Thursday 3 November 2011

वर्ष 1, अंक 6, नई दिल्ली, नवम्बर-प्रथम 2011, कुल पृष्ठ 12


विशेष
उमर अब्दुल्ला का अफस्पा कार्ड

केंद्र को ब्लैकमेल करने का प्रयास

प्रो. हरिओम
इक्कीस अक्टूबर को मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने घोषणा की कि उनकी सरकार कुछ क्षेत्रों से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) हटा लेगी। अफस्पा जैसे कानून रद करने का समय आ गया है, जिसे राज्य में आतंकवाद का दौर शुरू होने के बाद कुछ क्षेत्रों में लागू किया गया था। श्रीनगर में पुलिस स्मरणोत्सव दिवस समारोह में उन्होंने यह बात कही थी। उमर ने ट्विटर पर भी कहा था कि कुछ लोगों को इस पर आपत्ति हो सकती है, लेकिन यह सही नहीं है। मेरा मानना है कि यह महत्वपूर्ण शुरुआत होगी। हालांकि उन्होंने उन क्षेत्रों का नाम नहीं बताया, जहां से इस कानून को हटाया जाएगा।

उनका कहना था कि मैं इस समय उन क्षेत्रों का नाम बताने की स्थिति में नहीं हूं। सेना, अ‌र्द्धसैनिक बलों, जम्मूवासियों और मीडिया में जिम्मेदार लोगों ने उमर के इरादों पर सवाल उठाते हुए उनके प्रस्ताव पर विचार व्यक्त किया है। यदि इसे स्वीकार किया गया तो इसका परिणाम राज्य में आतंकवाद संबंधी हिंसात्मक गतिविधियों में बढ़ोतरी होगी। उनका कहना सही है। उमर ने यह बयान केंद्र सरकार के विवादास्पद जवाबों के बाद दिया है। यह सचमुच गंभीर मसला है। उदाहरण स्वरूप, रक्षा मंत्रालय ने कुछ क्षेत्रों से अफस्पा हटाने का पुरजोर विरोध करने की तरफ इशारा किया है। हालांकि केंद्रीय गृह मंत्रालय ने उमर के रवैये का विरोध नहीं किया है। जहां तक अफस्पा हटाने पर सेना और रक्षा मंत्रालय की बात है तो उनका रवैया समान है।

दूसरी तरफ केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने 25 अक्टूबर को संवाददाताओं से बातचीत करते हुए कहा कि केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम और रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी को इस मुद्दे पर सहमति सहमति बनानी चाहिए और अफस्पा को हटाने के बारे में कोई भी निर्णय लेने से पहले सेना को इस पर मंथन करना चाहिए। इन विवादास्पद जवाबों से एक बात फिर सामने आई है कि यूपीए सरकार के मंत्री विभिन्न दिशाओं में खींचे चले जा रहे हैं और प्रधानमंत्री का इन पर कोई नियंत्रण नहीं है। सचमुच यह अराजकता की स्थिति है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि नेशनल कांफ्रेंस इस स्थिति का लाभ उठाते हुए कश्मीर घाटी में देश की कठिनाइयां बढ़ाने का काम कर रही है।

मंगलवार को कश्मीर से मिली एक रिपोर्ट के मुताबिक उमर गठबंधन सरकार के घटक दलों को विश्वास में लेने के लिए 28 अक्टूबर को कैबिनेट की बैठक बुलानी थी। बैठक में उमर अशांत क्षेत्र अधिनियम (डीएए) को निरस्त करने की घोषणा करने से पहले सभी घटक दलों को विश्वास में लेना चाहते थे ताकि ये दल अफस्पा को रद्द करने का मार्ग प्रशस्त करें। 21 और 25 अक्टूबर को कश्मीर से मिली रिपोर्ट पर उमर ने जो कुछ कहा, उसके कई मायने निकलते हैं। एक, उमर ने बिना सोचे-समझे यह घोषणा कर दी। कोई भी उनकी अयोग्यता की और कैसे व्याख्या कर सकता है कि जिन क्षेत्रों से डीएए और अफस्पा को हटाना है, उसके उन्होंने नाम तक नहीं बताए। पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता और पूर्व उप-मुख्यमंत्री मुजफ्फर हुसैन बेग ने कांग्रेस में उन लोगों को मजा चखाने के लिए उमर पर केंद्र सरकार को ब्लैकमेलिंग करने का आरोप लगाया है, जिनकी इच्छा है कि उमर तीन साल का कार्यकाल पूरा करने के बाद मुख्यमंत्री पद पर बने रहें।

मुजफ्फर हुसैन का कहना है कि अपनी कुर्सी बचाने के लिए उमर अफस्पा के मुद्दे पर केंद्र को ब्लैकमेल करने का प्रयास कर रहे हैं। कांग्रेस में एक मजबूत लॉबी नियमित अंतराल पर मुख्यमंत्री को बदलने की पक्षधर है। यह ग्रुप जनवरी 2012 के बाद मुख्यमंत्री के पद पर किसी अन्य व्यक्ति को बैठाने के पक्ष में है। इसलिए उमर अफस्पा कार्ड खेल रहे हैं। यदि उमर को मुख्यमंत्री पद से हटा दिया जाता है तो वह लोगों को गुमराह कर कहेंगे कि उन्हें अफस्पा जैसे क्रूर कानून को हटाने की वकालत करने के लिए दंडित किया गया है। दूसरा, उन्होंने कैबिनेट में अफस्पा के मुद्दे पर विचार-विमर्श किए बिना यह घोषणा कर दी, जबकि उनकी कैबिनेट में कई कांग्रेसी मंत्री भी शामिल हैं। इस प्रकार उन्होंने न सिर्फ कांग्रेसी मंत्रियों से छल किया बल्कि समन्वय समिति में इस संवेदनशील मुद्दे पर विचार करना तक अवांछनीय समझा।

उल्लेखनीय है कि जम्मू-कश्मीर प्रदेश कांग्रेस कमेटी (जेकेपीसीसी) के अध्यक्ष सैफुद्दीन सोज समन्वय समिति की अध्यक्षता करते हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि जेकेपीसीसी ने उमर की कार्यशैली पर दयापूर्वक विचार नहीं किया और यह कहते हुए गंभीर चिंता जताई कि सरकार का यह कर्तव्य बनता है कि ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर बयान जारी करने से पहले सेना को विश्वास में लेना जरूरी होता है, क्योंकि राज्य के भीतर और बाहर इस मुद्दे पर विवाद छिड़ गया है। इस मुद्दे पर रक्षा मंत्री के साथ सलाह मशविरा होना चाहिए। सशस्त्र बलों को कुछ आरक्षण मिला हुआ है। अफस्पा को हटाने से पहले इस विषय पर विचार किया जा सकता है। राज्य में हालात सामान्य होने पर यह कानून निरस्त हो ही जाएगा। यदि उमर आश्वस्त हैं कि आतंकवाद में कमी आई है तो अफस्पा को हटाया जा सकता है, लेकिन रक्षा मंत्री और सुरक्षा बलों से सलाह मशविरा लिए बिना नहीं। सोज ने मंगलवार को ये बातें कहीं।

जेकेपीसीसी प्रमुख की शिकायत थी कि उमर ने यह घोषणा अपने घटक दलों से सलाह मशविरा लिए बिना की है। सोज के वक्तव्य से साबित होता है कि नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस के बीच मधुर संबंध नहीं है और उमर जेकेपीसीसी को नजरअंदाज कर रहे हैं। कांग्रेस इस दयनीय और अपमानजनक स्थिति के लिए खुद जिम्मेदार है। अगर इसने समय-समय पर अपने अधिकारों पर ध्यान दिया होता और उमर से कांग्रेस के साथ उचित व्यवहार करने की बात कही होती तो आज स्थिति इतनी नहीं बिगड़ती और उमर को ऐसे बयान देने से पहले सौ बार सोचना पड़ता। यह कांग्रेस पार्टी ही है, जिसने उमर और उनकी नेशनल कांफ्रेंस पार्टी को गठबंधन धर्म के सिद्धांतों का पालन न करने की अनुमति दी थी। अब समय आ गया है, कांग्रेस अपने अधिकारों के बारे में सोचे और इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि नेकां समस्या पैदा करने वाली पार्टी बन चुकी है, एक रचनात्मक भूमिका निभाए।

विशेष/पेज-2
कश्मीर पर कोई समझौता स्वीकार नहीं : स्वामी
जम्मू। केंद्र में मजबूत इरादों वाली सरकार की जरूरत है। ऐसी सरकार निकट भविष्य में बनी तो जम्मू-कश्मीर समेत देश की अन्य सभी समस्याओं का हमेशा के लिए निपटारा हो जायेगा।यह उद्गार पूर्व विधि मंत्री एवं जनता पार्टी अध्यक्ष डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने व्यक्त किये। डॉ. स्वामी विगत दिनों जम्मू-कश्मीर पीपुल्स फोरम के तत्वावधान में विलय दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में हिस्सा लेने आये थे।
उन्होंने कहा, जम्मू-कश्मीर भारत का अटूट हिस्सा है। इंडियन इंडीपेंडस एक्ट के तहत- अगर किसी रियासत का राजा अपने राज्य को भारत में विलय करता है तो उस पर फिर पुनर्विचार नहीं होगा। जम्मू-कश्मीर के मसले में भी यहां के महाराजा हरि सिंह ने भारत में विलय-पत्र पर 26 अक्तूबर 1947 को हस्ताक्षर किये हुए हैं। एक्ट के तहत इस पर पुनर्विचार का कोई सवाल ही नहीं उठता।

डॉ. स्वामी ने कहा कि उस समय के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का संयुक्त राष्ट्र में बिना अपनी कैबिनेट की मंजूरी के इस मसले को ले जाना अवैध था और अगर केंद्र में मजबूत इरादों वाली सरकार आई तो संयुक्त राष्ट्र से जवाहर लाल नेहरू की ओर भेजा गया प्रस्ताव वापस ले सकती है।

पूर्व विधि मंत्री स्वामी ने कहा कि जम्मू-कश्मीर के मसले पर कोई समझौता देशवासियों को स्वीकार नहीं है। अनुच्छेद 370 को अस्थायी तौर पर लागू किया गया था। इसमें प्रावधान है कि राष्ट्रपति अधिसूचना जारी कर अनुच्छेद 370 को खत्म कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान से कोई बातचीत नहीं की जानी चाहिए। अलगाववादियों ने पांच लाख कश्मीरी पंडितों को विस्थापित कर दिया। इसके जवाब में जरूरत थी कि दस लाख भूतपूर्व सैनिक कश्मीर भेजे जाते लेकिन केंद्र सरकार केवल तमाशा देखती रही।
अफस्पा पर चर्चा करते हुए डॉ. स्वामी ने कहा कि मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को आ‌र्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट (एफस्पा) को हटाने के मामले में कुछ भी बोलने का हक नहीं है। उमर ऐसी कोई कोशिश करते हैं तो उन्हें बर्खास्त करके राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर देना चाहिए। इस अवसर पर पैंथर्स पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष बलवंत सिंह मनकोटिया ने कहा कि नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी पूरी तरह से राष्ट्र विरोधी भाषा बोल रही हैं। जरूरत है कि राज्य में विलय दिवस को धूमधाम से मनाकर ऐसी ताकतों को मुंह तोड़ जवाब दिया जाये। जम्मू-कश्मीर पीपुल्स फोरम के रमेश सब्रवाल ने विलय दिवस पर छुट्टी घोषित करने की मांग की। 

भारत के अस्तित्व से जुड़ा है जम्मू-कश्मीर मुद्दा

नई दिल्ली।‘‘जम्मू-कश्मीर समस्या पूरे भारत की सुरक्षा और अस्तित्व से जुड़ी है जिसे नजरअंदाज करने का खामियाजा हमें भुगतना पड़ रहा है।’’ उक्त बातें वरिष्ठ पत्रकार एवं कश्मीर मामलों के जानकार जवाहर लाल कौल ने कही। श्री कौल विगत दिनों (22 अक्टूबर) को भारत-केन्द्रित अध्ययन संस्थान के तत्वाधान में आयोजित जम्मू-कश्मीर: वर्तमान स्थिति और भावी दिशाविषयक संगोष्ठी को संबोधित कर रहे थे।
श्री कौल ने कहा, अंग्रेज स्वभाव से साम्राज्यवादी और विस्तारवादी थे। उन्हें सबसे पहली चिंता अपने साम्राज्य को बचाने की हुई और उन्हें रणनीतिक समझ थी कि भारत पर यदि कोई खतरा हो सकता है तो वह जम्मू-कश्मीर के रास्ते से हो सकता है। उन्होंने जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह के साथ एक समझौते के तहत गिलगित में ब्रिटिश सैन्य छावनी स्थापित कर दी। 1947 में जब देश आजाद हुआ तो यह समझौता भी रद्द हो गया लेकिन अंग्रेज नहीं चाहते थे कि जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा बने। अंग्रेजों ने गिलगित में कृत्रिम बगावत खड़ी कर दी और एक रणनीति के तहत जम्मू-कश्मीर का कुछ भाग पाकिस्तान के हवाले कर दिया गया जबकि जम्मू-कश्मीर का भारत में संपूर्ण विलय हो चुका था। अंग्रेज इसे ग्रेट गिलगित गेमकहते थे और यह गेम आज तक खत्म नहीं हुआ। हमारे नेताओं ने आजादी के बाद देश की बागडोर तो संभाली लेकिन दुर्भाग्यवश वह नहीं जान सकें कि हमारा देश कितना असुरक्षित है और इसे कहां से खतरा हो सकता है।’’
प्रथम प्रवक्ता पाक्षिक के सलाहकार सम्पादक श्री रामबहादुर राय ने कहा कि जम्मू-कश्मीर समस्या बाहरी तत्वों द्वारा निर्मित की गई है। उन्होंने कहा, ‘‘पाकिस्तान और पाकिस्तान की सहमति से चीन ने जम्मू-कश्मीर समस्या को जन्म दिया है। 1984 में पाकिस्तान ने पाक अधिकृत कश्मीर (पीओक) में आतंकवादियों के शिविरों की स्थापना की जिसका पता भारत को 1988 में लगा। 1991 में खुफिया एजेंसी रॉ ने भारत सरकार को सूचना भी दी थी कि पीओके में पाकिस्तान आतंकवादियों के 86 प्रशिक्षण शिविर चला रहा है। तत्तकालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव ने मित्र देशों को उनकी जानकारी भी दी थी, लेकिन वह पाकिस्तान का समर्थन करते थे। 1994 में नरसिंह राव ने संसद में प्रस्ताव पारित किया कि अगर जम्मू-कश्मीर में कोई विवाद है तो पीओक है, लेकिन बाद की सरकारों ने इस प्रस्ताव पर कोई गंभीरता नहीं जताई। ऐसा अनुमान है कि वार्ताकारों ने भी रिपोर्ट में कहा है कि पीओके भारत का हिस्सा होना चाहिए।’’

अनुच्छेद 370 को हटाना कश्मीर समस्या का एकमात्र हल
नई दिल्ली। जम्मू-कश्मीर विलय दिवस के अवसर पर विगत दिनों दिल्ली के आदर्श नगर में संगोष्ठी का आयोजन किया गया। कार्यक्रम के मुख्य वक्ता थे वरिष्ठ पत्रकार एवं कश्मीर मामलों के जानकार श्री नरेन्द्र सहगल। इस अवसर पर उन्होंने जम्मू-कश्मीर समस्या और उसका समाधान, आदि बिंदुओं पर विस्तार से चर्चा की। उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 370 की समाप्ति ही इसका एकमात्र समाधान हो सकता है। श्री सहगल ने कहा कि जम्मू-कश्मीर किस प्रकार हमारे नेताओं की गलती से एक विवादित क्षेत्र बन गया और आजादी के 6 दशकों बाद भी हालात बदतर बने हुए हैं।
इस अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार एवं वितस्ता के सम्पादक श्री आशुतोष ने घाटी के हालात, सैन्य बालों के अधिकारों, अफस्पा आदि बातों को बहुत ही बारीकी से श्रोताओं के सम्मुख रखा। उन्होंने कहा, जम्मू-कश्मीर के बारे में हमेशा ही यही प्रचारित किया जाता है कि कश्मीर जल रहा है जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है। कश्मीर में तनाव तो है लेकिन वो सिर्फ चार-पांच जिलों के कुछ लोगों तक ही सीमित है जो देश भर में दुष्प्रचार करते हैं और कश्मीरी लोगों को बरगलाते हैं।
श्री आशुतोष ने एक श्रोता के प्रश्न के उत्तर में अफप्सा की बारीकियां भी समझाई और बताया कि इस कानून के सम्बन्ध में स्थानीय प्रशासन ही फैसला करता है और इस कानून के नाम पर प्रदेश में खूब राजनीतिक रोटियां सेंकी जाती हैं। कार्यक्रम के दौरान जम्मू-कश्मीर की भौगोलिक जानकारी पर संक्षिप्त पॉवर पॉइंट प्रस्तुतीकरण भी दिया गया।

मुद्दा सिर्फ पीओके को वापस लेने का है
जम्मू। विलय दिवस के उपलक्ष्य पर संजीवनी शारदा केंद्र की ओर से शारदा भवन आंनद नगर में आयोजित कार्यक्रम में भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता डॉ. जितेंद्र सिंह ने साफ किया कि जम्मू-कश्मीर का भारत के साथ विलय अंतिम व मान्य है। उस पर अब किसी तरह की कोई बहस का कोई स्थान नहीं है। अगर कोई मुद्दा है तो वह सिर्फ इतना है कि भारत का जो हिस्सा पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) में है उसे वापस लेना है।
उन्होंने कहा कि महाराजा हरि सिंह ने 26 अक्टूबर 1947 को विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए थे। उसके साथ ही जम्मू-कश्मीर भारत का अटूट अंग हो गया। जो लोग आज विलय को लेकर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं उन्हें या तो जानकारी का अभाव है या वह राज्य की जनता को गुमराह कर रहे हैं। हम सभी को इस बात पर गर्व होना चाहिए कि हम भारत के मुकुट हैं। यहां न तो स्वायत्तता की जरूरत है न ही किसी विशेषाधिकार की। 

समाचार/पेज 3
जम्मू-कश्मीर के छह जिलों से हटेगा अफस्पा
जम्मू। जम्मू-कश्मीर सरकार ने राज्य के 22 में से 20 जिलों में लागू सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) और अशांत क्षेत्र कानून (डीएए) खत्म करने का खाका तैयार कर लिया है। कैबिनेट सचिव अजीत कुमार सेठ के नेतृत्व में केंद्रीय प्रतिनिधिमंडल ने विगत दिनों राज्य के अफसरों संग तीन घंटे तक बैठक कर अफस्पा व डीएए हटाने की औपचारिकताएं पूरी की। सब कुछ योजना के मुताबिक चला तो श्रीनगर, जम्मू, सांबा, गांदरबल, बडगाम और कठुआ जिले में अफस्पा स्वत: हट जाएगा, क्योंकि डीएए के तहत ही सेना को विशेषाधिकार प्राप्त हैं। कुछ जिलों से यह कानून पूरी तरह से हटेगा तो कुछ में चिन्हित इलाके ही इससे मुक्त होंगे। केंद्रीय प्रतिनिधिमंडल ने राज्यपाल एनएन वोहरा से भी भेंट की और सुरक्षा हालात और विकास पर चर्चा की।
सूत्रों के मुताबिक, मुख्यमंत्री उमर अब्दुला ने कानून की समीक्षा के लिए दो कोर समूह बनाए हैं। पुलिस महानिदेशक कुलदीप खोडा और गृहसचिव बी.आर. शर्मा; दोनों समूह में हैं जबकि 15वीं कोर के कमांडर कश्मीर और 16 वीं कोर के कमांडर जम्मू पैनल के सदस्य हैं। हाल ही में राज्य सरकार व सेना के अफसरों ने घाटी के कुछ हिस्सों से डीएए हटाने के बारे में चर्चा की थी। इसे इन इलाकों से अफस्पा हटाने की भूमिका माना जा रहा है। बैठक में राज्य के पुलिस महानिदेशक, प्रमुख सचिव (गृह) और सेना की 15वीं कोर के कमांडर (कश्मीर घाटी में नियंत्रण रेखा पर निगरानी के प्रमुख) तथा लेफ्टीनेंट जनरल एस.ए. हसनैन विस्तार से विचार विमर्श किया।
विगत दिनों केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने दिल्ली में मासिक संवाददाता सम्मेलन में कहा था कि यदि राज्य सरकार डीएए को वापस लेती है तो अफस्पा अपने आप खत्म हो जाएगा, जिसके तहत सेना कश्मीर घाटी में आतंकियों के खिलाफ अभियान चलाती है। सेना द्वारा अफस्पा को जरूरी बताने और गत दो माह में 19 आतंकियों को मारे जाने का तर्क पेश किए जाने के बावजूद राज्य सरकार और केंद्रीय गृह मंत्रालय; दोनों का मानना है कि कश्मीर घाटी में अब अफस्पा की जरूरत नहीं है।

अफस्पा हटाने से कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं : उमर  
श्रीनगर। जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने विगत दिनों कहा कि प्रदेश के कुछ इलाकों से अगले कुछ दिनों में सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (एएफएसपीए या अफस्पा) तथा अशांत क्षेत्र अधिनियम (डीएए) को हटा लिया जाएगा। उमर ने इन कानूनों को हटाने के कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं होने का आश्वासन देते हुए कहा कि हालांकि इस कदम से राज्य पुलिस तथा अर्धसैनिक बलों के जवानों पर अतिरिक्त जिम्मेदारी रहेगी। श्रीनगर के पास जेवान में पुलिस स्थापना दिवस पर अपने संबोधन में उन्होंने कहा कि प्रदेश के कुछ हिस्सों से एएफएसपीए तथा डीएए को हटाने का वक्त आ गया है जिन्हें प्रदेश में आतंकवाद के बाद लागू किया गया था।
हालांकि मुख्यमंत्री ने उन क्षेत्रों का नाम नहीं लिया जहां से कानून हटाए जाएंगे। उन्होंने कहा कि मैं इस वक्त उन क्षेत्रों का नाम बताने की स्थिति में नहीं हूं। उमर ने कहा कि एएफएसपीए और डीएए को हटाने से राज्य पुलिस तथा अर्धसैनिक बलों के जवानों पर अतिरिक्त जिम्मेदारी रहेगी। उन्होंने कहा कि लेकिन मैं आश्वस्त करना चाहता हूं कि इन कानूनों को हटाने से कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा।

अफस्पा पर और विचार जरूरी
नई दिल्ली। जम्मू-कश्मीर के कुछ इलाकों को सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) के दायरे से बाहर लाने के अपनी पार्टी के विरोध ने केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम को मुश्किल में डाल दिया है। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का समर्थन करने वाले चिदंबरम अब इस मामले में उन्हें और अधिक विचार-विमर्श करने की सलाह दे रहे हैं। वैसे गृहमंत्री ने यह भी साफ कर दिया है कि राज्य में अफस्पा की समीक्षा का फैसला केंद्रीय मंत्रिमंडल का था और उमर अब्दुल्ला केवल उसका पालन कर रहे हैं।

विगत दिनों (31 अक्टूबर) चिदंबरम मंत्रालय के अक्टूबर के कामकाज की रिपोर्ट पेश कर रहे थे। उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर में अफस्पा की समीक्षा करने का फैसला पिछले साल 25 सितंबर को सुरक्षा संबंधी मंत्रिमंडलीय समिति (सीसीएस) में किया गया था, जिसमें खुद वह भी मौजूद थे। उनके अनुसार, उमर अब्दुल्ला सीसीएस के इसी फैसले को लागू करने की कोशिश कर रहे हैं। लगे हाथों चिदंबरम ने इस मामले में उमर अब्दुल्ला का विरोध करने वाले कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सैफुद्दीन सोज का भी बचाव किया। उन्होंने कहा कि उमर से इस मामले में और अधिक विचार-विमर्श करने की मांग की जा रही है, जिसे लोकतांत्रिक व्यवस्था में गलत नहीं कहा जा सकता। उन्होंने साफ संकेत दिए कि अफस्पा हटाने के मामले में जल्दबाजी दिखाने के बजाय उमर अब्दुल्ला को सरकार के भीतर और बाहर व्यापक विचार-विमर्श करना चाहिए।

कश्मीर से अफस्पा हटाने के खिलाफ है भाजपा
तिरुवनंतपुरम। जम्मू-कश्मीर से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) को हटाए जाने के प्रस्ताव का विरोध करते हुए वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने विगत दिनों (29 अक्टूबर) को कहा कि ऐसा कुछ भी नहीं किया जाना चाहिए जिससे सशस्त्र बलों की स्थिति कमजोर हो। हालांकि आडवाणी ने कहा कि इस कानून के मणिपुर से हटाए जाने का मामला बनता है और उस पर विचार किया जा सकता है। उन्होंने यहां संवाददाताओं से कहा कि जहां तक जम्मू-कश्मीर की बात है तो मैं नहीं समझता हूं कि इस कानून को वहां से हटाए जाने की जरूरत है। ऐसा कुछ भी नहीं किया जाना चाहिए जो सशस्त्र बलों की स्थिति को कमजोर करता हो।

समाचार/Page – 4
अफस्पा हटाने लायक नहीं हैं राज्य के हालात
श्रीनगर। अफस्पा हटाए जाने के मुद्दे पर कल तक अपनी पार्टी नेशनल कान्फ्रेंस के राज्य प्रमुख के बजाय मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के संग खडे़ नजर आ रहे स्वास्थ्य मंत्री ताज मोहिउद्दीन ने शनिवार (29 अक्टूबर) को एक बार फिर पाला बदल लिया। उन्होंने कहा कि क्या गारंटी है कि अफस्पा हटाए जाने के बाद यहां हालात पूरी तरह सुधर जाएंगे। फिलहाल, इस कानून को हटाने लायक हालात अभी नहीं बने हैं।
ज्ञातव्य है कि विगत दिनों जब प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सैफुद्दीन सोज और मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के बीच अफस्पा को हटाए जाने पर विवाद शुरू हुआ था तो उस समय मोहिउद्दीन ने दावा किया था कि मुख्यमंत्री ने उनके साथ इस मुद्दे पर बातचीत की है। सोज का आरोप था कि हालात अभी पूरी तरह ठीक नहीं है और मुख्यमंत्री को इस तरह का कोई एलान करने से पूर्व कांग्रेस को भी विश्वास में लेना चाहिए था।
अलबत्ता, यहां पत्रकारों से बातचीत में अफस्पा पर मंत्री ने कहा कि राज्य की स्थिति ऐसी नहीं है कि यह कानून हटाया जाए। इसके अलावा यह एक संवेदनशील मुद्दा है, जो देश की एकता अखंडता और सुरक्षा से जुड़ा हुआ है। इसलिए इसे हटाने संबंधी कोई भी फैसला लेने से पूर्व सभी संबंधित पक्षों को विश्वास में लेना जरूरी है। अगर हम राज्य के कुछ हिस्सों की मौजूदा स्थिति को उन्हें इस कानून के दायरे से बाहर रखते हैं तो इसके प्रतिकूल परिणाम हो सकते हैं। शरारती तत्व उन्हीं इलाकों में अपनी स्थिति को फिर से मजबूत करते हुए अन्य इलाकों में गतिविधियों को अंजाम देंगे।

अफस्पा हटने से मिलेगी अलगाववादियों को शह
जम्मू। विस्थापित कश्मीर पंडितों के संगठन पनुन कश्मीर के संयोजक डॉ. अग्निशेखर ने राज्य में सेना के विशेषाधिकार से छेड़छाड़ नहीं करने की चेतावनी दी है और कहा कि ऐसा करने से कश्मीर में आतंकवादियों व अलगाववादी ताकतों को शह मिलेगी। मुख्यमंत्री को आड़े हाथ लेते डॉ. शेखर ने कहा कि वह अपने बयानों से राज्य के हालात को खराब करने में जुटे हैं। वार्ताकारों पर कश्मीर केंद्रित होने का आरोप लगाते हुए उन्होंने कहा कि वे देश के खिलाफ कार्य कर रही ताकतों से प्रभावित हैं।
नियंत्रण रेखा पर गत माह हुई करीब 15 मुठभेड़ों, श्रीनगर में आतंकी हमलों, सीमापार सक्रिय आतंकवादी प्रशिक्षण शिविरों का हवाला देते हुए डॉ. अग्निशेखर ने कहा कि मुख्यमंत्री किस आधार पर कह रहे हैं कि हालात सुधर गए हैं। उन्होंने कहा कि उमर अपने बयानों से कश्मीर समस्या को विकट बना रहे हैं। एक ओर वह स्वायत्तता को कश्मीर समस्या का हल बता रहे हैं तो दूसरी ओर कह रहे हैं कि राज्य में स्थायी शांति के लिए पाकिस्तान से बातचीत की प्रक्रिया शुरू की जाए। उन्होंने कहा कि दोनों सुझाव देश के हित में नहीं हैं। 

अफस्पा पर बंद हो राजनीति : विपक्ष
जम्मू। भारतीय जनता पार्टी ने राज्य में सत्तासीन गठबंधन के दोनों घटक दलों से सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा) पर राजनीति बंद करने की अपील की है और कहा कि इससे राष्ट्र व सैन्य बल का अपमान हो रहा है। पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता डॉ. जितेंद्र सिंह ने 30 अक्टूबर को कहा कि राज्य में सेना अपनी मर्जी से तैनात नहीं है। नेशनल कांफ्रेंस सरकार ने सुरक्षा कारणों से राज्य में अशांत क्षेत्र अधिनियम लागू करने की जरूरत महसूस की तो सेना की तैनाती हुई। सरकार के बुलावे पर आई सेना के लिए अफस्पा एक सुरक्षा कवच है। उन्होंने कहा कि दूसरी तरफ कांग्रेस उलझन भरे बयान देकर जम्मू-कश्मीर की स्थिति को और उलझा रही है। अफस्पा पर निर्णय लेने से पहले सेना व सुरक्षा एजेंसियों को विश्वास में लिया जाना चाहिए।
इस बीच नेशनल पैंथर्स पार्टी के प्रमुख प्रो. भीम सिंह ने कहा कि कांग्रेस नेता कैबिनेट में अपनी जगह बनाए रखने के लिए उमर अब्दुल्ला के इशारों पर नाच रहे हैं। एक तरफ कांग्रेस ने उमर अब्दुल्ला के हाथ में सत्ता सौंप रखी है तो दूसरी तरह कांग्रेस के ही नेता बयान दे रहे हैं कि अफस्पा पर उमर ने कांग्रेस से सलाह नहीं ली।

एएफएसपीए पर चिदम्बरम, एंटनी की सहमति जरूरी 
नई दिल्ली। जम्मू-कश्मीर के कुछ चुनिंदा इलाकों से सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (एएफएसपीए) को हटाने को लेकर केंद्र सरकार में मतभेद खुलकर सामने आ गए। विधि मंत्री सलमान खुर्शीद ने कहा कि इस मुद्दे पर गृह मंत्री पी. चिदम्बरम और रक्षा मंत्री एके एंटनी को सहमत होने की जरूरत है। खुर्शीद ने कहा कि एएफएसपीए के बारे में कोई भी फैसला लेने से पहले सेना की राय पर भी गौर करना चाहिए।
ध्यातव्य है कि खुर्शीद का यह बयान जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के उस बयान के बाद आया है जिसमें उन्होंने कहा था, 'सुरक्षा स्थिति में धीरे-धीरे हो रहे सुधार और शांति लौटने से एएफएसपीए जैसे कुछ कानूनों को अगले कुछ दिनों में चुनिंदा इलाकों से हटाया जा रहा है।' विदित हो कि यह अधिनियम आतंकवाद से लड़ने में सुरक्षा बलों को काफी शक्तियां प्रदान करता है जबकि इस अधिनियम के बारे में कुछ आलोचकों का कहना है कि इससे मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है। 

समाचार/Page-5
राज्य की मतदाता सूचियों की जांच हो : चमन
जम्मू। पूर्व रक्षा राज्यमंत्री व जम्मू पश्चिम से विधायक प्रो. चमन लाल गुप्ता ने भारतीय चुनाव आयोग से जम्मू-कश्मीर की मतदाता सूचियों की जांच करवाने की अपील की है। उन्होंने कहा कि कश्मीर व जम्मू डिवीजन के मतदाताओं की संख्या में रातो-रात अविश्वसनीय बदलाव आया है।
प्रो. गुप्ता ने कहा कि इस बदलाव के पीछे की सच्चाई का पता लगाने के लिए भारतीय चुनाव आयोग को अपनी निगरानी में मतदाता सूचियों की जांच करवानी चाहिए। उन्होंने कहा कि हाल ही में संपन्न हुए विधानसभा सत्र के दौरान उनके एक सवाल के जवाब में सरकार ने बताया कि श्रीनगर म्यूनिसिपल कारपोरेशन के तहत 68 वार्ड आते हैं, इनमें मतदाताओं की संख्या 6.2 लाख है जबकि जम्मू म्यूनिसिपल कारपोरेशन के अधीन 71 वार्ड हैं और यहां मतदाताओं की संख्या 3.47 लाख रिकार्ड की गई है।
उन्होंने कहा कि श्रीनगर शहर के हर विधानसभा क्षेत्र में पिछले एक दशक में मतदाताओं की संख्या कई गुणा बढ़ी है जो अविश्वसनीय है। अमीरा कदल में 2001 में 57663 मतदाता थे जबकि 2011 में इनकी संख्या 77363 पहुंच गई है। इसी तरह बटमालू में वर्ष 2001 में मतदाताओं की संख्या 75800 थी, लेकिन वर्तमान में 108471 दर्शाई गई है।
प्रो. गुप्ता ने कहा कि कश्मीरी विस्थापितों के नाम मतदाता सूचियों से कटने के बावजूद इतनी बढ़ोतरी संदेह पैदा कर रही है कि सूचियों में फेरबदल हुआ है। इसके वितरीत जम्मू के कई विधानसभा क्षेत्रों में पिछले एक दशक में मतदाताओं की संख्या में कमी दर्शाई गई है। उन्होंने कहा कि यह सारा खेल राज्य में लोकतांत्रिक ढांचे को नुकसान पहुंचाने के लिए खेला जा रहा है, लिहाजा भारतीय चुनाव आयोग का दायित्व बनता है कि इस मामले की गंभीरता से जांच करवाई जाए।

जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद फायदे का कारोबार
नई दिल्ली। यूरोप के एक वैचारिक समूह (थिंक टैंक) का कहना है कि जम्मू-कश्मीर में डकैत और अपराधी आतंकवाद का फायदा उठा रहे हैं और बलात्कार, हत्या, जबरन वसूली एवं माफिया गतिविधियों को अंजाम देते हैं और बाद में इनका ठीकरा सुरक्षाबलों के सिर फोड़ देते हैं।
बेल्जियम स्थित थिंक टैंक बेल्जियन एसोसिएसन फार सोलिडैरिटी विथ जम्मू एंड कश्मीर की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि जम्मू-कश्मीर में डकैत और अपराधी सक्रिय हैं और वे राज्य के तंग हालात का फायदा उठा रहे हैं।
इस थिंक टैंक के एक दल ने इसी साल गर्मियों में राज्य का दौरा किया था। इसके बाद तैयार की गई रिपोर्ट में कहा- ये लोग पैसों के लिए लोगों का अपहरण करने के साथ ही बलात्कार, हत्या, जबरन वसूली, माफिया गतिविधियां आंदोलन की आड़ में अंजाम दे रहे हैं। इन लोगों के लिए आतंकवाद एक फायदे का कारोबार है और मौजूदा हालात में सभी अपराधों के लिए सुरक्षाबलों को जिम्मेदार ठहराना आसान हैं। जम्मू-कश्मीर के दौरे के समय पॉल बीयर्समैंस के नेतृत्व वाले दल ने पाकिस्तान समर्थक सैयद अली शाह गिलानी और उदारवादी नेताओं बिलाल लोन एवं अब्दुल गनी भट सहित राज्य के कई तबकों से मुलाकात की थी।
यह रिपोर्ट 17 पृष्ठों की है। इसमें आतंकियों द्वारा किए गए मानवाधिकार के उल्लंघन के प्रति आखें बंद रखने के लिए कश्मीर के अलगाववादी नेताओं की आलोचना की गई है। रिपोर्ट के मुताबिक, कुछ भी होता है तो पहले सुरक्षाबलों को जिम्मेदार ठहराया जाता है। आतंकवादियों की ओर से मानवाधिकार के उल्लंघन की अलगाववादी आलोचना नहीं करते।

पाकिस्तान को चीन से वित्तीय मदद की आस
बीजिंग। अमेरिका द्वारा सैन्य आर्थिक मदद बंद करने और उसके साथ लगातार बिगड़ते रिश्तों को देखते हुए पाकिस्तान अब अपने करीबी मित्र चीन से वित्तीय मदद की उम्मीद कर रहा है। पाकिस्तान ने चीन से अपनी विभिन्न ऊर्जा परियोजनाओं में 11 अरब डॉलर (लगभग 55 हजार करोड़ रुपये) निवेश करने की मांग की है।
चीन में पाकिस्तान के राजदूत मसूद खान ने विगत दिनों कहा कि चीन अगले पांच वर्षों में पाकिस्तान के ऊर्जा क्षेत्र में 11 अरब डॉलर से अधिक का निवेश कर सकता है। मसूद खान सार्वजनिक क्षेत्र के नौ ताप विद्युत संयंत्रों के प्रबंधन, परिचालन और रखरखाव के लिए निवेश आकर्षित करने के उद्देश्य से आयोजित रोडशो में बोल रहे थे।
उन्होंने कहा कि पाकिस्तान और चीन का आर्थिक सहयोग मुख्य रूप से ऊर्जा विकास पर केंद्रित है। चीन कई परियोजनाओं में पाकिस्तान की मदद कर रहा है। इनमें पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) के गिलगित-बाल्टिस्तान में 4500 मेगावाट की एक बांध परियोजना भी शामिल है। भारत ने पीओके में चीन के नागरिकों की मौजूदगी पर आपत्ति जताई है। इसके बावजूद चीन इस परियोजना में पाकिस्तान की मदद कर रहा है।
मसूद खान के मुताबिक पाकिस्तान चीन के साथ सहयोग बढ़ाना चाहता है क्योंकि दोनों देशों के बीच करीबी और दोस्ताना संबंध हैं। उन्होंने कहा कि पाकिस्तानी बाजार चीन के निवेश के लिए उपयुक्त है। खान के मुताबिक चीन, पाकिस्तान में बड़े निवेशक के तौर पर तेजी से उभर रहा है और पाकिस्तानी बाजार में उसका निवेश दोनों देशों की भागीदारी का सुबूत है। इसके अलावा चीन पाकिस्तान के साथ परमाणु क्षेत्र में भी काम कर रहा है। चीन ने कुछ ही हफ्ते पहले पाकिस्तान के संचार उपग्रह का भी प्रक्षेपण किया था।

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बांग्लादेशी घुसपैठियों के लिए शरणस्थली बना जम्मू
जम्मू। जम्मू के आरएसपुरा सेक्टर के अरनिया क्षेत्र में छह बांग्लादेशी नागरिकों का सीमा पार पाकिस्तान जाने के प्रयास में पकड़ा जाना चिंता का विषय है। अंतरराष्ट्रीय सीमा पर बांग्लादेशी नागरिकों की बढ़ती घुसपैठ सुरक्षा बलों के लिए परेशानी का सबब बनती जा रही है। पकड़े गए सभी बांग्लादेशी नागरिक दो महीने पहले भारत में घुसे थे और तब से श्रीनगर में काम कर रहे थे।
गंभीर बात यह है कि राज्य में भी बांग्लादेशी नागरिकों की एक अच्छी खासी तादाद है, जो विभिन्न क्षेत्रों में रह रहे हैं लेकिन उन पर कोई रोक नहीं है। विडंबना यह है कि बंगाल की सीमा से घुसपैठ कर आए ऐसे नागरिकों ने जम्मू-कश्मीर के मूल निवासी होने का प्रमाण पत्र तक बनवा लिया है। यही नहीं, ये लोग कुछ राजनीतिक पार्टियों का वोट बैंक भी बन गए हैं और उन्हें इनका संरक्षण भी प्राप्त है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि जम्मू शहर बांग्लादेशी नागरिकों के लिए शरणस्थली बनता जा रहा है। ये बांग्लादेशी नागरिक अक्सर बंगाल से रेल मार्ग द्वारा एजेंटों की मदद से यहां पहुंचते हैं। ये एजेंट उन्हें सीमा के पास छोड़कर फरार हो जाते हैं। दु:ख की बात यह है कि बांग्लादेशी नागरिक सीमापार करने के प्रयास में पकड़े तो जाते हैं, लेकिन उनके एजेंट कभी भी सुरक्षाबलों के हत्थे नहीं चढ़ते।
विगत दिवस अंतरराष्ट्रीय सीमा पर पकड़े गए बांग्लादेशी नागरिकों को भी एक एजेंट यहां पहुंचाया था, लेकिन वह उन्हें सीमा से पहले त्रेवा गांव में छोड़ कर फरार हो गया। सीमा पार से यहां सक्रिय बांग्लादेशी नागरिकों के पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई से भी संबंध होने से इंकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में सुरक्षा एजेंसियों का दायित्व बनता है कि यहां रह रहे बांग्लादेशी नागरिकों पर नजर रखें। सरकार को भी चाहिए कि वह एक सर्वेक्षण करवा कर ऐसे नागरिकों की संख्या का पता लगाए जो चोरी-छिपे यहां डेरा जमाए हुए हैं। स्थानीय लोगों का भी यह दायित्व है कि वह किसी अपरिचित व्यक्ति को मकान किराए पर देने से पहले जांच-पड़ताल जरूर करें और पुलिस सत्यापन भी करवाएं। सरकार का यह दायित्व बनता है कि वह एहतियात के तौर पर ऐसे एजेंटों पर नजर रखें जो निहित स्वार्थों के लिए बांग्लादेशी नागरिकों को घुसपैठ के लिए ट्रेनों के रास्ते यहां लाते हैं और छोड़ कर फरार हो जाते हैं। (वितस्ता ब्यूरो)

वार्ताकारों की रिपोर्ट पर जल्दबाजी में न दें प्रतिक्रिया
जम्मू। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एवं सांसद डॉ. कर्ण सिंह ने जम्मू के लोगों को नसीहत दी है कि वे केंद्रीय वार्ताकारों द्वारा सौंपी गई रिपोर्ट पर अभी जल्दबाजी में कोई भी प्रतिक्रिया न दें। महाराजा गुलाब सिंह के 219वें जन्म दिवस पर आयोजित समारोह के अध्यक्षीय भाषण में डॉ. सिंह ने कहा कि पिछले कई वर्षों से राज्य की समस्या का समाधान तलाशने के प्रयास हो रहे हैं। इसके लिए कई कमीशन गठित किए गए, लेकिन कोई हल नहीं निकल सका। अब वार्ताकारों ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी है। उन्होंने भी अभी रिपोर्ट नहीं पढ़ी है। जल्द यह रिपोर्ट लोगों के सामने होगी। जम्मू के लोग अक्सर प्रतिक्रिया व्यक्त करने में जल्दबाजी करते हैं, जिसका कोई लाभ नहीं।
रिपोर्ट आने के बाद इस पर गंभीरता से चिंतन होना चाहिए। उसमें देखा जाना चाहिए कि किस को इसका क्या लाभ हो रहा है। उसके बाद ही कोई प्रतिक्रिया व्यक्त की जाए तो उचित होगा। उन्होंने महाराजा गुलाब सिंह को श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि महाराजा ने राज्य की सरहदों को बढ़ाया। इस मौके पर सत प्रकाश सूरी की पुस्तक डोगरा रूलर ऑफ जम्मू-कश्मीर एवं हरबंस सिंह की पुस्तक महाराजा हरि सिंह का भी विमोचन किया गया। 

कश्मीर पर रिपोर्ट में सांप्रदायिक निहितार्थ नहीं
नई दिल्ली। जम्मू-कश्मीर पर केंद्र सरकार की ओर से नियुक्त वार्ताकारों ने अपनी रिपोर्ट में किसी सांप्रदायिक निहितार्थ से इंकार किया है। ऐसी चर्चा को निराधार बताते हुए तीनों वार्ताकारों ने विगत दिनों साफ किया कि रिपोर्ट में आतंकवाद से ग्रस्त राज्य की राजनीतिक आकांक्षाओं को संपूर्णता के साथ पेश किया गया है। इसके साथ ही राज्य केतीनों क्षेत्रों की जरूरतों का भी जिक्र किया गया है। वार्ताकार दिलीप पडगांवकर, राधा कुमार और एमएम अंसारी ने संयुक्त रूप से बयान जारी कर राज्य के लोगों से भ्रामक बयानों पर ध्यान नहीं देने का अनुरोध किया है।
वार्ताकारों ने रिपोर्ट को पूरी तरह गोपनीय बताते हुए कहा कि यह केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम की आलमारी में बंद है, जिसकी चाभी सिर्फ उन्हीं के पास है। उन्होंने कहा कि सर्वदलीय बैठक में इस रिपोर्ट पर चर्चा होने के बाद ही इसकी सच्चाई का पता चल सकेगा। वार्ताकारों के अनुसार रिपोर्ट में कश्मीर समस्या पर समग्र रूप से विचार किया गया है। इसलिए इस समस्या को दूर करने के लिए दिए गए सुझाव भी एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। किसी एक क्षेत्र या समुदाय को संबोधित नहीं किया गया है।

कारगिल जैसा युद्ध छेड़ सकता है चीन
नई दिल्ली। दक्षिण एशिया में भारत को चीन से खतरा बरकरार है। सामरिक मामलों के थिंक-टैंक इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस (आईडीएसए) ने चेतावनी दी है कि चीन भारत के खिलाफ कारगिल जैसा युद्ध छेड़ सकता है, ताकि उसके विकास को बाधित किया जा सके। आईडीएसए ने कहा कि यह सीमित युद्ध हो सकता है जो सीमा पर कम समय के लिए लड़ा जा सकता है, लेकिन दोनों देशों के बीच बातचीत के बाद इसे सुलझा लिया जाएगा। एशिया की दो उभरती अर्थ व्यवस्थाओं वाले देश पर जारी रिपोर्ट को ए कंसिडरेशन ऑफ साइनो-इंडियन कन्फि्लक्ट शीर्षक से जारी किया गया है।

कश्मीर में छह माह के लिए हुआ बंद दरबार
जम्मू। ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर में राज्य सरकार का दरबार अगले छह महीनों के लिए विगत दिनों (28 अक्टूबर) बंद हो गया। शीतकालीन राजधानी जम्मू में दरबार सात नवंबर से खुलेगा। दोपहर को श्रीनगर सचिवालय में कामकाज सिमटते ही तीन दर्जन के करीब सरकारी विभागों के रिकार्ड को लादने के लिए एसआरटीसी के ट्रकों को सचिवालय के अंदर आने की अनुमति मिल गई।

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सम्पादकीय
पाकिस्तान अपने इतिहास के सबसे खतरनाक दौर से गुजर रहा है। उसकी आन्तरिक व्यवस्था जब भी चरमराती है, अपनी जनता को मूल समस्या से भटकाने के लिये वह भारत विरोधी, विशेषकर कश्मीर का राग अलापना शुरू कर देता है। 27 अक्तूबर को कश्मीर के भारत में विलय की स्मृति में समूचे जम्मू-कश्मीर सहित भारत के अनेक स्थानों पर विलय दिवस के कार्यक्रम आयोजित किये गये। अलगाववादियों ने हमेशा की तरह इसे काला दिवस मनाने की घोषणा की। कुछ जगहों पर भारत विरोधी आयोजन भी किये गये।
पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में इसकी कुख्यात खुफिया एजेंसी आईएसआई के मुख्यालय के निकट आयोजित एक कार्यक्रम में तमाम जेहादी संगठनों के लोग जुटे। हिजबुल मुजाहिदीन के मुखिया सैयद सलाहुद्दीन ने भारत की आक्रमणकारी फौज को जम्मू-कश्मीर से खदेड़ देनेतक लड़ाई जारी रहने की घोषणा की। लश्करे तैयबा के प्रतिनिधि ने कहा कि भारत के साथ रिश्ता सिर्फ बन्दूक की गोलीसे निभाया जायेगा। उसने कश्मीर के साथ ही हैदराबाद और जूनागढ़ की आजादी को भी जेहादियों का अधूरा एजेंडा बताया।
हुर्रियत कान्फ्रेंस ने भारत के कब्जे वाले कश्मीर में भारतीय बर्बरता को प्रदर्शित करने वाली वर्दी में आतंकवादीशीर्षक से ग्राफिक फोटोग्राफ की प्रदर्शनी लगायी (क्योंकि असली चित्र जुटाना संभव नहीं)। सभा में पाक में भी प्रतिबंधित जैशे मुहम्मद और अल-बदर मुजाहिदीन के प्रतिनिधि भी मौजूद थे।
पाकिस्तान के पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी और राजनेता इमरान खान ने भी एक सार्वजनिक सभा को संबोधित करते हुए भारत को कश्मीर से सेना हटा लेने की चेतावनी दी। सेना के सूत्र बताते हैं कि बड़ी संख्या में पाक प्रशिक्षित आतंकवादी घुसपैठ की फिराक में हैं। कुछ दिन पहले ही प्रशांत भूषण ने वाराणसी में और मेधा पाटकर तथा संदीप पाण्डेय ने श्रीनगर में सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम हटाने की मांग की थी। तत्काल बाद उमर अब्दुल्ला का जम्मू-कश्मीर के कुछ इलाकों से सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम हटाने का फैसला निश्चित ही आश्चर्यजनक है।
घोषणा से पहले उमर ने न तो गृह मंत्रालय और न ही सेना को विश्वास में लेने की कोशिश की। उनके गठबंधन में शामिल कांग्रेस के नेता भी उनसे बिना चर्चा किये की गयी इस घोषणा से अचम्भे में हैं। एक साल तक चली वार्ताकारों की कवायद के बाद गृह मंत्रालय को सौंपी गयी रपट के सार्वजनिक होने तक की प्रतीक्षा उमर ने नहीं की। उनकी यह जल्दी अनेक प्रश्न पैदा करती है।
जम्मू-कश्मीर का यह दुर्भाग्य है कि वहां का एजेंडा सदैव अलगाववादी शक्तियां तय करती हैं। राज्य सरकार हो अथवा केन्द्र सरकार, केवल प्रतिक्रिया ही करते हैं। जब तक राज्य में नेशनल कांफ्रेंस अकेली ताकत थी, केन्द्र में कांग्रेस के साथ उसके रूठने-मनाने का तमाशा चलता रहा। पीडीपी के उभार के बाद अब दोनों के बीच इस बात का मुकाबला होता है कि कौन अपने आपको अलगाववादियों के ज्यादा नजदीक साबित कर सकता है।
यह भी कहा जा सकता है कि राज्य में राजनैतिक दलों और अलगाववादियों के बीच एक समझ विकसित हो गयी है और अलगाव की राजनीति में दोनों के साझा हित विकसित हो गये हैं। इसलिये सीमा पार से रची गयी साजिशें और जारी बयान भी राज्य की राजनीति को प्रभावित करते नजर आते हैं।
उमर ने अपने निर्णय को उचित ठहराने के लिये अपराध के आंकड़े पेश किये हैं और दिल्ली तथा हरियाणा से उनकी तुलना करते हुए जम्मू-कश्मीर को शांत क्षेत्र साबित करने की कोशिश की है। यहां वे भूल जाते हैं कि दिल्ली, हरियाणा आदि की जनसंख्या, उसकी विविधता, भौगोलिक रचना तथा अन्य परिस्थितियां जम्मू-कश्मीर से बहुत अलग हैं। साथ ही, दोनों स्थानों पर होने वाले अपराधों की प्रकृति भी भिन्न है। यदि तुलना करनी ही है तो जम्मू-कश्मीर की तुलना हिमाचल और उत्तराखण्ड जैसे पर्वतीय राज्यों से करनी होगी। आतंकवाद के चलते होने वाली घटनाओं तथा साधारण अपराधों को एक तराजू पर नहीं तौला जा सकता।
सेना व अर्ध सैनिक बलों के वर्षों के प्रयास के बाद आतंकवाद हारता दिख रहा है। अगर इसे अंजाम तक पहुंचने से पहले रोका गया तो न केवल राज्य अपितु देश के लिये भी अत्यंत खतरनाक होगा। राज्य को पुनः उसी अराजकता में धकेलने के लिये प्रयत्नशील पाक-प्रेरित प्रयासों को सख्ती से कुचलने की जरूरत है। आवश्यकता अफस्पा हटाने की नहीं बल्कि सेना को अपनी भूमिका तेजी से पूरी करने में आ रही रुकावटों को दूर करने की है। एक बार पंजाब की भांति जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद की कमर पूरी तरह टूट जाये तो न वहां सेना की जरूरत बचेगी और न अफस्पा की प्रासंगिकता।

आलेख/मुद्दा/पेज-8
सुरक्षा पर खतरनाक सुझाव
अरुण जेटली
जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने हाल ही में सुझाव दिया है कि सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम 1958 यानी अफस्पा के प्रावधान को राज्य के कुछ क्षेत्रों से हटा दिया जाए। इस सुझाव से विवाद खड़ा हो गया है, क्योंकि सुरक्षा बल और रक्षा मंत्रालय का मानना है कि जम्मू-कश्मीर में इस अधिनियम को लागू करना बेहद जरूरी है। इसलिए इस कानून के प्रावधानों की पड़ताल और इन्हें राज्य में लागू करने की आवश्यकता का जायजा लेना जरूरी हो जाता है।

दो दशक से अधिक समय से जम्मू-कश्मीर अशांत क्षेत्र बना हुआ है। यह सीमा पार आतंकवाद का शिकार रहा है। कुछ घरेलू समूहों ने भी जम्मू-कश्मीर के भारत के अभिन्न अंग के दर्जे पर विवाद खड़ा किया है। यह पूरे देश और राज्य प्रशासन का प्रयास होना चाहिए कि राज्य में शांति और स्थिरता कायम हो और प्रदेश की जनता को किसी भी प्रकार की हिंसा व उत्पीड़न से मुक्ति मिले। आतंकवाद और अलगाववादी हिंसा के खिलाफ राजनीतिक स्तर पर और सुरक्षा ढांचे की ओर से माकूल प्रतिक्रिया अपेक्षित है। सुरक्षा बलों की ओर से व्यक्त की जाने वाली प्रतिक्रिया रोजमर्रा के नागरिक जीवन को प्रभावित कर सकती है, किंतु यह सख्ती जरूरी है। अगर सुरक्षा बलों के स्तर पर किसी भी तरह की ढिलाई बरती जाती है तो इसका अनिवार्य परिणाम यह होगा कि हिंसक और अलगाववादी गतिविधियों पर अंकुश नहीं लग पाएगा। राज्य पुलिस के अलावा संघ के सशस्त्र बल भी प्रशासन को सहायता प्रदान करते हैं।

सशस्त्र बलों का मतलब केवल सेना से ही नहीं है, बल्कि इनमें सीमा सुरक्षा बल, सीआरपीएफ, असम राइफल्स और आईटीबीपी जैसे संघ के कुछ अन्य सशस्त्र बल भी शामिल हैं। जैसे ही किसी राज्य का समस्त भाग या फिर इसका कुछ हिस्सा अशांत घोषित किया जाता है, राज्य में शांति और व्यवस्था बनाए रखने को नागरिक प्रशासन और पुलिस की सहायता के लिए सशस्त्र बलों को बुला लिया जाता है। सशस्त्र बल अपराध की जांच नहीं करते। उनके जवान सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए जरूरी कदम उठाने और इसमें बाधा पहुंचाने वालों को चेतावनी देने के बाद ही बल प्रयोग के लिए अधिकृत हैं। वे किसी भी परिसर में जाकर तलाशी ले सकते हैं। वे किसी भी ऐसे भवन को ध्वस्त कर सकते हैं जहां से सशस्त्र हमले किया जा रहे हों। उन्हें किसी भी व्यक्ति को बिना वारंट गिरफ्तार करने का अधिकार है और ये गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को नजदीकी पुलिस स्टेशन भी ले जा सकते हैं।

इस प्रकार, किसी क्षेत्र को अशांत घोषित करने से आशय है कि सरकार यह मानती है कि नागरिक प्रशासन और स्थानीय पुलिस राज्य में कानून एवं व्यवस्था को कायम रख पाने में असमर्थ हैं। अगर केवल स्थानीय पुलिस ही राज्य में कानून एवं व्यवस्था कायम रखने में सक्षम नजर आती तो उस क्षेत्र को अशांत क्षेत्र घोषित करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। इसलिए किसी राज्य अथवा उसके किसी विशेष भाग का अशांत दर्जा जारी रखने या न रखने का फैसला सुरक्षा पहलुओं पर गौर करके लिया जाता है, न कि राजनीतिक आग्रहों के कारण। उन जिलों में भी जहां से सेना वापस बुला ली गई है, सीआरपीएफ और अन्य सशस्त्र बल तैनात हैं। यह एक सच्चाई है कि इन जिलों में स्थानीय पुलिस कानून एवं व्यवस्था की स्थिति को संभालने तथा अलगाववादी तत्वों के मंसूबे ध्वस्त करने में पूरी तरह सक्षम नहीं है। इस संदर्भ में हम इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकते कि केंद्र के सशस्त्र बलों को जो शक्तियां दी गई हैं वे स्थानीय पुलिस को मिली शक्तियों से अधिक भिन्न नहीं हैं।

स्थानीय पुलिस को भी कानून एवं व्यवस्था बनाए रखने के लिए गिरफ्तारी और तलाशी का अधिकार है। शांति और सौहा‌र्द्र बनाए रखने के लिए पुलिस भी उपयुक्त शक्तियों का इस्तेमाल कर सकती है। वह भी किसी ऐसे भवन को ध्वस्त कर सकती है, जिसका इस्तेमाल हिंसक समूह द्वारा सशस्त्र हमला करने में किया जा रहा हो। केंद्रीय सशस्त्र बलों को इस कानून के जरिए एकमात्र सुरक्षा यह प्रदान की गई है कि इसके तहत कार्य करने वाले किसी भी सुरक्षाकर्मी के खिलाफ केंद्रीय सरकार की अनुमति के बगैर कोई भी कानूनी या प्रशासनिक कार्रवाई नहीं की जा सकती।  

पिछले साल जब सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के साथ मैं जम्मू-कश्मीर के दौरे पर पहुंचा था तो मुझे बताया गया था कि केंद्र सरकार के पास सशस्त्र बलों के खिलाफ ढाई हजार से अधिक शिकायतें लंबित पड़ी हैं। इस प्रकार यह कहने में संकोच नहीं कि यह अधिनियम सुरक्षा बलों के जवानों को यह कवच प्रदान करता है कि केंद्रीय सरकार की अनुमति के बगैर उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं की जा सकती, लेकिन केवल इस आधार पर यह नहीं माना जा सकता कि इसका दुरुपयोग हो रहा है। अगर यह सुरक्षा हटा ली जाती है तो राजनीतिक निहित स्वार्थों के कारण अ‌र्द्धसैनिक बलों और सशस्त्र बलों के जवानों के खिलाफ अनेक मामले दर्ज कर लिए जाएंगे। जाहिर है, इससे इन सुरक्षा बलों के जवानों का अलगाववादी समूहों के खिलाफ कार्रवाई करने का मनोबल टूट जाएगा।

जब सुरक्षा बल इस कानून के प्रावधानों को जम्मू-कश्मीर से हटाने के पक्ष में नहीं हैं तो राजनीतिक निहित स्वार्थों के कारण इस दलील को स्वीकारने के खतरनाक नतीजे निकलेंगे कि इस कानून को केवल कुछ भागों तक ही सीमित कर देना चाहिए। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि भविष्य में प्रदेश में ऐसे हालात बनें कि इस अफस्पा को लागू करने की जरूरत ही न पड़े या फिर यह भी हो सकता है कि इसे कुछ भागों में ही लागू किया जाए। जहां तक मौजूदा समय की बात है तो अभी ऐसे हालात नहीं हैं।

इस कानून को हटाने के बाद कानून एवं व्यवस्था कायम रखने की जिम्मेदारी केवल केवल स्थानीय पुलिस के कंधों पर आ जाएगी जिससे इन क्षेत्रों में अलगाववादी और हिंसक समूह अपनी गतिविधियां तेज कर देंगे। इस प्रकार, जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री के लिए राजनीतिक रूप से यह अधिक विवेकपूर्ण होगा कि ऐसे समय सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम पर बहस न छेड़ें जब हालात इस कानून को लागू रखना जरूरी बता रहे हैं।
(लेखक : पूर्व कानून मंत्री एवं राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं)

दृष्टिकोण/पेज-9
कश्मीर पर बेवजह बयानबाजी
दयासागर
जम्मू-कश्मीर के लोगों का यह दुर्भाग्य है कि वर्ष 1947 में देश के साथ राज्य के विलय के बावजूद यहां के लोग हर दिन खुद को एक नई भूल-भुलैया में खड़ा पाते हैं। लखनऊ के बड़े इमामबाड़ा की भूल-भुलैया का तो रास्ता कुछ सोच विचार के बाद खोजा जा सकता है, लेकिन राज्य के लोगों के साथ सत्ता में बैठे और सत्ता से बाहर के नेता जो खेल खेल रहे हैं, वह बहुत ही जटिल है।

दुख की बात यह है कि कुछ सामाजिक कार्यकर्ता, कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ता और कुछ अगली पंक्ति में खड़े होने की आस रखने वाले पत्रकार भी जम्मू-कश्मीर के विषयों को विवादित बनाने में जुटे हुए हैं। सबसे अजीब बात यह है कि कुछ लोग जो राज्य के बारे में नहीं के बराबर जानते हैं और कश्मीर घाटी को ही जम्मू-कश्मीर समझते हैं, बड़ी आसानी से जटिल विषयों पर बयानबाजी करते रहते हैं। इसी श्रृंखला में पिछले दिनों जेएंडके के बारे में कुछ राष्ट्रविरोधी वक्तव्य आए।

25 सितंबर को दिल्ली के एक वकील प्रशांत भूषण ने बनारस में मीडिया से बातचीत करते हुए कहा कि कश्मीर से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) को हटा देना चाहिए। सुरक्षा बलों को भी वहां से हटा देना चाहिए ताकि मानवाधिकार का हनन न हो। कश्मीर में जनमत संग्रह कराना चाहिए और यदि वहां के लोग भारत के साथ नहीं रहना चाहते तो उनको अलग होने देना चाहिए। 12 अक्टूबर को उनके चैंबर में हुई अप्रिय घटना के बाद उनका यह बयान लगातार टीवी चैनलों पर दिखाया गया। इसके बाद 13 अक्टूबर को प्रशांत भूषण का एक इंटरव्यू आईबीएन/सीएनएन के राजदीप के साथ यूट्यूब पर डाला गया, जिसमें प्रशांत भूषण ने अपने वक्तव्य में कोई बुराई नहीं होने का दावा किया और जब राजदीप ने उनसे पूछा कि कुछ लोग कश्मीर में जनमत संग्रह की बात को देश विरोधी कार्रवाई कहते हैं तो उन्होंने एक वकील के ढंग से उल्टा सवाल किया कि जवाहर लाल नेहरू ने भी संयुक्त राष्ट्र में कहा था कि भारत कश्मीर में जनमत संग्रह कराएगा तो फिर उनको (नेहरू) देश विरोधी क्यों नहीं कहते?

तकनीकी तौर पर भूषणजी को जवाब दिया जा सकता था पर उनके बयान से आम आदमी और देश के बाहर लोगों में कश्मीर घाटी के नागरिक के बारे में जो संदेश जाता है, वह यकीनन अच्छा नहीं है। उनकी इस दलील का जवाब दिल्ली से तत्काल आना चाहिए था, पर पांच दिन बीतने के बाद भी अभी तक कोई जवाब नहीं आया है। प्रशांत भूषण की दलील थी कि यह उनका निजी विचार है और उनको अपना विचार प्रकट करने का अधिकार है, लेकिन यह भूल गए कि अगर वह सिर्फ एक वकील होते तो कोई उनको सुनाने नहीं आता। चूंकि वह जनलोकपाल आंदोलन से जुड़कर रातोंरात सुर्खियों में आ गए हैं, इसलिए कोई भी बात जो वह सार्वजनिक रूप से कहते हैं, उनकी व्यक्तिगत राय नहीं होगी। उनके बयानों से यकीनन देश का माहौल बिगड़ा है। उनको इस पर खेद जताना चाहिए था जैसा कि उन पर हुए हमले के बाद सबने किया था।

जहां तक सुरक्षाबलों और अफस्पा को हटाने की बात है तो भूषणजी एक अच्छे वकील होने के नाते यह तो समझते होंगे कि अफस्पा-1990 और अशांत क्षेत्र अधिनियम (डीएए) जरूरत के हिसाब से लगाया जाता है न कि लोगों को दबाने के लिए। पर उनके बयान से देश-दुनिया में यह संदेश जाता है कि भारत ने कश्मीर के लोगों को ताकत से दबा रखा है, जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। दूसरी बात यह है कि प्रशांत भूषण जैसे लोग जेएंडके को सिर्फ कश्मीर घाटी समझते हैं, जबकि कश्मीर घाटी से 160 प्रतिशत बड़ा जम्मू कई गुणा बड़ा लद्दाख क्षेत्र है। पर विलय और सुरक्षाबलों के खिलाफ आवाज सिर्फ कश्मीर घाटी के नेताओं की तरफ से उठते हैं।

केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा जो तीन वार्ताकारों की टीम 13 अक्टूबर 2010 को नियुक्त की गई थी, उसने ठीक एक साल बाद 12 अक्टूबर को गृह मंत्री पी. चिदंबरम को अपनी रिपोर्ट सौंप दी है। वार्ताकारों द्वारा मीडिया के सामने कही गई बातों के आधार पर कुछ लोगों ने यह अनुमान लगाया है कि वार्ताकारों ने जम्मू-कश्मीर में सुरक्षाबलों की नियुक्ति और अफस्पा-1990 के विषय में भी अपनी रिपोर्ट में कुछ सिफारिशें की हैं। अगर यह सच है तो इसमें कोई बुराई नहीं है। यह उम्मीद की जा सकती है कि वार्ताकारों ने अपनी रिपोर्ट में यह भी कहा होगा कि किन-किन इलाकों में केंद्रीय सुरक्षाबलों को लगाने की जरूरत नहीं है। अगर ऐसा होगा तो यकीनन वहां से सुरक्षाबलों को हटा दिया जाएगा और अफस्पा का इस्तेमाल नहीं होगा।

अफस्पा पर अनौपचारिक ढंग से दिए गए बयानों ने कुछ लोगों को इस विषय पर बात करने और सरकार का विरोध प्रकट करने का मौका दिया है। कुछ लोगों का कहना है कि प्रधानमंत्री द्वारा बनाए गए वर्किंग ग्रुप जिसके अध्यक्ष उप-राष्ट्रपति हामिद अंसारी हैं, ने भी तीन साल पहले अपनी रिपोर्ट में कहा था कि अफस्पा और डीएए को खत्म कर देना चाहिए। पर ऐसे लोग वर्किंग ग्रुप की रिपोर्ट के उस हिस्से की अनदेखी करते हैं, जिसमें कहा गया है कि जहां सशस्त्र बल की जरूरत नहीं है वहां से इसको हटा देना चाहिए। इसलिए यदि राज्य सरकार ही यह कह देती कि कश्मीर घाटी के नागरिक क्षेत्रों में राष्ट्रीय सुरक्षाबलों और सेना की जरूरत नहीं है तो उनको हटा दिया गया होता। ऐसे इलाकों को डीएए से बाहर कर दिया जाता। ऐसी बातें करने वाले आम आदमी को सिर्फ गुमराह करना चाहते हैं।

16 अक्टूबर 2011 को प्रताप पार्क, श्रीनगर से इंफाल (जहां जवाहर लाल नेहरू अस्पताल में इरोम शर्मिला अफस्पा के विरोध में भूख हड़ताल पर हैं) तक विरोध रैली निकाली गई। इसकी शुरुआत श्रीनगर से जम्मू-कश्मीर और उत्तरी पूर्वी राज्यों से अफस्पा हटाने के लिए की गई थी। मेधा पाटेकर और डॉ. संदीप पांडेय अपने कुछ सहयोगियों के साथ इसे हरी झंडी दिखाने के लिए श्रीनगर आए हुए थे। स्थानीय मीडिया ने अफस्पा विरोधी, सुरक्षाबल विरोधी और स्वतंत्रता समर्थित नारे की रिपोर्टिग की। मेधा पाटेकर ने कहा कि हम सभी प्रकार की हिंसा की निंदा करते हैं और जेएंडके या देश के दूसरे हिस्सों में सैन्य शासन नहीं चाहते हैं। जहां यह कानून प्रचलन में है वहां हत्याएं, गायब होने और मनमाने ढंग से गिरफ्तारियां आम बात है।

इस प्रकार के सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा सुरक्षाबलों पर चाहे गलत ही आरोप क्यों न लगाए गए हों, पूरी दुनिया में गलत संदेश जाता है। इसलिए केंद्र/राज्य सरकार को जेएंडके जैसे राज्य के लोगों के बीच अशांति फैलाने की अनुमति नहीं देनी चाहिए। मेधा और संजीव पिछले 11 वर्षों से कहां थे? वे इंफाल में इरोम शर्मिला के साथ भूख हड़ताल पर क्यों नहीं बैठे? यदि वे अलगाववादियों के लिए इतना ही चिंतित हैं तोग्रामीण क्षेत्रों में जनमत संग्रह और नागरिक क्षेत्रों से सुरक्षाबलों को हटाने के लिए आंदोलन क्यों नहीं छेड़ते?
(लेखक : जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं।)

विश्लेषण/पेज-10
रिपोर्ट के बाद की आशंका
केवल कृष्ण पनगोत्रा
सियासी हलकों और बुद्धिजीवियों से निरंतर संवाद एवं एक साल की गहन दिमागी कसरत के बाद जम्मू-कश्मीर समस्या की भूलभूलैया को केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त वार्ताकारों की टीम ने रिपोर्ट की शक्ल देकर इसी महीने 12 अक्टूबर को गृह मंत्रालय को सौंप दिया। रिपोर्ट अभी सार्वजनिक नहीं हुई है, मगर 63-64 साल की जटिल समस्या पर त्वरित कयासबाजी का होना समस्या की गंभीरता का ही परिचायक है।

इस रिपोर्ट से जिस तरह राज्य के तीनों खित्तों की समस्याएं एवं आकांक्षाएं जुड़ी हुई हैं उसके मद्देनजर समस्या मात्र कश्मीर केंद्रित लोगों से ही संबद्ध नहीं है अपितु इसमें राज्य की गैर कश्मीरी जनता की दावेदारी भी अति महत्वपूर्ण है। इस लिहाज से समस्या मात्र एकमुखी नहीं है। अत: पूरे राज्य की समस्या को मात्र कश्मीर समस्या कहना गलत होगा। यही वजह है कि वार्ताकारों की टीम से पूर्व राज्य के दौरे पर आए सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल ने भी संभवत: राज्य की समस्याओं की जटिलता के दृष्टिगत ही तीन वार्ताकारों को नियुक्त करने की बात की थी ताकि कश्मीर और कश्मीरियत के एकमुखी नजरिये से निकलकर जम्मू और लद्दाख के अलावा कश्मीरी विस्थापित पंडितों, पश्चिमी पाक और गुलाम कश्मीर के रिफ्यूजियों के नजरिए को भी पहचाना जाए। और राज्य के प्रत्येक जिले में जाकर समस्या का समीचीन स्वरूप खोजकर एक सर्वमान्य हल निकाला जाए।

इस काम के लिए वार्ताकारों की टीम को राज्य के 22 जिलों में 700 से ज्यादा प्रतिनिधिमंडलों से मिलना पड़ा। इस दौरान बहस और वार्ताओं का लंबा सिलसिला चला। मैं समझता हूं कि इस दौरान वार्ताकारों ने तीनों खित्तों की समस्याओं, सरकारी स्तर की विसंगतियों और अनियमितताओं के साथ सांस्कृतिक और सामाजिक अंतर और उससे जुड़ी सूक्ष्मता को बेहतर तरीके से जांचा-परखा होगा। यह बात दीगर है कि रिपोर्ट का सार तत्व, शैली और झुकाव कैसा है, मगर यह संतोष की बात है कि देश की जनता पहली बार जम्मू से भेदभाव के मर्म और कश्मीर केंद्रित नजरिए में अंतर और विरोधाभास को कुछ हद तक समझ सकेगी, विशेषत: ये लोग जो सदैव कश्मीर केंद्रित एजेंडे की पैरवी करते हैं। मीडिया आधारित जानकारी के अनुसार रिपोर्ट में वार्ताकारों ने जम्मू के साथ भेदभाव को मान्यता दी है।

यही वजह है कि रिपोर्ट में तीनों खित्तों के लिए क्षेत्रीय परिषदों की संस्तुति को भी शामिल बताया जा रहा है। इससे यह भी जाहिर सा लगता है कि लद्दाख को केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा और जम्मू को अलग राज्य बनाने की मांगों के पीछे गैर बराबरी के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक आधार भी मौजूद हैं। इस बात की भी पूरी संभावना बन रही थी कि राज्य में कहीं तेलंगाना जैसा आंदोलन न छिड़ जाए। इस आशंका के मद्देनजर भी किसी ऐसी टीम का विस्तृत दौरा और तीनों खित्तों की आकांक्षाओं की बात करना और एक संतुलित नजरिया जरूरी हो रहा था। अभी यह कहना मुश्किल है कि रिपोर्ट में की गई सिफारिशों में वार्ताकारों की कैसी दृष्टि झलकती है, मगर अलगाववादियों से बात न होने का मलाल पालने वाले वार्ताकारों के मुखिया को इस बात का मलाल भी होना चाहिए कि अलगाववादी सरकार के इस प्रयास की धज्जियां रिपोर्ट आने से पूर्व ही उड़ा चुके हैं।

बकौल, दिलीप पडगांवकर रिपोर्ट में राज्य की भलाई को केंद्र में रखा गया है और राज्य में स्थायी शांति बहाली का पूरा रोडमैप दिया गया है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि कश्मीर केंद्रित अलगाववादी सियासतबाजों से इतर जम्मू आधारित सियासी पार्टियां और गैर सियासी संगठन रिपोर्ट आने के बाद प्रतिक्रिया की बात कर रहे हैं। कोई स्वायत्तता का विरोधी हो सकता है तो कोई अनुच्छेद 370 का, मगर हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे कश्मीर केंद्रित अलगाववादी धडे़ तो पहले ही रिपोर्ट को खारिज कर चुके हैं। इससे स्पष्ट होता है कि वार्ताकारों की रिपोर्ट और सिफारिशें किसी भी समस्या का हल निकालने में विफल हो सकती हैं। इस रिपोर्ट और अब तक की सबसे भारी कसरत का हश्र भी वैसा ही हो सकता है जैसा 64 वर्ष के कश्मीर समस्या के हल को लेकर अनेक प्रयासों का हुआ है।

मीरवाइज मौलवी उमर फारूक तो पहले ही साफ कर चुके हैं कि कश्मीर समस्या का समाधान भारत और पाकिस्तान के संविधान के दायरे से बाहर ही तलाशा जा सकता है जबकि वार्ताकार संविधान के दायरे से बाहर नहीं जा सकते। मीरवाइज तो 14 अगस्त 1947 से पहले वाले जम्मू-कश्मीर की बात करते हुए संयुक्त राष्ट्र द्वारा पारित प्रस्ताव को अविलंब लागू करने की बात कर रहे हैं। अलगाववादी नेता ने साफ किया है कि भारतीय संविधान के भीतर समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता।

रिपोर्ट सार्वजनिक होने के बाद अब अगर पुन: जम्मू संभाग की जनता, लद्दाखी, विस्थापित पंडित या विभिन्न शरणार्थी समूह या फिर कश्मीरी जनता संतुष्ट नहीं होती तो सरकार को अपनी चिरपरिचित कश्मीर नीति और राज्य की सियासत के मूल संवैधानिक आधारों को बदलना होगा। जम्मू संभाग की जनता के साथ-साथ लद्दाखियों, विस्थापित कश्मीरी पंडितों और विभिन्न शरणार्थी समूहों के मुतालबों पर ध्यान देना होगा और इस थ्योरी पर भी काम करना होगा कि कहीं 64 साल पुरानी समस्या का समाधान जम्मू संभाग, लद्दाख, विस्थापित कश्मीरी पंडितों और रिफ्यूजियों की मांगों में तो नहीं छिपा है? रिपोर्ट पर अलगाववादियों की प्रतिक्रिया से तो यही लग रहा है कि उन्हें भारत राष्ट्र और उसकी संवैधानिक व्यवस्था के दायरे में कुछ भी मंजूर नहीं। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि जम्मू-कश्मीर पर केंद्र का अस्पष्ट और ढुलमुल रवैया इस राज्य की सियासत को भूलभूलैया की स्थिति तक ले आया है और रास्ता बुलंद इरादों से ही निकलने वाला है।
(लेखक : जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं।)

Issue/Page-12
Accession of J&K to India is complete 
Mahesh Kaul  
The partition of the Indian subcontinent should be seen in the perspective of the Anglo-Muslim alliance that was forged by the British to retain their strategic foothold in the Indian subcontinent to have an access to the Russian activities and the appreciable influence on the Central Asian region mainly in terms of oil reserves.
As the oil reserves were in the domain of the Central Asian and Middle Eastern Islamic countries and regions so the British encouraged the separatist Muslim sentiment in India to impress the Muslim World and at the same time kept the nationalist movement for the Indian independence under check.,which the British viewed as the "Hindu Nationalist"upsurge.
Kashmir problem is the outcome of the "Great Game" which the British played to keep the separatist Muslim element alive to keep its stakes high even though -the World War II had changed the dynamics of the strategic world order.

This move was further meant to make the northern Indian borders weak and pregnable forever and result is the present Kashmir crisis. It was a clear moves to sow the seeds of the balkanization of the Indian Union. The process of maintaining the checks and applying brakes on the Indian nationalists were already devised by the British well before 1947 and M.A. Jinnah was a British prop to materialize the separatist Muslim claims for the partition of India. These ploys and what was going on in the British mind has been revealed by Krishna Menon, who was close to the British circles, in the following words to Lord Mountbatten well before the partition on 14June 1947,"Is this frontier of (the northwest of India abutting Afghanistan & Iran) still the hinterland of the Imperial Strategy? Does British still think in terms of being able to use this territory and all that follows from it?
There is considerable amount of talking in this way; and if Kashmir, for one reason or another, choose to be in Pakistan, that is a further development in this direction .I do not know of British policy in this matter .I do not know it whether you know it either. But if this be the intent, this is tragic…As it becomes more evident ,the attitude of India would be resentful and Britain's' hold on Pakistan would not improve it."(pp.15-16,The Untold Story of India's Partition) Menon was pointing towards the British strategy of using the West Pakistan as a base to stop the Soviet expansion towards the Indian Ocean, Afghanistan and the Persian Gulf and secondly he implied that was the British policy so "subterranean "that even the Viceroy was ignorant about it?
These intrigues shaped the Kashmir problem and result is the present state of chaos and desperation. Accession of the J&K state to the Indian Union needs to be understood by keeping in mind the traits of the British and the separatist Muslim mindset of the Muslim League nurtured by the imperial policy makers to divide India to suit their strategic hold on the Sub continent.
There is a false premise on which the J&K's Accession to India is always understood by certain vested interests"That the Radcliffe Boundary Commission award giving Gurdaspur District to the Indian East Punjab was announced on august17, 1947,two days after the new Dominions of India and Pakistan had already come into being."
It is totally absurd. The demarcation of the areas that would go to Pakistan was already devised by the British well before 1947,the partition year. Its blueprint was already prepared by the Viceroy Lord Archbald Wavell in 1946 to forge an alliance with the Jinnah's Muslim League,the foundation of this unholy alliance was laid in 1940-41 by his predecessor Linlithgow to project M.A.Jinnah as the sole spokesman of the "Muslim India" The same blueprint was kept under cover till the opportune time came in 1947 for the British withdrawal .It was deliberately kept in abeyance so that the finger of suspicion for the vivisection of India is not raised on the British Empire.
Narender Singh Sarila, who was an ADC to the last Viceroy, Lord Louis Mountbatten was a witness to the British decisions and policy. Has observed candidly in his book The Untold Story of India's Partition that "secret archives cannot be depended upon to reveal the entire picture. Many decisions that are taken by government are never committed on paper or,if so committed ,are not revealed ,even after the probationary period for keeping them under wraps has lapsed.For instance, Lord Mountbatten's reports to London ,sent after 15 August,1947. While he was the governor-general of India,have not been unsealed even after almost sixty years,thereby depriving us information surrounding British policy on Kashmir "."(pp.168,The Untold Story of India's Partition) Lord Wavell was constantly in touch with the Secretary of State in London.His blueprint for the partition was being taken seriously in London .

On 29 January 1946,Secretay of State revealed the British policy by stating in a telegram to Wavell that"It would help me to know when I may expect to receive your recommendation as regards definition of genuinely Muslim areas if we are compelled to give a decision to this (Partition)"."(pp.194-195,The Untold Story of India's Partition) Gurdapur district was not incorporated into the Indian Union after the partition, Wavell's partition plan forwarded to London on 6-7 February 1946 makes it clear as to what was in store for millions of people of the Indian subcontinent.,His partition plan which was implemented by his successor Lord Mountbatten reads"1)If compelled to indicate demarcation of genuinely Moslem areas I recommend that we should include (a) Sind,North-West Frontier Province, British Baluchistan and Rawalpindi,Multan and Lahore Divisions of Punjab, Less Amritsar and Gurdaspur districts…… 2)In the Punjab the only Moslem -majority district that would not go into Pakistan under demarcation is Gurdaspur.Gurdaspur must go with Amritsar for geographical reasons and Amritsar being the sacred city of Sikhs must stay out of Pakistan……"."(pp.195,The Untold Story of India's Partition) Therefore it becomes clear that the decision regarding the Gurdaspur district was taken well before partition and the argument regarding its inclusion in the Indian Union after the partition does not hold any ground as it is far from the historical fact made amply clear by Lord Wavell's partition plan.

So the point raised by the fifth columnists and other left liberal intellectuals that "Maharaja Hari Singh could not accede to the newly created Indian Dominion and the Indian Prime Minister, Pt.Jawaharlal Nehru could not accept such a request on or before August 15,1947 because under the provision of July 1947 Indian Independence Act passed by the British Parliament, Pathankot tehsil at that time, the only  geographical link of J&K, was located in Gurdaspur District of west Punjab which had been notified under the aforesaid Act as part of Pakistan " is the falsification of the reality. Another observation by these individuals that "The Maharaja Sahib had therefore no other option than to think of Standstill Agreement with both new Dominions of India and Pakistan and making Jammu and Kashmir an Eastern Switzerland of Asia " is another misinterpretation of constitutional realities and the facts.

As the India under the British was composed of the British India and the Princely states which accepted the British Paramountcy, the rulers of these states were thus bound to accede to one of the Dominions and there was no provision for the Independent existence. The celebrated political scientist Prof.M.K.Teng in the preface to his book titled Kashmir the Myth of Autonomy has cleared this misconception regarding the accession of the J&K and other princely states to the Indian Union.He writes " the partition of India did not envisage the accession of the Princely states to the Dominion of India and Pakistan on the basis, the British India was divided.

The partition of India left the states out its scope and the transfer of power accepted the lapse of the Paramountcy : the imperial authority the British exercised over the States .The accession of the states to India was the culmination of a historical process which symbolized the unity of the people in the British India and the Indian States".(pp.VII,Kashmir-Myth of Autonomy) It is a populist view in order to cover the truth regarding the accession that Maharaja Hari Singh was trapped and was hence indecisive to accede to India .To clear this misconception further Prof..M.K.Teng writes ,"In 1947 ,when Jammu and Kashmir acceded to India ,the ruler of the state ,Maharaja Hari Singh signed the same standard form of the Instrument of Accession ,which the other major Indian states signed .

The accession of the state to India was not subject to any exceptions or pre-condition to provide for any separate and special constitutional arrangements for the state .Neither Nehru ,nor Patel gave any assurances to Hari Singh or the National Conference leaders that J&K would be accorded a separate and independent political organization on the basis of the Muslim Majority character of its population."(pp.VII,Kashmir-Myth of Autonomy) Thus the above analysis makes it crystal clear that the accession of the Jammu and Kashmir State to the Indian Union is complete in the constitutional manner.  And the role played by Maharaja Hari Singh is that of a true patriot and democrat.

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सम्पादक : आशुतोष   सम्पादकीय सहयोग : पवन कुमार अरविंद 
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आतंरिक प्रचार हेतु जनहित में प्रसारित।  E-mail : vitastajk@gmail.com
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