्ट केंद्र था। "नीलमत पुराण" और कल्हण रचित "राजतरंगिणी" में कश्मीर के उद्भव के भी किस्से हैं। कश्यप ऋषि ने इस सुंदर वादी की खोज कर मानव बसाहटों का सिलसिला शुरू किया था। कश्यप पुत्र नील इस प्रांत के पहले राजा थे। कश्मीर में यहीं से अनुशासित शासन व्यवस्था की बुनियाद पड़ी। 14 वीं सदी तक यहां शैव और बौद्ध मतों ने प्रभाव बनाए रखा। इस समय तक कश्मीर को काशी, नालंदा और पाटलीपुत्र के बाद विद्या व ज्ञान का प्रमुख केंद्र माना जाता था।
सिंध पर सातवीं शताब्दी में अरबों ने हमला कर, उसे कब्जा लिया। सिंध के राजा दाहिर के पुत्र जयसिंह ने भागकर कश्मीर में शरण ली। तब यहां की शासक रानी कोटा थीं। कोटा रानी के आत्म-बलिदान के बाद पर्शिया से आए इस्लाम के प्रचारक शाह मीर ने कश्मीर का राजकाज संभाला। यहीं से जबरन मतांतरण करते हुए कश्मीर का इस्लामीकरण शुरू हुआ। जिस पर आज तक स्थायी विराम नहीं लगा है। विस्थापित पंडितों के घरों पर स्थानीय मुसलमानों का कब्जा है। इन्हें निष्कासित किए बिना हिन्दुओं की वापिसी मुश्किलहै।
हाल ही में नौकरी के बहाने तकरीबन 350 युवक व युवतियों की घाटी में वापिसी भी हुई है। यदि उमर अब्दुल्ला सरकार इनका पुश्तैनी घरों में पुनर्वास करने की मंशा जताती तो वाकई कश्मीर के अभिन्न अंग विस्थापित हिन्दुओं के लौटने की उम्मीद बढ़ जाती। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। दुर्भाग्य से उमर सरकार जब से कश्मीर में वजूद में आई है तब से वह ऐसी कोई राजनीतिक इच्छा-शक्ति जताती नहीं दिखी, जिससे विस्थापितों के पुनर्वास का मार्ग सरल होता। केंद्र सरकार द्वारा 25 अप्रैल 2008 को हिन्दुओं के पुनर्वास और रोजगार हेतु 1618.40 करोड़ रूपए मंजूर किए गये थे, किंतु राज्य सरकार ने इस राशि का कतई उपयोग नहीं किया। इस राशि को खर्च न किए जाने के सिलसिले में उमर अब्दुल्ला का बहाना है कि अमरनाथ यात्रा के लिए जो भूमि आंदोलन चला था, उस वजह से आवास और रोजगार के कार्यों को आगे नहीं बढ़ाया जा सका। खोखला वस्तुत: कश्मीर में कमोबेश शांति के बावजूद पुनर्वास के कोई ठोस उपाय सामने नहीं आए।
ऐसा भी नहीं है कि, डा. फारुक अब्दुल्ला को कश्मीर का मुख्यमंत्री बनने का अवसर न मिला हो, 1996 में डा. अब्दुल्ला मुख्यमंत्री थे। इस समय भी दिसंबर 1996 में उन्होंने इस बयान को दोहराया था कि पंडितों के बिना कश्मीर अधूरा है और आने वाले दो वर्षों में सभी का पुनर्वास कर दिया जाएगा। इसके बाद डा. अब्दुल्ला छह साल मुख्यमंत्री रहे लेकिन एक भी परिवार का पुनर्वास नहीं करा पाए। उलटे इस दौरान विस्थापन का सिलसिला जारी रहा। विस्थापित परिवारों की संख्या 27 हजार से बढ़कर 32 हजार हो गई। अब जब कश्मीर में उनके पुत्र मुख्यमंत्री हैं और वे कश्मीरी अल्पसंख्यकों के पुनर्वास की बयानबाजी कर रहे हैं, तब उमर अब्दुल्ला के तीन सालों के कार्यकाल में विस्थापित परिवारों की संख्या 32 हजार से बढ़कर 38 हजार से भी ज्यादा हो गई है। इस तथ्य की पुष्टि इस बात से होती है कि केन्द्र सरकार से विस्थापित परिवारों को जो राहत राशि मिलती है वह भी 65 करोड़ से बढ़ाकर 90 करोड़ कर दी गई है। जाहिर है कि डा. फारूक अब्दुल्ला का कश्मीरी हिन्दुओं का घाटी में वापसी का विलाप एक नाटकीय पाखण्ड के अलावा कुछ नहीं है। जबकि उमर सरकार पाकिस्तान चले गए, वहां प्रशिक्षण ले रहे आतंकवादियों के पुनर्वास के लिए बार-बार अपनी प्रतिबद्धता दिखा रही है, और उसके क्रियान्वयन में भी लगी है।
Page 5
मानसिकता का विरोध
केवल कृष्ण पनगोत्रा
विस्थापित कश्मीरी हिंदू समुदाय से संबंधित प्रसिद्ध कवि-लेखक और पनुन कश्मीर के संयोजक डॉ. अग्निशेखर ने अपनी पुस्तक जवाहर टनल के लिए कला, संस्कृति एवं भाषा अकादमी की ओर से वर्ष 2010 के लिए मिलने वाले सर्वश्रेष्ठ पुस्तक अवार्ड को लेने से इंकार कर दिया। इसे राज्य की वर्तमान और पूर्ववर्ती सरकारों के उस रवैये को लेकर नाराजगी की अलामत माना जा रहा है जिसके चलते विस्थापित हिंदू समुदाय को अपने ही देश में विस्थापन की कठिनाइयों को झेलना पड़ रहा है। सबसे अहम यह है कि उनके इस निर्णय से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक ऐसी पुरानी मानसिकता को करारी चोट मिली है जिसका सीधा संबंध मात्र यह समुदाय ही नहीं बल्कि समूचे राज्य में व्याप्त राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक बेचैनी से है।

यह बेचैनी अब छिपी नहीं है। अब यह बेचैनी मात्र महसूस ही नहीं बल्कि नंगी आंखों से देखी भी जा सकती है। उनका यह कदम इस बेचैनी की सही समझ का प्रतिनिधित्व करता है। मैंने जवाहर टनल पढ़ी नहीं है फिर भी अग्निशेखर की विचारधारा, हिंदू समुदाय के प्रति उनकी चिंताओं और राज्य के भारत से संबंधों पर समीचीन नजरिये से परिचित होने के कारण इतना अनुमान लगा सकता हूं कि इस पुस्तक का हृदय स्थल विस्थापन के घावों से रक्तरंजित जरूर होगा। राष्ट्रीय स्तर के कई हिंदी लेखकों ने डॉ. अग्निशेखर के निर्णय का समर्थन किया है। इस प्रकार का राष्ट्रीय समर्थन नि:संदेह उस मानसिकता का विरोध करता है जिसकी वजह से कश्मीर में भारत विरोध के बीज फूटे थे। यह विरोध किसी व्यक्ति विशेष, संस्थान या राजनीतिक पार्टी को निशाना नहीं बनाता अपितु यह उस मानसिकता का विरोध करता है जिसने सबसे पहले अल फतह जैसे देश विरोधी संगठन पैदा किए और कश्मीर में राष्ट्रवादी धारा को कुंद करने की कोशिश की।

ऐतिहासिक घटनाक्रम पर नजर डालें तो 1947 के रक्तपात और उसके बाद की राजनैतिक और सामाजिक परिस्थितियों ने राज्य में सांप्रदायिकता का बीज बोया। कश्मीर केंद्रित मानसिकता और धर्मांधता के चलते ही 1990 तक कश्मीरी हिंदुओं को घाटी से पलायन करना पड़ा। 1947 के बाद जम्मू शरणार्थियों की पनाहगाह तो बना ही, शरणार्थियों ने जम्मू संभाग के मूल निवासियों के साथ मिलकर सियासी और सामाजिक संघर्ष लड़ना भी सीखा। 1931 तक जम्मू शांत था मगर उसके बाद की परिस्थितियों ने जम्मू को संघर्ष का केंद्र बना दिया। देखा जाए तो डॉ. अग्निशेखर की साहित्य वेदना और अकादमी सम्मान ठुकराना भी उसी निरंतर संघर्ष की एक कड़ी है जो आज तक अनवरत किसी न किसी रूप में जारी है।

1947 तक जम्मू संभाग की जनता भी राज्य के लिए स्वायत्तता की हामी भरती थी मगर अब परिस्थितियां बदल गई हैं। अब कश्मीर केंद्रित मानसिकता वाले लोग ही ऐसी मांगों के हामी हैं जिन्हें आए दिन बड़ी राजनैतिक चतुरता से पेश किया जाता है। हिंदुओं के साथ जम्मू के अधिकतर मुस्लिम भी संपूर्णत: भारत के साथ जुड़ाव के हामी हैं। राज्य के तीनों खित्तों में सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक असमानता और जम्मू व लद्दाख से भेदभाव के चलते जम्मू, लद्दाख और पश्चिमी पाकिस्तान एवं गुलाम कश्मीर के शरणार्थियों के साथ हिंदू समुदाय ने मिलकर एक साझी विचारधारा को जन्म दिया है। यह विचारधारा अब स्थापित हो चुकी है और इस विचारधारा के मानने वालों का उद्देश्य कश्मीर केंद्रित मानसिकता से मुक्ति है।

इस साक्षी विचारधारा को सुदृढ़ता देने के लिए डॉ. अग्निशेखर ने एक नवीन प्रयोग किया है। उनका क्षोभ मात्र विस्थापित समुदाय की मांगों की पैरवी नहीं करता अपितु सैद्धांतिक रूप से शरणार्थियों की अनदेखी और राज्य के दो खित्तों, जम्मू और लद्दाख के साथ निरंतर भेदभाव की मानसिकता पर भी एक बौद्धिक प्रहार है। जिस गैर मुस्लिम जनता ने कभी जिन हुक्मरानों पर भरोसा किया था वह उस भरोसे को कायम रखने में असफल रहे हैं। भले ही शासक तबका जम्मू को अलग राज्य, लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश और पंडितों के लिए होमलैंड की मांगों को न माने मगर यह मांगें तार्किक जमीन पर खड़ी हैं। अपवादों को छोड़कर वादी ने हमेशा यह आभास करवाया है कि उच्की सच्ची और पूरी सहानुभूति भारत से नहीं बल्कि केंद्र से मनमाफिक धनराशि के लिए भारत से अधूरा जुड़ाव प्रदर्शित करना मात्र है।

1947 के बाद जब भी भारत और पाकिस्तान के बीच कोई मैच खेला गया तो वहां की अधिकतर मुस्लिम जनता ने पाकिस्तान का ही पक्ष लिया। यह कोई अनजानी खुराफातें नहीं हैं बल्कि एक सोचे समझे मनसूबे और खास मानसिकता की अलामत है। विशारत पीर की पुस्तक कर्फ्यू नाइटमें ऐसी ही बातों का उल्लेख है जो कश्मीर सूबा की भारत विरोधी मानसिकता दर्शाते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि विशारत पीर जैसे लोग अपनी पुस्तक के माध्यम से भारत विरोधी मानसिकता को प्रकट करने की कोशिश करते हैं जबकि अग्निशेखर अपनी पुस्तक पर मिलने वाले सम्मान को ठुकराकर उसी मानसिकता पर चोट करने का प्रयास कर रहे हैं जो भारत समर्थक हिंदुओं की विरोधी रही है।

अग्निशेखर के निर्णय का समर्थन करने वालों में क्षमा कौल का नाम ही खुलकर सामने आया है मगर यह उतना ही खिन्न करने वाला है कि क्षमा के अतिरिक्त शायद ही जम्मू के किसी साहित्यकार ने खुलकर उनकी मुखरता का समर्थन किया है। दर्दपुर क्षमा जी का प्रसिद्ध उपन्यास है जिसमें विस्थापन के कारणों की विषमता को उभारा गया है। जिन लोगों ने इस उपन्यास को पढ़ा है वे कभी भी डॉ. अग्निशेखर के निर्णय को अनुचित नहीं ठहरा सकते। अग्निशेखर एक ऐसे प्रतिभा के धनी हैं जिन्होंने अपनी विलक्षण बौद्धिक क्षमता का उपयोग न सिर्फ कश्मीरी हिंदू समुदाय बल्कि राज्य में राष्ट्र की सच्ची पैरवी और क्षेत्रीय भेदभाव के विरोध के लिए प्रत्येक पंथ और संप्रदाय के हर उस नागरिक के नाम कर दी जिसे भारत और भारतीयता से लगाव है।
(लेखक : जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं)

Page 6 & 7
गतांक से आगे...
घाटी केन्द्रित दृष्टिकोण : जम्मू के मुस्लिम क्षेत्र भी कठिनाई में
 दयासागर
वर्ष 1995 के मध्य से कश्मीरी नेतृत्व ने राजौरी, डोडा, ऊपरी ऊधमपुर और पुंछ जिलों के लिये कुछ अधिक ही प्यार जताना शुरु किया है। इसका एक ही कारण है कि इन जिलों में मुसलमान काफी अधिक संख्या में है। परंतु अब तक इन क्षेत्रों के लोग कश्मीरी नेताओं के वश में नहीं हुए है। राजौरी, पुंछ और डोडा की जनता आर्थिक और शैक्षिक तौर पर सबसे अधिक पिछड़ी हुई है। इन जिलों में सडकों और पर्यटन की स्थिति बदतरीन है। डोडा, राजौरी, पुंछ और ऊधमपुर जिलों में पर्यटन की इतनी संभावनाएं है कि गर्मी के दिनों में पंद्रह दिनों तक वहां आसानी से रहा जा सकता है। भद्रवाह को तो मिनी कश्मीर कहा जाता है। परंतु इन क्षेत्रों में पर्यटन का आधारभूत ढांचा तैयार करने के लिये भी कुछ नहीं किया जा रहा है। स्थानीय बागवानी भी पूर्ण रुप से उपेक्षित है। डोडा, किश्तवाड़ और पुंछ जिलों के सेब के बारे में कोई नहीं जानता।

तत्कालीन कृषि मंत्री .आर. जरगर ने जम्मू-कश्मीर विधान सभा में कहा था कि किश्तवाड़ का केसर इतनी उम्दा किस्म का है कि वह 400 रु. प्रति तोला 10.7 ग्राम) बिक सकता है जबकि कश्मीर का केसर केवल 250 रु. प्रति तोला बिकता है। परंतु केसर के मामले में तो कश्मीर ही कश्मीर की तोता रटंत लगी रहती है। जम्मू आने वाला शायद ही कोई पर्यटक ये जानता होगा कि किश्तवाड़ का केसर गुणवत्ता में अधिक है। इन पंक्तियों के लेखक ने 2005 में जम्मू के कृषि निदेशक से किश्तवाड़ में केसर के उत्पादन से संबद्ध आंकडे प्राप्त करने का प्रयास किया था। परंतु 2010 तक भी ये आंकडे आसानी से प्राप्त नहीं हुए। इससे पता चलता है कि कश्मीर के कुछ अलगाववादी नेताओं का जो प्यार पुंछ, राजौरी और डोडा जिलों की जनता के लिए उमड़ा है उसमें कितनी सच्चाई है। प्यार होता तो क्या वे यहां के लोगों के आर्थिक पिछड़ेपन को सहन कर पाते?

2006 में गुलाम नबी आजाद के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने वजीर आयोग की रिपोर्ट के आधार पर जिलों के पुनर्गठन का नया तमाशा किया। वजीर आयोग ने कश्मीर घाटी के लिये केवल एक जिले की सिफारिश की थी। परंतु सरकार ने चार जिलों (बांडीपुर, गांदरबल, शोपियां, कुलगाम) का आदेश दिया। परंतु जम्मू क्षेत्र के लिए भी केवल चार (किश्तवाड़, रियासी, बाहू/सांबा और रामबन) नए जिले दिए गए जबकि वजीर आयोग ने पहले ही तीन (किश्तवाड़, रियासी, बाहू/सांबा) की सिफारिश 22 बरस पहले की थी। एक तरफ से जम्मू को वजीर आयोग की सिफारिशों के मुकाबले 33 प्रतिशत अधिक लाभ मिला जबकि कश्मीर को 300 प्रतिशत लाभ मिला। कुल मिलाकर कश्मीर को जम्मू से नौ गुना अधिक लाभ प्राप्त हुआ। वजीर आयोग का कार्यकाल 12 नवम्बर 1981 से 3 जनवरी 1984 तक रहा। 3 बरसों तक विशलेषण करने के बाद इस आयोग ने रिपोर्ट प्रस्तुत की।

पूर्ववर्ती सरकारें 21 बरसों तक इस रिपोर्ट की सत्यता का आकलन कर पाईं लेकिन आजाद की सरकार ने मात्र आधे ही बरस में पूरे मामले का पुन: आकलन किया और अंतत: आयोग द्वारा कुल मिलाकर 4 नए जिलों की सिफारिशों के बदले 8 नए जिलों की रचना का आदेश दे डाला। कश्मीर घाटी के जिले फिर से जम्मू मंडल के जिलों के बराबर हो गये (प्रत्येक में दस जिले) तात्पर्य यह कि कश्मीर घाटी को इतना अधिक आर्थिक, प्रशासनिक और राजनीतिक लाभ देने के बावजूद भारत सरकार कश्मीर घाटी के लोगों का विशवास जीतने मे सफल नहीं हो पाई है और अभी भी यह हाल है कि कुछ लोग 1947 में राज्य के भारत में विलय को चुनौती दे रहें हैं।

जम्मू के कुछ लोग अब खुलेआम कहने लगे है कि जम्मू इसलिए पिछड़ा, निर्धन, अविकसित और अन्य समस्याओं से ग्रस्त है कि जम्मूवासियों ने कभी भी 1947 में हुए विलय को लेकर कोई प्रश्न नहीं उठाया। 1947 में राज्य की जनता से किए गए वादों से भारत सरकार मुकरती रही है लेकिन इसके बावजूद जम्मू के लोग पूरी दृढ़ता से भारत के साथ हैं।

पूरे जम्मू क्षेत्र के लिए राज्य विधानसभा में जितनी सीटें होनी चाहिए थीं उतनी नहीं दी गई है। यहां दिल्ली द्वारा समर्थित कश्मीर केन्द्रित नेताओं ने फिर से डोडा, किश्तवाड़, रामबन और ऊधमपुर जैसे जिलों का अहित किया है। डोडा जिले(2006 में किश्तवाड़, डोडा और रामबान में विभाजित) को अपने उपयुक्त हिस्से से 4-5 सीटें कम दी गई है। 1957 का जम्मू-कश्मीर जनप्रतिनिधित्व अधिनियम विधानसभा में सदस्यों के वितरण के लिए पाँच कारक प्रस्तावित करता है। भाग 4 और उपभाग 2 के अनुसार कारक हैं- जनसंख्या, भौगोलिक सघनता, भू-भाग की प्रकृति, संचार सुविधाओं के कारक निश्चित रूप से कश्मीर के जिलों के मुकाबले डोडा, पुंछ, राजौरी, कठुआ और ऊधमपुर के पक्ष मे अधिक हैं। चूँकि विधानसभा खंडों का अंतिम परिसीमन 1995 में हुआ था। जिसका आधार 1981 की जनगणना थी इसलिए उसी समय के आंकडों को ध्यान में रखना उचित होगा (यद्यपि जुलाई 2006 में ही 8 नए जले बना दिए गए थे) अधिनियम के अनुसार भौगोलिक सघनता, संचार व्यवस्था और भू-भाग की प्रकृति को उपयुक्त महत्व दिया जाना चाहिए। जिससे विधानसभा का सदस्य अपने मतदाताओं के अधिक निकट रह पाए। एक कारक के रूप में जनसंख्या को 25% से अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता। 1981 की जनगणना के अनुसार भूतपूर्व डोडा के 11691 वर्ग किमी. क्षेत्र में 425662 लोग रहते थे और विधानसभा की केवल 6 सीटें उन्हें दी गईं। जबकि अनंतनाग जिले के केवल 3984 वर्ग किमी. क्षेत्र में 656351 लोग रहते थे, पर उन्हें 10 सीटें दी गईं। पुलवामा के मात्र 1398 वर्ग किमी. क्षेत्र में रहने वाले 404078 लोगों के लिए 5 सीटें दी गईं। 1371 वर्ग किमी. क्षेत्रफल वाले बडगाम के 367267 निवासियों के लिए 5 सीटें दी गईं। श्रीनगर जिले का क्षेत्रफल 2226 वर्ग किमी. था और जनसंख्या 708328 लेकिन इसे 10 सीटें दी गईं। जम्मू क्षेत्र मे केवल 18% क्षेत्र में सड़कें बनी थीं, जबकि कश्मीर में 40% क्षेत्र में। डोडा और ऊधमपुर जैसे क्षेत्रों के लिए तो यह प्रतिशत 18 से भी कम था। जबकि पुलवामा, बडगाम औऱ अनंतनाग में अच्छी सडकें निश्चित रूप से 40% क्षेत्र पर बनी थीं।

जम्मू-कश्मीर जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1957 की संरचना भी अपने आप में अत्यंत विशिष्ट है। इस अधिनियम के भाग 4 के उपभाग के खंड 1 से लेकर 4 तक का अवलोकन करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है। अभी तक दूरदराज के क्षेत्रों को उनके निकट रहने वाला विधानसभा सदस्य नहीं दिया गया है। इन क्षत्रों मे संचार की कमी तो है ही भौगोलिक दृष्टि से भी इनकी सघनता काफी कम है। डोडा, राजौरी और पुंछ जिलों में ऐसे क्षेत्र बहुत हैं और यह क्षेत्र ही ऐसा है की रास्ते कठिन हैं इसलिए कोई विधायक नियमित अपने मतदाताओं के पास जाकर उनकी समस्याओं और आवश्यकतओं को नहीं सुन पाता। ऊपर से यह जिले मुस्लिम बहुल के भी है। अब केन्द्रित नेताओं के अन्याय का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है।

अब 2031 तक नया परिसीमन आयोग नहीं बनाया जा सकता जब तक कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा मे 29वें संविधान संशोधन द्वारा जम्मू-कश्मीर संविधान के भाग 47 पर  लगाए गए प्रतिबंध को निरस्त करने के लिए एक बिल प्रस्तुत नहीं किया जाता। जम्मू के जिलों की जनता को 1947 से जिस तरह से बलि का बकरा बनाया है उससे यह सोचना बिल्कुल गलत नहीं है कि जब तक कश्मीर नेतृत्व या भारत सरकार ने परिसीन आयोग को प्रभावित नहीं किया होगा तब तक यह संभव ही नहीं था कि आयोग जम्मू-कश्मीर जनप्रतिनिधि अधिनियम 1957 की आवश्यकताओं की अनदेखी करके परिसीमन करता है। इस प्रकार कश्मीरी नेताओं ने डोडा, राजौरी, किश्तवाड, रामबन, कठुआ, रियासी की जनता को देशनिकाला सा दे दिया है। क्योंकि 2031 से पूर्व तो उनके लिए कोई विकास तो संभव ही नहीं है। परिसीमन पूरी ईमानदारी से किया जाए तो जम्मू को 45 से 46 विधानसभा सदस्य मिलेंगे और कश्मीर को केवल 37 या 38 जबकि आज स्थिति इसके विपरीत है। और जम्मू क्षेत्र में जो सीटें बढेंगी वे डोडा, राजौरी, किश्तवाड़, रामबन, कठुआ व रियासी में अधिक होंगी।

जम्मू-कश्मीर संविधान के भाग 50 के अनुसार जम्मू क्षेत्र की विधान परिषद को 14 चयनित सदस्य दिए गए और कश्मीर क्षेत्र को केवल 12 सदस्य। जम्मू-कश्मीर जनप्रिनिधि अधिनियम 1957 के अंतर्गत बनाए गए पहले परिसीमन आयोग ने भी विधानसभा में सीटों के वितरण को निर्धारित करते हुए ईमानदारी से काम नहीं लिया। आखिर ऐसा किस आधार पर किया जा सकता है कि कश्मीर जिसकी विधान परिषद में 12 चयनित सीटें ही हों वह विधानसभा में 42 सीटों का हकदार हो और जम्मू विधान परिषध में जिसका 14 सीटें हो वह विधानसभा में उसकी मात्र 32 सीटें हों। इसलिए घाटी के नेता परिसीमन की बात करने से कतराते हैं और नुकसान जम्मू के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों को हुआ है।

अक्तूबर/नवम्बर 1947 में भी इन क्षेत्रों प्रति भारत सरकार का रवैया ऐसा ही था। महाराजा के दीवान/जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री मेहरचन्द महाजन ने 18 नवम्बर 1947 को भारत के रक्षामंत्री सरदार बलदेव सिंह को लिखा था कि परिस्थितियों पर उन्हे व्यक्तिगत रूप से ध्यान देना चाहिए। पश्चिमी कमान के जरनल करियप्पा जम्मू आए तो महाजन ने उनसे और मेजर जनरल कुलवन्त सिंह से व्यक्तिगत तौर पर यह बात कही उन्होंने सरदार बलदेव सिंह से कहा था कि सीमापार सियालकोट की तरफ बड़ी संख्या में पठान इकटठे हो रहे हैं। 18 नवम्बर 1947 को जम्मू की रक्षा के लिए सेना की एक बटालियन भी नहीं थी और जम्मू से कठुआ तक की सड़क सीमा से केवल तीन या चार किलोमीटर की दूरी पर थी। मीरपुर पुरी तरह से असुरक्षित था। सेना पहले ही उस तरफ चली जाती तो मीरपुर को बचाया जा सकता था। गिलगित पहले ही हाथ से निकल गया चुका था। लद्धाख को तब तक सुरक्षित नहीं किया जा सकता था। महाजन ने सूचना दी कि लद्धाख अत्यंत महत्वपूर्ण था। वहां की शीतकालीन राजधानी स्कर्दू में केवल दो प्लाटून सैना मौजूद थी। रोन्दू की तरफ से चित्राली और स्वाती स्कर्दू में घुसपैठ कर सकते थे। अत: वहां की सुरक्षा के लिए महाजन ने दो प्लाटून सेना और भेजने का अनुरोध किया। दिल्ली से लौटने पर मेहरचंद महाजन ने 30 नवंबर 1947 को पंडित नेहरु को पत्र लिखा कि दिल्ली से जम्मू पहुँचने पर उन्हें पता चला कि-    
1- भारतीय सेनाओं ने कोटली को छोड़ दिया है। 2- मीरपुर पहले ही छोड़ दिया गया था जिसे दुश्मन ने तबाह कर दिया। 3- भिम्बर से राजौरी तक की सीमा पर दुश्मन ने अधिकार कर लिया है। 4- दुश्मन अखनूर की ओर बढ़ रहा था। 5- पुंछ कस्बे को छोड़कर पुंछ का क्षेत्र, मीरपुर जिला, मुजफ्फराबाद और जम्मू जिले का एक भाग दुश्मनों के कब्जे में थे। 6- भारत के प्रधानमंत्री के आदेश से ही स्थिति को अपने पक्ष में किया जा सकता है।

परंतु फिर भी कई क्षेत्रों को बचाया न जा सका। जम्मू प्रांत के मीरपुर, पुंछ, भिम्बर और राजौरी के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों के पंजाबी भाषी लोग गरीब थे। 1947 में इन क्षेत्रों के कुछ लोग साथ लगने वाले पाकिस्तानी क्षेत्रों- रावलपिंडी, जेहलम और गुजरात के प्रभाव में आए। परंतु मुस्लिम मुखिया या जागीरदार राजपूत थे जो धर्मपरिवर्तन करके मुस्लिम बन गये थे। ये कुछ सीमा तक महाराजा के वफादार थे। मुजफ्फराबाद को भी कश्मीरी भाषी क्षेत्र नहीं कहा जा सकता था। यहां भी एक और कचोटने वाला प्रश्न उठता है- शेख अब्दुल्ला ने पंडित नेहरू पर दबाव क्यों नहीं डाला कि अन्य क्षेत्रों से पाकिस्तानी हमलावरों को भगा दिया जाए? 5 अप्रैल 2005 को ले.ज. (से.नि.) एस.के. सिन्हा ने श्रीनगर दूरदर्शन को दिए एक साक्षात्कार में कहा था कि वे भी उन कुछ लोगों में थे जो 14 नवम्बर 1947 को इस सड़क के बंद होने के गवाह थे। उस समय सरकारी आदेशों के कारण कोहाला और दोमेल पहुंचने का मौका उनके हाथ से निकल गया। उन्होंने यह भी कहा था कि 1947 में कश्मीर हमलावर खबरदार, हम कश्मीरी हैं तैयारका नारा लेकर कबाइली हमलावरों के विरुद्ध खड़ा हो गया था।

60 वर्षों से कश्मीर के लिए जम्मू-कश्मीर के अन्य इलाकों की उपेक्षा का प्रमाण देने वाली सैंकड़ों अन्य चीजें गिनाई जा सकती हैं। इसलिए जम्मू के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों के लिए कश्मीरी नेता प्यार का जो नाटक कर रहे हैं, हमें समझना चाहिए कि वह बस नाटक ही है। (समाप्त)  
(लेखक की पुस्तकजम्मू-कश्मीर : विलय का सच और सियातस का झूठसे साभार)


Page 8

India’s moral responsibility towards Gilgit-Baltistan

Jaibans Singh

After more than six decades of independence, there are a million plus citizens of India who are languishing under foreign occupation, being suppressed, humiliated and exploited by mercenary forces for economic gains. This statement may come across as ludicrous to all those who are unaware about the state of affairs in the Gilgit-Baltistan region of Jammu and Kashmir. This region was a part of the princely state of Jammu and Kashmir at the time when the erstwhile Maharaja of Jammu and Kashmir signed the instrument of accession. Due to some misplaced ideals of the then Indian leadership, the region was not liberated by the Indian forces during the Indo-Pakistan War of 1948. Intervention by the United Nations led to a ceasefire and a huge mass of land was forcibly occupied by Pakistan and renamed as Northern Areas (NA’s).

Ever since, this area has been forcibly ruled by Islamabad despite the fact that it is not constitutionally integrated with Pakistan and its people do not have representation in the National Legislature. Having received this bonanza without effort Pakistan set about misusing it as a tool to further its political, economic and strategic objectives; as time passed the covetous Punjabis of Pakistan realised the immense economic potential of the region and let loose massive exploitation after gaining control of all assets. Governments and political dispensations in Pakistan changed over time but the policy towards the NA’s remained unchanged.

In the last 64 years, no less than 11 political systems have been experimented upon these hapless people. Recently, the Government of Pakistan through the enactment of the Gilgit-Baltistan (Empowerment and Self Governance) Order 2009 of August, 29, 2011, designated the region as an integral province of Pakistan.  In accordance with this legislation, the Governor of NA’s will head a 12 member council with 50% members from the Assembly and the remaining 50% appointed by the Governor himself. This caveat by itself reduces the position of the Chief Minister to that of a dummy. Also the Legislative Assembly will have no control over defence and treasury. This devolution, which is the result of a protracted political movement of the people of this beleaguered region, clearly falls short of their justified aspirations and is being vigorously contested.

Even as the Pakistani political leadership and Army continues their mischievous machinations the plight of the people is going from bad to worse.  The region, which is supplying electricity to both Pakistan and China, has 14 to 16 hours outages on a regular basis because defective transformers cannot be replaced due to lack of funds. The area is rich in minerals, yet, the locals are banned from mining; the right has been given to neighbouring provinces and to the Chinese. More than three lakh ethnic educated people are jobless and yet the people are not getting adequate government employment; there is not a single local Judge in the entire Province. On the other hand, Pakistani government officials posted to the area draw double salary. The few local government employees do not get salaries for months on end.

Natural disaster like floods and earthquakes add to the misery of the people. Schools, hospitals and other infrastructure damaged due to natural calamities is not repaired for years. Dilapidated poultry farms are being used as schools. No compensation is paid to people who lose their homes and belongings in such calamities. No subsidy is given to tide over bad times. The people are raising their voice against this blatant oppression. Spontaneous mass uprising with thousands, sometimes lakhs of people taking to the streets is a common occurrence. Sadly, with a total population of about 1.4 million these poor impoverished people cannot stand against the combined might of the Pakistan and Chinese establishments. The Police and the Army do not hesitate from opening direct fire on demonstrators; there have been instances where entire villages have been detained; sedition charges are slapped against local leaders with impunity. 

Yet another matter of great concern has been raised by a report titled “Pakistan’s Deteriorating Situation, Strained Relations with America: Deliberation on Leasing Gilgit-Baltistan to China for 50 years”, published in a local Urdu newspaper of Gilgit-Baltistan, Roznama Bang-e-Sahar. It is being contended that Pakistan is poised to hand over the region to China on lease for fifty years due to certain strategic and economic considerations. The move has the complete support of the Pakistan Army. It goes without saying that such a development will spell disaster for the people of the region. Clearly the list of miseries of the people of NA’s is endless; they are at the mercy of exploitative forces and are facing a situation of institutionalised slavery.

Pakistan’s occupation of NA’s is illegal and forceful. Nevertheless, the question of political status can be dealt with separately. The most important and immediate requirement is to ensure that the people can lead a normal, dignified life. Pressure has to be built on Pakistan to cease its blatant exploitation of the region and also put a lid on China’s greedy ambitions. Pakistan has to be prevailed upon to restore political rights of the people, release all political prisoners, grant freedom of press and create local autonomous governing bodies. Restoration of people to people ties in the contiguous regions of Ladakh and Kargil and opening of trade and transit routes also needs to be pushed.

In 1971, India gave moral, material and military assistance to erstwhile East Pakistan against exploitation by West Pakistan and was responsible for the creation of a new nation -  Bangladesh. Against the backdrop of such moral standards it is surprising that the nation is not reacting to the sad plight of its own people. The need of the hour is to set aside diplomatic compulsions for the sake of humanity.

Page 9
मीरवाइज से नहीं मिले अमेरिका और ब्रिटेन के उच्चायुक्त
जम्मू। कश्मीर मुद्दे को दस साल के लिए ठंडे बस्ते में डालने वाली ट्रैक-2 डिप्लोमेसी पर वैश्विक समर्थन जुटाने के निमित्त नई दिल्ली गए हुर्रियत नेता मीरवाइज मौलवी उमर फारूक अमेरिका और ब्रिटेन के उच्चायुक्तों के रवैये से निराश हो अपना मिशन अधूरा छोड़ श्रीनगर लौट आए।
चर्चा है कि दोनों देशों के उच्चायुक्तों ने अंतिम समय में मीरवाइज और शब्बीर शाह से मिलने से इन्कार कर दिया। कारण, 23 फरवरी को मीरवाइज व उनके सहयोगी नई दिल्ली स्थित ईरान के उच्चायुक्त डॉ. एस. मेहंदी नबी से मिले थे। उन्होंने कश्मीर मुद्दे पर ईरान से सहयोग का आग्रह किया था। हालांकि, शब्बीर शाह और आगा सैयद हसन बडगामी समेत अन्य वरिष्ठ हुर्रियत नेता राजधानी दिल्ली में ही हैं और अमेरिकी व ब्रिटिश अधिकारियों के साथ दोबारा संवाद बनाने के प्रयास में जुटे हैं।
मीरवाइज की अगुवाई वाला हुर्रियत कांफ्रेंस का धड़ा कश्मीर मुद्दे को दस साल तक स्थगित करने पर सहमति बनाने की प्रकिया में हैं। इसकी जमीन तैयार करने के लिए अन्य हुर्रियत नेताओं के साथ मीरवाइज कई दिनों से नई दिल्ली में थे। ये सभी विभिन्न मुल्कों के उच्चायुक्तों से बातचीत कर सहमति बनाने के प्रयास में हैं। कुछ केंद्रीय अधिकारियों के साथ सफल बैठकों के बाद मीरवाइज और उनके सहयोगियों की पाकिस्तान के उच्चायुक्त से मुलाकात उम्मीद के अनुरूप सफल रही। अंतिम बैठक अमेरिका और ब्रिटेन के राजनयिकों के साथ होनी थी। यह बैठक काफी अहम मानी जा रही थी, लेकिन अंतिम समय में दोनों देशों के उच्चायुक्तों ने मिलने से इन्कार कर दिया।  
चर्चा है कि भारत-पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे पर ट्रैक-2 डिप्लोमेसी के लिए प्रयासरत हैं। दोनों मुल्क हुर्रियत कांफ्रेंस के उदारवादी खेमे की सहमति से कश्मीर मुद्दे को फिलहाल अगले दस साल के लिए फ्रीज करने पर लगभग सहमत हो गए हैं। अलबत्ता, इन दस सालों में कश्मीर में सियासी मामलों के बजाय आर्थिक मुद्दों पर ही ज्यादा जोर दिया जाएगा। फिलहाल कश्मीर मुद्दे पर तय किया गया फार्मूला विवाद का हल नहीं है, लेकिन यह इसे एक निश्चित समयावधि के लिए फ्रीज करने और तब तक कश्मीर में नई दिल्ली द्वारा आर्थिक, राजनैतिक और विकास के मोर्चे पर कुछ ऐसे कदमों को उठाए जाने की सिफारिश करता है जो आम कश्मीरियों की दिल्ली से दूरी को कम करे। मुद्दे को फ्रीज करने के बाद कश्मीर में आर्थिक गतिविधियों को प्रोत्साहित करने के लिए रोजगार व औद्योगिक क्षेत्र में विशेष पैकेज जारी किया जाएगा।   
चर्चा यह भी है कि फ्रीजिंग समयावधि के दौरान जारी आर्थिक व विकासात्मक योजनाओं के दौरान कुछ ऐसे कदम उठाए जाएंगे, जो अंतत: कश्मीर मुद्दे के अंतिम व सर्वमान्य हल में सहायक हों। बेशक नई दिल्ली अभी इस फार्मूले को लेकर ज्यादा मुखर नहीं है, लेकिन पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने गत सप्ताह सार्वजनिक तौर पर बयान जारी कर स्पष्ट कर दिया था कि दोनों मुल्क किसी फॉर्मूले पर सहमत होने की स्थिति में हैं। उन्होंने कहा था कि कश्मीर मुद्दे पर भारत-पाक के बीच जारी ट्रैक-2 डिप्लोमेसी सही दिशा में है। (वितस्ता ब्यूरो)
चुनाव लड़ने की तैयारी में हुर्रियत
श्रीनगर। कश्मीर मुद्दे को फिलहाल दस साल के लिए फ्रीज करने की भारत-पाकिस्तान की कवायद के बीच ऑल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस के उदारवादी खेमे की कश्मीर नीति में भी बदलाव नजर आने लगा है। चर्चा है कि हुर्रियत का उदारवादी खेमा और कुछ अन्य अलगाववादी संगठन अगले दो वर्षों में कश्मीर के चुनावी मैदान में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में उतर सकते हैं।
जानकारी के मुताबिक, मीरवाइज मौलवी उमर फारूक की अगुवाई वाला हुर्रियत कांफ्रेंस खेमा अब वर्ष 2002 और 2008 की अपनी गलतियों को दोहराने के मूड में नहीं है। बीते चार वर्षों से हुर्रियत के संविधान और संगठनात्मक ढांचे में बदलाव के जो प्रयास किए जा रहे हैं, वह कश्मीर की चुनावी सियासत को ध्यान में रखते हुए ही किए जा रहे हैं।  
मीरवाइज का खेमा चुनावी सियासत में उतरने से पहले कश्मीर मुद्दे पर केंद्रीय पैकेज पर नजर गड़ाए हुए है। वह यह देख रहे हैं कि भारत-पाकिस्तान के बीच कश्मीर मुद्दे को लेकर विभिन्न फार्मूलों पर जारी काम किस अंजाम तक पहुंचता है। लोगों में पैठ बनी रहे, इसलिए अब वह अपने मंचों पर कश्मीर की आजादी और कश्मीर समस्या के हल के बजाय कश्मीर की बेरोजगारी, बिजली-पानी के संकट जैसे मुद्दे उठाते हुए लोगों को अपने साथ जोड़ने में जुटे हुए हैं। बीते कुछ महीनों के दौरान मीरवाइज के इस संदर्भ में जारी बयान इनका संकेत देते हैं।
हुर्रियत के चुनावी मैदान में उतरने की अटकलों पर कश्मीर मामलों के विशेषज्ञ और पत्रकार बशीर मंजर ने कहा कि यह कोई अप्रत्याशित नहीं है। इसके संकेत तो कई बार मिले हैं और जबसे पीपुल्स कांफ्रेंस के सज्जाद गनी लोन ने चुनाव लड़ा है, हुर्रियत के उदारवादी खेमे की सोच भी बदली है। सुनने में तो यह भी आया है कि सज्जाद गनी लोन और मीरवाइज मौलवी उमर फारूक के बीच बीते कुछ महीनों के दौरान कश्मीर चुनावी सियासत को लेकर कई बैठक हुई हैं। सज्जाद और उनके भाई बिलाल गनी लोन के बीच जो राजनीतिक व निजी मतभेद थे, वह भी मीरवाइज के प्रयासों से दूर हुए हैं।
जम्मू की जमीन सस्ती, कश्मीर की महंगी क्यों?
जम्मू। जम्मू-सरकार की नजर में जम्मू की जमीन सस्ती और कश्मीर की जमीन महंगी क्यों है? यह मुद्दा पैंथर्स पार्टी के विधायक बलवंत सिंह मनकोटिया ने विगत दिनों विधानसभा में उठाया। मनकोटिया ने जम्मू संभाग के जिलों में भूमि का सरकारी रेट कम तय किए जाने के मुद्दे पर सरकार पर भेदभाव का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि जम्मू जिले में जमीन का सरकारी रेट 25 लाख रुपये प्रति कनाल व श्रीनगर जिले में 66 लाख रुपये तय करना सीधे-सीधे क्षेत्रीय भेदभाव को दर्शाता है।