Saturday 24 December 2011

वर्ष : 1, अंक : 7, नई दिल्ली, दिसम्बर (1 व 2), कुल पृष्ठ : 18

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समस्या के समाधान तक उठाएंगे कश्मीर मुद्दा
नागपुर। जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र के तत्वावधान में विगत दिनों (1920 नवम्बर) जम्मू-कश्मीर : तथ्य, समस्याएं एवं समाधानविषयक कार्यशाला का आयोजन किया गया। इसमें देश के विभिन्न प्रांतों से आये प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह सुरेश जोशी उपाख्य भैयाजी ने कहा कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, संघ के स्वयंसेवकों के मन में इसको लेकर कोई अलग भाव नहीं है। कश्मीर हमारा है, संघ की शाखा में स्वयंसेवकों के मन में इस भाव का जागरण बहुत पहले से ही होता आया है।

उन्होंने कश्मीर के भावी परिदृश्य के संदर्भ में कहा, “जो भूत में था वही परिदृश्य है, वर्तमान में वही रहेगा, अलग नहीं। वर्तमान में जो है उसके कारण कुछ प्रश्न है। इसके संदर्भ में भावी परिदृश्य यही है कि जो प्रारम्भ से चला आ रहा है उसी दृष्टिकोण को देश ही नहीं बल्कि दुनिया के समक्ष हम सिद्ध करेंगे, हमारा यही कार्य है। इसके परिदृश्य को लेकर धारणा स्पष्ट है, इसमें दोराय नहीं है।

भैयाजी ने कहा, “कश्मीर समस्या के समाधान के लिए देश के रणनीतिकारों को चाहिए कि वे क्षणिक राजनीतिक स्वार्थ की बजाए प्रामाणिकता से देशहित को ध्यान में रखकर रणनीति बनाएं। ऐसा नहीं होने पर उनकी प्रामाणिकता और देशभक्ति पर प्रश्नचिन्ह उठेंगे ही।उन्होंने कहा कि समस्या के मूल में जाकर, उसको समझकर, समस्या निवारण के लिए ठोस योजना बनायी जाए। इस भाव को लेकर भारत को खड़ा होना पड़ेगा। ऐसे रणनीतिकार भारत के चाहिए। इस भाव को प्रबल करने वाले लोग सत्ता में बैठने चाहिए। देशहित के साथ समझौता करने वाली राजनीतिक शक्तियों को लोकतांत्रिक तरीके से परास्त करते हुए उनके सारे षड्यंत्रों का पर्दाफाश करने की आवश्यकता है।

सरकार्यवाह श्री जोशी ने कहा, “लोकतंत्र में सत्ता की वास्तविक ताकत जनता में निहित होती है, इसलिए हम जनशक्ति का जागरण करेंगे। कश्मीर समस्या के समाधान होने तक हम बार-बार यह मुद्दा उठाते रहेंगे। यह समस्या जब तक हल नहीं होती, यह प्रश्न बार-बार उठता रहेगा। इसके लिए हम निरंतर प्रयास करेंगे।” 
  
आरएसएस के अखिल भारतीय कार्यकारिणी सदस्य राम माधव ने कहा कि जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में कोई विवाद नहीं है, लेकिन कुछ लोग इसे एक समस्या मानकर सौदा कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि इसको समस्या मानकर ही अब तक इसके हल के लिए कई समितियों का गठन किया गया और इन समितियों ने इसके समाधान के लिए विभिन्न सिफारिशें भी कीं।

उन्होंने कहा कि भारतीय संसद में वर्ष 1994 में पारित सर्वसम्मत प्रस्ताव के अनुसार, यह कोई समस्या नहीं है बल्कि भारत का अविभाज्य अंग है, समस्या केवल पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) को वापस लेने का है, और यह भी राजनीतिकों के अपने निहित स्वार्थ के कारण व्युत्पन्न हुई है।

अखिल भारतीय कार्यकारिणी सदस्य अरूण कुमार ने जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में पंडित नेहरू की प्रमुख गलतियों पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि पाकिस्तानी सैनिकों के घुसपैठ के बाद नेहरू द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ में कश्मीर मुद्दे को ले जाना; जबकि हमारी सेना उन आक्रांताओं पर भारी पड़ रही थी, सेना की वापसी के बाद जनमत संग्रह का मुद्दा उठाना आदि नेहरू की प्रमुख गलतियां रहीं।     

जम्मू-कश्मीर बीएसएफ के पूर्व महानिरीक्षक पीसी डोगरा ने कहा कि भारत के लोग किसी सूरत में कश्मीर को देश से अलग होने की बात सोच भी नहीं सकते। कोई भी देश तभी तक अखंड बना रह सकता है जब तक कि उसकी सीमाएं अखंड बनी रहें। उन्होंने कहा कि कश्मीर समस्या केवल घाटी के सुन्नी मुस्लिमों से जुड़ी है जिनका प्रतिनिधित्व शेख अब्दुल्ला करते थे। शेख ने राज्य की कमान संभालते समय जनमत संग्रह की मांग खारिज कर दी थी लेकिन पंडित नेहरू ने जोर देकर इस विषय को पुन: उठाया। 

कश्मीर विश्वविद्यालय के पूर्व प्राध्यापक डॉ. काशीनाथ पंडिता ने कहा कि केंद्र सरकार द्वारा कश्मीर को सेकुलरिज्म के प्रतीक के रूप में प्रचारित किया जाता है लेकिन प्रश्न यह है कि अब वहां सेकुलरिज्म कहां है। विगत 20 वर्षों से जारी आतंकवाद ने इसको समाप्त कर दिया। उन्होंने कहा कि आतंकी प्रशिक्षण के लिए मशद (ईरान) भेजे जाने वाले खुमैनी क्रांति के कश्मीरी मुसलमानों के मुताबिक, सेकुलरिज्म और नेशनलिज्म में कोई अंतर नहीं था। कश्मीर में सुन्नी कट्टपंथी समूहों के विकास में सउदी अरब सहयोग दे रहा है।

जम्मू-कश्मीर मामलों के जानकार दयासागर ने कहा जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय 26 अक्टूबर 1947 को हुआ था। विलय पत्र पर महाराजा हरि सिंह ने हस्ताक्षर किया था। विलय का अधिकार राज्यों के राजाओं को प्राप्त था। इसलिए राज्य का भारत में विलय अंतिम है। इसको लेकर कोई विवाद नहीं है। लेकिन कुछ लोग अपने निहित स्वार्थों के कारण विलय पर सवाल उठा रहे हैं।

उन्होंने कहा कि राज्य के अधिकांश लोगों का मानना है कि कश्मीर कोई समस्या नहीं है। जनमत संग्रह की मांग करने वालों में अधिकांश मुस्लिम ही हैं और इस समुदाय का ही मानना है कि यह एक विवादित मुद्दा है। उन्होंने कहा कि केवल कश्मीर घाटी की आवाज को पूरे जम्मू-कश्मीर की आवाज कैसे कहा जा सकता है।

कार्यशाला में मुख्यरूप से उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता टीएन राजदान, वितस्ता के सम्पादक आशुतोष, कश्मीर के भाजपा नेता कुलदीप अग्निहोत्री सहित देश के विभिन्न प्रदेशों से सैकड़ों प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। इनमें केरल से 3, तमिलनाडु से 6, कर्नाटक से 5, आंध्रप्रदेश से 8, महाराष्ट्र से 12, गुजरात से 6, मध्यप्रदेश से 11, छत्तीसगढ़ से 7, राजस्थान से 6, दिल्ली से 10, हरियाणा से 5, पंजाब से एक, हिमाचल प्रदेश से 5, उत्तर प्रदेश से 2, पश्चिम बंगाल से 14 और जम्मू-कश्मीर से 7 प्रतिनिधि उपस्थित थे।


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फई ने कबूला जासूसी का जुर्म, पाक बेनकाब
वाशिंगटन। अमेरिका में बसे कश्मीरी अलगाववादी नेता गुलाम नबी फई ने पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के लिए जासूसी करने का जुर्म विगत दिनों (7 दिसम्बर) कबूल लिया। वाशिंगटन स्थित कश्मीरी अमेरिकन काउंसिल (केएसी) के प्रमुख फई का कबूलनामा आईएसआई के लिए करारा झटका है।

62 वर्षीय फई ने वर्जीनिया की जिला अदालत के समक्ष स्वीकारा कि उसने अवैध रूप से अमेरिकी सांसदों के बीच लॉबिंग कर कश्मीर पर अमेरिकी नीति को प्रभावित करने की कोशिश की। इसके लिए आईएसआई से सालाना बजट मिलता था। यह राशि 80 हजार डॉलर से 100 हजार डॉलर के बीच होता था। फई को 9 मार्च को सजा सुनाई जाएगी।

फई ने कहा कि वह आईएसआई अधिकारियों के सीधे संपर्क में था। उसने अभियोजन पक्ष के इस आरोप से सहमति जताई कि 1990 से 2011 के बीच आईएसआई से उसे 35 लाख डॉलर मिले। उसने बताया कि कश्मीर मुद्दे पर अमेरिकी सांसदों के बीच लॉबिंग के लिए आईएसआई से उसे बाकायदा यह निर्देश मिलते थे कि उसे क्या बोलना है और क्या लिखना है।

अमेरिकी अटॉर्नी मैकब्राइड ने कहा कि फई ने पिछले 20 साल में गुपचुप तरीके से पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी से लाखों डॉलर लिए और इस बारे में अमेरिकी सरकार से झूठ बोलता रहा। आईएसआई के भाड़े के सदस्य के रूप में वह अपने पाकिस्तानी आकाओं के निर्देश पर अमेरिकी सांसदों से मिला, हाई-प्रोफाइल सेमीनार आयोजित किए और वाशिंगटन में नीति निर्धारकों के बीच कश्मीर मुद्दे को हवा दी। 

फई जिन आईएसआई अधिकारियों के सम्पर्क में था उनमें 1990 के दशक में कश्मीरी मामलों को देखने व ब्रिगेडियर अब्दुल्ला खान नाम से पहचाने जाने वाला जावेद अजीज खान, कश्मीर के आतंकी संगठनों से जुड़ा और 2008 के अंत में आईएसआई के सुरक्षा निदेशालय का प्रमुख मेजर जनरल मुमताज अहमद बाजवा, लेफ्टिनेंट कर्नल तौकीर महमूद बट और सोहेल महमूद भी शामिल हैं। फई ने अमेरिकी अदालत को बताया कि उसके द्वारा दी गयी सभी जानकारियां सत्य हैं।

एक रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिका में राजनीतिक लॉबिंग का कारोबार बड़ा है जो कई लोगों को नौकरियां देता है। वाशिंगटन में 20 से 40 हजार लॉबिस्ट हैं। इनमें अधिकतर वे लोग हैं जो चुनाव हारने या राजनीति छोड़ने के बाद लॉबिस्ट बन जाते हैं। जहां तक फई की बात है तो उनके पास आईएसआई से धन आता था। वॉशिंगटन अजीब सा शहर है। यहां दुनिया के कई कोनों से लोग आते हैं। वहां इतने लॉबिस्ट हैं कि किसी को आश्चर्य नहीं होता। ऐसे माहौल में कश्मीर का विषय बहुत छोटा है। हालांकि भारत-पाकिस्तान के लिए यह बहुत बड़ा विषय है।

लॉबिंग के लिए लोग नेताओं के राजनीतिक अभियानों के लिए धन देते हैं। अमेरिका में लॉबिंग के लिए कड़ा कानून है लेकिन लॉबिस्टों ने नियम तोड़ने के तरीके ढूंढ़ रखे हैं। आप किसी थिंकटैंक से लेख लिखवा सकते हैं। संपादकों के नाम नकली चिट्ठियां लिखवा सकते हैं। जैसे पाकिस्तान ने टेक्सस की एक कंपनी को लॉबिंग के लिए रखा था। उनका काम अखबारों पर निगाह रखना या पाक पर लगे आरोपों का जवाब देने के लिए चिट्ठी लिखवाना था। रिपोर्ट के मुताबिक, पाकिस्तान ने बीते एक दशक में लॉबिंग के लिए बहुत धन खर्च किया है। एक वक्त था जब पाकिस्तान के लिए सात लॉबिस्ट कंपनियां काम करती थीं, जबकि भारत के लिए एक या दो। इसके बावजूद वाशिंगटन में भारत की छवि बहुत अच्छी है, लेकिन पाकिस्तान की छवि उम्मीद के मुताबिक काफी खराब है।

फई ने दावा किया कि बीते दो दशकों के दौरान उसने भारत सरकार के कई मंत्रियों से नियमित तौर पर मुलाकात की थी। यही नहीं अमेरिका स्थित भारतीय दूतावास से भी उसके संपर्क हैं। उसने बताया कि चंद्रशेखर, नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सरकार में शामिल कई मंत्रियों से वह मिल चुका है। हालांकि फई ने उन मंत्रियों का नाम बताने से इंकार कर दिया।

फई ने कहा कि पिछले 20 साल के दौरान संयुक्त राष्ट्र महासचिव के पूर्व वरिष्ठ सलाहकार यूसुफ बक, व‌र्ल्ड कश्मीर फ्रीडम मूवमेंट के अध्यक्ष दिवगंत अयूब ठाकुर से भी मिल चुका है। भारतीय अधिकारियों से मिलना भारत से संपर्क में रहने की रणनीति का हिस्सा था। उसने बताया कि बीते 11 साल में उसने भारतीय दूतावास के 4 अलग-अलग अफसरों से मुलाकात की थी। हालांकि, वाशिंगटन स्थित भारतीय दूतावास ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।

फई ने बताया, “मैं 1999 से भारतीय दूतावास के अधिकारियों से समय-समय पर मिलता रहा हूं। मार्च 2006 से हम हर महीने मिलते थे और कई बार महीने में दो बार भी मुलाकात हो जाती थी। कश्मीर पर हम जब भी संगोष्ठी अथवा सम्मेलन का आयोजन करते थे तो भारतीय राजदूत को बतौर वक्ता उपस्थित होने का निमंत्रण जरूर भेजते थे। एक भारतीय अधिकारी ने मुझे इस साल 18 अथवा 19 जुलाई को फोन किया था। उसी दिन मेरी गिरफ्तारी हुई थी। उसने वायसमेल के जरिये संदेश छोड़ा था कि हमें जरूर मिलना चाहिए। इस संदेश को मैं 10 दिन बाद सुन सका क्योंकि इतने दिनों बाद ही मैं रिहा हुआ था।

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सुरक्षा पर खतरनाक खेल खेल रहे हैं उमर
नई दिल्ली/जम्मू। जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्सों से अफस्पा हटाने के मुद्दे पर राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी के अलावा सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति (सीसीएस) के अन्य सदस्यों- गृह मंत्री पी. चिदंबरम, वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी और रक्षा मंत्री एके एंटनी से मुलाकात कर चुके हैं। इस मुद्दे पर उमर ने थलसेना अध्यक्ष जनरल वी.के. सिंह से भी मुलाकात की है। लेकिन उमर को अपने अभियान में सफलता नहीं मिल सकी है। 

विगत दिनों प्रधानमंत्री डॉ. सिंह से मुलाकात के बाद उमर ने कहा था कि प्रधानमंत्री ने उनकी बात को गौर से सुना। हालांकि प्रधानमंत्री या गृहमंत्री ने उन्हें क्या भरोसा दिलाया, उमर ने कुछ नहीं बताया। मुलाकात के दौरान उमर ने याद दिलाया कि करीब एक साल पहले सीसीएस ने जो फैसला किया था, राज्य सरकार उसी को आगे बढ़ाना चाहती है। हालांकि, प्रधानमंत्री डॉ. सिंह ने 17वें दक्षेस सम्मेलन से लौटते हुए विशेष विमान में संवाददाताओं से कहा था, “मैं स्थितियों पर सचेत हूं। सुरक्षा से जुड़े सभी लोगों और सुरक्षाबलों के प्रबंधन से संबंध रखने वालों को बैठकर तटस्थ भाव से इस पर विचार विमर्श करना चाहिए।

सेना के विशेषाधिकार कम करने का विरोध कर रहे रक्षा मंत्री एंटनी ने संवेदनशील मसले पर किसी भी जल्दबाजी को अनुचित करार देते हुए उमर को धैर्यपूर्वक आगे बढ़ने की सलाह दी। एंटनी ने कहा कि इस संबंध में कोई भी फैसला जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री के नेतृत्व में एकीकृत कमान को करना है। उन्होंने कहा कि सीसीएस ने जम्मू-कश्मीर से अफस्पा को आंशिक रूप से हटाने के फैसले को एकीकृत कमान के लिए छोड़ने का निर्णय गत वर्ष ही ले लिया था। 

सरकार में अफस्पा पर मतभेद के चलते कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्व में विगत दिनों कोर कमेटी की बैठक भी हुई लेकिन कोई निर्णय नहीं लिया जा सका। लेकिन सूत्रों का कहना है कि केंद्र ने उमर को साफ कर दिया है कि अफस्पा पर साल भर तक कोई विचार नहीं किया जाएगा। विदित हो कि गृह मंत्रालय अफस्पा को हटाने के पक्ष में है वहीं सेना और रक्षा मंत्रालय इसका पुरजोर विरोध कर रहे हैं। लेकिन उमर का कहना है कि राज्य के अशांत क्षेत्रों में अमन-चैन कायम हुआ है। पर्यटन उद्योग में भारी उछाल आया है। इस वर्ष अक्टूबर तक प्रदेश में करीब 13 लाख पर्यटक आ चुके हैं। इसके मद्देनजर अफस्पा को कुछ क्षेत्रों से हटाया जाना चाहिए। लेकिन 9 नवम्बर को मुख्यमंत्री उमर की अध्यक्षता में हुई एकीकृत कमान की बैठक में सेना ने अफस्पा पर अपना रुख साफ कर दिया। सेना ने उमर के तर्क को खारिज करते हुए कहा कि राज्य के हालात इतने भी नहीं सुधरे हैं कि विशेषाधिकार को हटाया जाये।

सेना के उत्तरी कमान के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल केटी परनायक ने का कहना है, “अफस्पा हटाने से न सिर्फ आतंक निरोधी अभियान प्रभावित होगा बल्कि राज्य की ठीक हो रही विधि व्यवस्था पर भी प्रतिकूल असर होगा। अभी हालात अफस्पा हटाने लायक नहीं हैं। इसके बिना सेना के अभियान प्रभावित होंगे। यहां सेना देश और जनता की सुरक्षा के लिए है। कुछ इलाकों से अफस्पा को बहाल हो रही विधि व्यवस्था के नाम पर हटाया जाता है तो उससे अन्य इलाकों में सेना व अन्य एजेंसियों का कामकाज प्रभावित होगा।

परनायक ने कहा कि इस वर्ष गर्मियों में पूरी तरह शांति रही है, लेकिन यह अफस्पा हटाने का पैमाना नहीं हो सकता। अफस्पा हटाने का फायदा आतंकियों और उनके आकाओं व समर्थकों को होगा, आम आदमी को नहीं। जहां कहीं भी ज्यादती की शिकायत मिली, सेना ने संबंधित अधिकारियों व जवानों के खिलाफ कठोर कार्रवाई करते हुए उन्हें दंडित किया है।

वहीं, पूर्व गृहमंत्री एवं भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने भी अफस्पा हटाने की मांग का विरोध किया है। उन्होंने कहा कि ऐसा कुछ भी नहीं किया जाना चाहिए जिससे सशस्त्र बलों की स्थिति कमजोर हो। उन्होंने कहा- इस कानून के मणिपुर से हटाए जाने का मामला बनता है, इस पर विचार किया जा सकता है। जहां तक जम्मू-कश्मीर की बात है तो मैं नहीं समझता हूं कि इस कानून को वहां से हटाए जाने की जरूरत है। ऐसा कुछ भी नहीं किया जाना चाहिए जो सशस्त्र बलों की स्थिति को कमजोर करता हो।

राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष एवं पूर्व कानून मंत्री अरुण जेटली का मानना है- अफस्पा के तहत सुरक्षा बलों को यह कवच प्राप्त है कि केंद्र सरकार की अनुमति के बगैर उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं की जा सकती। अगर यह अधिनियम हटा ली जाती है तो राजनीतिक निहित स्वार्थों के कारण अ‌र्द्धसैनिक बलों और सशस्त्र बलों के जवानों के खिलाफ अनेक मामले दर्ज कर लिए जाएंगे। इससे जवानों का अलगाववादी समूहों के खिलाफ कार्रवाई करने का मनोबल टूट जाएगा। जब सुरक्षा बल इस कानून के प्रावधानों को जम्मू-कश्मीर से हटाने के पक्ष में नहीं है तो राजनीतिक निहित स्वार्थों के कारण इस दलील को स्वीकारने के खतरनाक नतीजे निकलेंगे कि इस कानून को केवल कुछ भागों तक ही सीमित कर देना चाहिए। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री के लिए राजनीतिक रूप से यह अधिक विवेकपूर्ण होगा कि ऐसे समय अफस्पा पर बहस न छेड़े जब हालात इस कानून को लागू रखना जरूरी बता रहे है।

पूर्व रक्षा राज्यमंत्री प्रो. चमनलाल गुप्ता ने अफस्पा हटाने की मांग को खतरनाक करार देते हुए कहा कि इसकी कीमत राज्य के साथ देश को भी चुकानी पड़ेगी। नेशनल कान्फ्रेंस व कांग्रेस अपने वोट बैंक के लिए इसे मुद्दा बना रही हैं। उमर को लगता है कि राज्य में वास्तव में हालात सामान्य हो चुके हैं तो सबसे पहले उन्हें अपनी सुरक्षा में कटौती करनी चाहिए। प्रो. गु्प्ता ने इस मुद्दे पर राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल से हस्तक्षेप करने की अपील की।   

फिलहाल चाहे जो हो लेकिन सूत्रों का कहना है कि सेना ने जम्मू में विगत दिनों (9 नवम्बर) हुई एकीकृत कमांड की बैठक के बाद केंद्र को एक रिपोर्ट सौंपी है। इसमें कहा गया है कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान में बदलते परिदृश्य के चलते राज्य में ऐसी ढील घातक हो सकती है। सेना को अंदेशा है कि अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना के घटते ही पाकिस्तान, कश्मीर में हिंसा शुरू कर सकता है। फरवरी के बाद बर्फ पिघलने की सूरत में घुसपैठ बढ़ने और अलगाववादियों की ओर से हिंसा भड़काने की आशंका का जिक्र भी रिपोर्ट में किया गया है। शायद इस रिपोर्ट का ही असर है कि दिल्ली मिलने आये उमर को खाली हाथ लौटना पड़ा। हालांकि, अफस्पा हटाने को लेकर जल्दबाजी में कोई फैसला संभव नहीं है। रक्षामंत्री एंटनी ने इस बारे में बातचीत और विचार-मंथन जारी रखने का भरोसा उमर को दिया, लेकिन इस फैसले को किसी समय सीमा में बांधने से साफ इंकार किया। (वितस्ता ब्यूरो)

अफस्पा हटाने के बारे में फैसला नहीं : केंद्र        
नई दिल्ली। केन्द्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर में लागू अफस्पा को हटाने के संबंध में कोई आखिरी निर्णय नहीं किया है। गृह राज्यमंत्री जितेन्द्र सिंह ने विगत दिनों (23 नवम्बर) राज्यसभा को बताया कि अफस्पा सीमापार से सतत जारी आतंकवाद को रोकने के लिए लागू किया गया था। इस कानून को जम्मू-कश्मीर से हटाने के लिए फिलहाल कोई निर्णय नहीं किया गया है। सिंह ने प्रकाश जावडेकर, तरुण विजय, वैष्णव परीदा और डी. राजा के प्रश्न के लिखित उत्तर में बताया कि सुरक्षा व्यवस्था को प्रभावित करने वाले मामलों के संबंध में बुनियादी स्तर पर स्थिति का मूल्यांकन करने तथा केन्द्र से संबंधित राज्य सरकारों और सुरक्षा बलों के बीच व्यापक विचार विमर्श करने के बाद ही निर्णय किया जाता है।


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सेना के मनोबल के लिए अफस्पा जरूरी
नई दिल्ली/जम्मू। जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्सों से सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा) को हटाने पर बहस एवं राजनीतिक विवाद पिछले एक महीने से जारी है। राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और अब केंद्रीय मंत्री फारूक अब्दुल्ला भी इस अधिनियम को हटाने की पैरवी कर रहे हैं। यह कानून सेना और अ‌र्द्धसैनिक बलों को अशांत घोषित किए गए क्षेत्रों में आतंकवाद आदि से निपटने के लिए विशेष अधिकार प्रदान करता है।
अब्दुल्ला पिता-पुत्रों का कहना है कि राज्य के जिन भागों में अब शांति कायम हो चुकी है और आतंकी घटनाएं लगभग बंद हो चुकी हैं, वहां से अफस्पा को हटा देना चाहिए। मुख्यमंत्री इस काम के लिए राजनैतिक अभियान की मंशा दर्शाते नजर आ रहे हैं मानो यह उनके लिए राजनैतिक प्रतिष्ठा का मुद्दा हो। राजनैतिक प्रतिष्ठा के चक्रव्यूह में इस मुद्दे में इस कदर आकंठ डूब गए हैं कि उनके लिए राज्य के शेष मुद्दे अधिकतर गौण होते जा रहे हैं। अफस्पा से इतर बेरोजगारी और भ्रष्टाचार ऐसे मुद्दे हैं जिनका सीधा वास्ता राज्य सरकार से है। बेरोजगारी और भ्रष्टाचार आर्थिक व सामाजिक मुद्दे हैं, राजनीतिक नहीं। इनका सीधा संबंध नागरिक समाज से है जबकि प्रतिरक्षा और आंतरिक सुरक्षा सीधे राज्य के मुद्दे नहीं हैं और बात जब अफस्पा जैसे कानून की हो तो आंतरिक सुरक्षा के संदर्भ में राज्य सरकारें मात्र एक पक्ष हैं।

यही वजह है कि मुख्यमंत्री चाहने के बावजूद भी अफस्पा को हटाने में अभी तक सफल नहीं हो पा रहे। वह केंद्र पर निरंतर राजनैतिक दबाव बनाते हुए पेचिदगियों और विवादों में ही घिरते जा रहे हैं। इसमें कोई दोराय नहीं कि राज्य के कुछ जिलों में आतंकवाद इतना गंभीर नहीं रहा जितना कि कुछ वर्ष पहले था। लेकिन इन क्षेत्रों में आतंकवाद का खात्मा तो यह अफस्पा जैसे अधिनियम के कारण ही तो हुआ है। फिर भी यह कहना गलत ही होगा कि राज्य से आतंकवाद पूर्ण रूप से समाप्त हो गया है। समूचे तौर पर राज्य में इसे आतंकवाद का खात्मा न मानते हुए मात्र कुछ क्षेत्रों में सुधार ही कहना पड़ता है।

हालिया रिपोर्ट बताती हैं कि हजारों की संख्या में आतंकवादी सीमा पार से राज्य में घुसपैठ की फिराक में हैं, कई पहाड़ों में छिपे बैठे हैं। अफस्पा का हटना इन आतंकियों और उनके सीमापारीय आकाओं के लिए हौसला बढ़ाने वाला, राज्य में पुन: अशांति पैदा करने और सेना का मनोबल कमजोर करने वाला भी होगा। इस बात की क्या गारंटी है कि घुसपैठ की फिराक और पहाड़ों में छिपे बैठे आतंकी अफस्पा की अनुपस्थिति का बेजा फायदा नहीं उठाएंगे? जो लोग अफस्पा को हटाने के विरोधी हैं उनका कहना है कि अफस्पा जैसे मुद्दे को हवा देना और इसका राजनीतिकरण नागरिक प्रशासन व सेना के बीच फिजूल विवाद पैदा करने जैसा है। यह एक तरह से हासिल की गई थोड़ी सी शांति को भी गंवाने जैसा ही होगा।

इसमें भी कोई दोराय नहीं कि अफस्पा के चलते आम नागरिकों को कई बार असुविधा का भी सामना करना पड़ता है। मगर यह भी तय है कि जिन क्षेत्रों में आतंकवाद समाप्त हो चुका है वहां अफस्पा के होते हुए भी नागरिकों को कोई असुविधा नहीं है। उदाहरणत: राज्य का कठुआ क्षेत्र शांत है। अफस्पा तो यहां भी लागू है, लेकिन जनता को इस अधिनियम का कहीं अभास तक भी नहीं और न ही यहां से इसे उठाने की मांग है। कुल मिलाकर अफस्पा नागरिकों की सुविधा और सुरक्षा के लिए ही है न कि असुविधा के लिए। अफस्पा की पहरेदारी जम्मू-कश्मीर जैसे आतंकवाद ग्रस्त राज्य में आम नागरिकों को सुरक्षा का अहसास करवा रही है। अफस्पा हटने से आतंकी शांत क्षेत्रों में पूर्व की भांति आतंक फैला सकते हैं। राज्य की समूची आंतरिक सुरक्षा की दृष्टि से अफस्पा का हटना आत्मघाती है। आखिर आंतरिक सुरक्षा को बहाल करने में भारतीय सैन्य और अ‌र्द्धसैनिक बलों को एक विशेष गौरव प्राप्त है।

अफस्पा विकास या निर्माण का राजनैतिक व प्रशासनिक मुद्दा नहीं है अपितु देशहित का मुद्दा है। चूंकि कश्मीर में आतंकियों से सियासी सहानुभूति रखने वाले अलगाववादियों का खासा प्रभाव है। बुनियादी तौर पर अफस्पा को हटाने की मांग अलगाववादियों की है। कश्मीर घाटी की सियासत में अलगाववादियों ने सामाजिक हलकों में भी खासा प्रभाव कायम किया है। घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन के बाद अलगाववादियों की ही यहां तूती बोलती है।

अफस्पा को हटाने की मांग करना या उसे कुछ क्षेत्रों से हटवा देना अलगाववादियों के अलावा कुछ राजनीतिक दलों की मजबूरी है। इस मजबूरी को समझते हुए भी कश्मीर केंद्रित राजनेता यह भूल जाते हैं कि भारतीय सेना का राज्य में कोई संस्थागत एजेंडा नहीं है बल्कि सेना को राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए तैनात किया गया है। जब तक उन हितों की पूर्ति नहीं होती सेना को राज्य में बने रहना जरूरी है। (वितस्ता ब्यूरो)

अफस्पा हटाने का फैसला आसान नहीं : बीएसएफ
नई दिल्ली। सीमा सुरक्षाबल (बीएसएफ) के नये महानिदेशक यूके बंसल ने कहा कि जम्मू-कश्मीर से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) हटाए जाने का मुद्दा एक जटिल सवाल है और इसका समाधान भी बहुत आसान नहीं है।
श्री बंसल विगत दिनों नए महानिदेशक के रूप में कार्यभार संभालने के बाद संवाददाताओं से बातचीत कर रहे थे। उन्होंने कहा कि सरकार द्वारा इस मुद्दे पर देश के व्यापक हित में कोई उचित फैसला किया जाएगा। वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी श्री बंसल इससे पहले केंद्रीय गृह मंत्रालय में आंतरिक सुरक्षा सचिव थे। वह उत्तर प्रदेश कैडर के 1974 बैच के आईपीएस अधिकारी हैं।
उन्होंने कहा कि सरकार देश और क्षेत्र के व्यापक हित में जो फैसला करेगी, बीएसएफ उसे कार्यान्वित करेगी। यह पूछे जाने पर कि अगर बल अफस्पा के बिना काम करता है तो क्या उसके पास पर्याप्त प्रतिरक्षा है। उन्होंने कहा कि अफस्पा कुछ विशेष परिस्थितियों के तहत संघ के सशस्त्र बलों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए है। क्योंकि बीएसएफ भी संघ का ही एक सशस्त्रबल है इसलिए उसे भी इसके तहत एक सुरक्षा मिली।
बंसल ने कहा कि बीएसएफ नीति नहीं बनाती, लेकिन बीएसएफ सीमा सुरक्षा और सीमा प्रबंधन के संदर्भ में नीतियों को कार्यान्वित करने के अग्रिम मोर्चे पर है। जम्मू कश्मीर में घुसपैठ से संबंधित एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि हमारे आंकड़ों से खुलासा होता है कि इस साल पिछले साल के मुकाबले घुसपैठ के प्रयास कम हुए हैं।
ध्यातव्य है कि करीब 2.22 लाख कर्मियों वाला बीएसएफ भारत-बांग्लादेश और भारत-पाकिस्तान सीमा पर देश की सरहदों की रक्षा करने के साथ ही नक्सल विरोधी अभियानों में भी शामिल है। श्री बंसल ने कहा कि पाकिस्तान से सटी सीमा के अलावा बांग्लादेश और नेपाल सीमा पर भी अवैध रूप से सीमा पार करने की घटनाएं होती हैं। ऐसा करने वाले लोगों के विभिन्न मकसद होते हैं। कोई व्यक्ति जाली भारतीय मुद्रा के लिए यह काम कर सकता है या वह हथियार या मादक पदार्थों की तस्करी के लिए ऐसा कर सकता है।

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केंद्र सेना को दे अफस्पा पर फैसले का अधिकार
जम्मू। पूर्व उप-प्रधानमंत्री एवं भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने  जम्मू-कश्मीर में अफस्पा को बरकरार रखने की पैरवी करते हुए कहा कि केंद्र सरकार सेना को इस मुद्दे पर फैसला लेने का अधिकार दे। आडवाणी विगत दिनों (16 नवम्बर) जम्मू स्थित दशहरा ग्राउंड में रैली को संबोधित कर रहे थे।

उन्होंने आतंकवाद के प्रति कमजोर नीति के लिए केंद्र व राज्य सरकार को जमकर लताड़ा और कहा कि दोनों सरकारों के रुख से आतंक के समर्थकों को प्रेरणा मिल रही है। आतंकवाद से लड़ रही सेना का मनोबल गिराया जा रहा है। सेना के योगदान की सराहना करते हुए पूर्व गृहमंत्री आडवाणी ने कहा कि सैनिकों ने शहादत देकर राज्य को देश का अभिन्न अंग बनाए रखा है।

आतंकवाद के प्रति केंद्र सरकार के रवैए को नरम करार देते हुए आडवाणी ने कहा कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने पाकिस्तानी समकक्ष को शांतिदूत का दर्जा रहे हैं। हमारी नीति आतंकवाद के प्रति जीरो टालरेंस (शून्य प्रतिरोध) की है। एनडीए सरकार के दौरान भारत-पाकिस्तान आगरा शिखर वार्ता में मुशर्रफ के आतंकियों को स्वतंत्रता सेनानी कहने पर पड़ोसी देश से कोई समझौता नहीं हुआ।

आडवाणी ने राज्य में वर्ष 1953 से पूर्व की स्थिति की बहाली पर दूसरे आंदोलन की चेतावनी दी और कहा कि इसका खामियाजा केंद्र की यूपीए सरकार भुगतेगी। उन्होंने कहा कि राज्य में दो प्रधान, दो विधान, दो निशान के खिलाफ आंदोलन करने वाले डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की कुर्बानी को व्यर्थ नहीं जाने दिया जाएगा। आडवाणी ने याद दिलाया कि यह डॉ. मुखर्जी के आंदोलन का नतीजा है कि जम्मू-कश्मीर में तिरंगा फहराया जा रहा है और देश में एक राष्ट्रपति, एक प्रधानमंत्री है।

पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री एवं राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली ने कहा कि मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को अंदाजा नहीं है कि आतंकवाद से कैसे लड़ा जाता है। वह कुर्बानियां दे रही सेना के विशेषाधिकार खत्म करने के मुद्दे पर एक महीने से बहस कर राज्य में सक्रिय देश विरोधी तत्वों का मनोबल बढ़ा रहे हैं।

जेटली ने कहा कि यह कैसी सोच है। पहले सेना से रक्षा करवाओ फिर अधिकार वापस लेकर उसके खिलाफ मुकदमे चलाओ। उमर को अंदाजा नहीं है कि विशेषाधिकार न होने के परिणाम क्या होंगे। आतंकवादी भागते हुए जब श्रीनगर जिले में घुस जाएंगे तो क्या सेना यह सोच कर रुक जाएगी कि वहां जाने के अधिकार उनके पास नहीं हैं।

जेटली ने कहा कि एनडीए सरकार ने आतंकवाद से निपटने के लिए पोटा बनाया, जबकि यूपीए संसद पर हमला करने वालों और राजीव गांधी के हत्यारों को बचा रही है। जम्मू-कश्मीर को लेकर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी व जवाहर लाल नेहरू के दृष्टिकोण के अंतर को उजागर करते हुए जेटली ने कहा कि डॉ. मुखर्जी के प्रयासों की बदौलत राज्य देश का अभिन्न अंग है, जबकि नेहरू की कश्मीर नीति के परिणाम 64 साल बाद भी भुगतने पड़ रहे हैं।  

वार्ताकारों पर खर्च हुए 70 लाख रुपये
नई दिल्ली। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने कश्मीर समस्या के राजनीतिक हल के लिए गठित त्रि-सदस्यीय वार्ताकार दल पर साल भर में लगभग 70 लाख रुपये खर्च किए हैं। इस राशि में से 52.36 लाख रुपये वेतन जबकि 12.31 लाख रुपये कार्यालय सहायता, 2.31 लाख रुपये हवाई किराया और 2.81 लाख रुपये सरकारी परिवहन पर खर्च किए गए। वार्ताकार दल की नियुक्ति 13 अक्टूबर 2010 को हुई थी। दल ने अपने एक वर्षीय कार्यकाल के अंतिम दिन यानी 12 अक्टूबर 2011 को अपनी रिपोर्ट गृह मंत्रालय को सौंप दी। 
सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी के जवाब में गृह मंत्रालय ने वार्ताकारों की रपट को उजागर करने से इंकार कर दिया। त्रि-सदस्यीय वार्ताकारों में वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पडगांवकर, पूर्व सूचना आयुक्त एमएम अंसारी और शिक्षाविद् प्रो. राधा कुमार शामिल थीं। इस रिपोर्ट पर सरकार में उच्च स्तर पर मंथन चल रहा है। आरटीआई के मुताबिक, राधा कुमार और पडगांवकर को डेढ़-डेढ़ लाख रुपये जबकि अंसारी को 1.43 लाख रुपये प्रति माह वेतन दिया गया। वहीं इनके दो सहायकों में से एक को 40 हजार रुपये और दूसरे को 25 हजार रुपये प्रति माह वेतन दिया गया। वार्ताकारों ने राज्य के विभिन्न जिलों की यात्राएं की और समाज के कई वर्गों के लोगों से बातचीत की।

कारगिल शहीद को न्याय दिलाएंगी भारतीय मूल की वकील
जम्मू। कारगिल युद्ध को बेशक 12 वर्ष बीत गए हों पर उसके बाद से शुरू हुई न्याय की एक जंग अब भी जारी है। इस जंग में भारत सरकार सफल नहीं हो पाई है। अब इसे लड़ने के लिए ब्रिटेन में रह रही भारतीय मूल की एक वकील जस उप्पल आगे आई हैं। उप्पल ने कारगिल में पाकिस्तानी सेना के घुसपैठ की पहली सूचना देने वाले कैप्टन सौरभ कालिया सहित पांच अन्य सैनिकों के साथ पाक सेना द्वारा किए गए अमानवीय व्यवहार के खिलाफ आवाज बुलंद की है। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय मंच पर पाकिस्तान को विभिन्न देशों द्वारा दी जाने वाली वित्तीय मदद को बंद करने का आग्रह भी किया है।

कैप्टन सौरभ के पिता एनके कालिया ने बताया कि वह केंद्र सरकार के सामने लगातार इस मामले को उठाते रहे, लेकिन उन्हें आज तक न्याय नहीं मिल पाया। ज्ञातव्य है कि कैप्टन सौरभ कालिया कारगिल में जाट रेजीमेंट में तैनात थे। 15 मई 1999 को कोकसर सेक्टर में स्थित बजरंग पोस्ट के पास वह पांच सैनिकों के साथ गश्त कर रहे थे। इस दौरान पाक सेना ने उन्हें पकड़ लिया था। कई सप्ताह तक उन्हें यातनाएं देने के बाद उनका शव 9 जून 1999 को भारतीय सेना के हवाले कर दिया गया।

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पीएसए का संसोधित मसौदा राज्यपाल ने किया नामंजूर
श्रीनगर। संशोधित राज्य जन सुरक्षा अधिनियम (पीएसए) को लागू करने के लिए राज्य सरकार को और इंतजार करना होगा। राज्यपाल एनएन वोहरा ने राज्य सरकार के भेजे गए प्रस्ताव में कुछ आपत्तियां जताते हुए उन्हें दूर करने के लिए कहा है।
जानकारी के मुताबिक, राज्य सरकार ने जनसुरक्षा अधिनियम 1978 में किए गए संशोधन के बाद संबंधित मसौदे की फाइल राजभवन को भेजी थी। राज्यपाल ने कहा है कि राज्य के नाबालिगों को बेशक इस कानून के दायरे से बाहर लाया गया है, लेकिन गैर रियासती नाबालिगों को लेकर प्रावधान में बदलाव नहीं किया गया। ऐसा करना भारतीय संविधान के विपरीत है और यह राज्य संविधान का भी उल्लंघन होगा। राज्यपाल ने मौजूदा प्रावधानों के साथ अध्यादेश जारी करने से इनकार करते हुए फाइल राज्य सरकार को लौटा दी है।
ज्ञातव्य है कि राज्य कैबिनेट ने अक्टूबर में पीएसए में संशोधन का प्रस्ताव मंजूर किया था। इसे अमल में लाए जाने के लिए राज्यपाल द्वारा अध्यादेश जारी किया जाना जरूरी है, क्योंकि विधानमंडल का अगला सत्र फरवरी 2012 में होना है।

अफस्पा के बाद आरपीसी पर विवाद
जम्मू। अफस्पा हटने के मुद्दे पर आया भूचाल शांत भी नहीं हुआ था कि मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने सेना के लिए रणबीर पीनल कोड (आरपीसी) में आवश्यक संशोधन का एलान कर एक और विवाद को जन्म दे दिया है। मुख्य विपक्षी पार्टी से लेकर अलगाववादी खेमे तक ने इसका पुरजोर विरोध करने का मन बना लिया है। पीडीपी के वरिष्ठ नेता और पूर्व उप-मुख्यमंत्री मुजफ्फर हुसैन बेग ने कहा कि एक अस्थायी अधिनियम को हटाते हुए सेना व केंद्रीय अर्धसैनिक बलों को राज्य कानून का सुरक्षा कवच प्रदान करना खतरनाक है। यह राज्य के विशेषाधिकार को भी नुकसान पहुंचाएगा। यह तो गर्म तवे के बजाय सीधे तंदूर में हाथ डालने की बात है।
हुर्रियत कांफ्रेंस के उदारवादी गुट के चेयरमैन मीरवाइज मौलवी उमर फारूक और कट्टरपंथी गुट के प्रमुख सैयद अली शाह गिलानी ने भी आरपीसी में संशोधन का विरोध का ऐलान किया है। उन्होंने कहा कि इससे फिर साबित हो गया कि उमर सरकार आज वही कर रहे हैं, जो उनके दादा स्वर्गीय शेख मुहम्मद अब्दुल्ला ने साठ साल पहले किया था। ऐसा किया तो हर कश्मीरी सड़क पर होगा।
कश्मीर बॉर एसोसिएशन के महासचिव गुलाम नबी शाहीन ने इसे सेना को हमेशा के लिए एक राजनीतिक भूमिका निभाने का अधिकार देने की साजिश करार दिया है। उन्होंने कहा कि बार एसोसिएशन इसका पुरजोर विरोध करेगी। ज्ञातव्य है कि मुख्यमंत्री उमर ने बीते दिनों जम्मू में कहा कि सेना व अन्य सुरक्षाबल अपने आतंकरोधी अभियान के लिए जिस कानूनी कवच को चाहते हैं, वह उन्हें राज्य के कानून आरपीसी में ही आवश्यक संशोधन कर प्रदान किया जा सकता है।

अल-जब्बार ने ली मंत्री पर हमले की जिम्मेदारी
श्रीनगर। आतंकवादियों ने जम्मू-कश्मीर के विधि मंत्री अली मोहम्मद सागर पर विगत दिनों (11 दिसम्बर) हमला बोल दिया। हालांकि वह बच गए पर उनका एक अंगरक्षक शहीद हो गया जबकि तीन सुरक्षाकर्मी समेत चार लोग घायल हो गए। आतंकी संगठन जमायत-उल-मुजाहिदीन के प्रवक्ता जमीलुर्रहमान ने 12 दिसम्बर को पत्रकारों को फोन कर विधि मंत्री पर हुए हमले की जिम्मेदारी ली। उसने दावा किया कि यह हमला उसके संगठन द्वारा गठित अल-जब्बार के लड़ाकों ने किया है। 

घाटी में 36 से ज्यादा अलगाववादी व आतंकी संगठन
नई दिल्ली। अलग-अलग किस्म के आतंकवाद और उग्रवाद का सामना कर रहे भारत के जम्मू-कश्मीर राज्य में ही इस समय 36 से ज्यादा अलगाववादी एवं आतंकी संगठन हैं। इनमें से कई संगठन अपनी गतिविधियां किसी न किसी रूप में चला रहे हैं और कई पर सरकार ने प्रतिबंध लगा रखा है। जानकारी के मुताबिक, लश्कर-ए-तैयबा, हिजबुल मुजाहिदीन, जैश-ए-मुहम्मद, अल-बदर, जमात उल मुजाहिदीन, हरकत उल अंसार, लश्कर-ए-उमर, हरकत उल मुजाहिदीन, लश्कर-ए-जब्बार, हरकत उल जेहाद-ए-इस्लामी घाटी सहित देश भर में आतंक फैलाने में लिप्त हैं।

इन दस प्रमुख संगठनों के अलावा घाटी में अल बर्क, तहरीक उल मुजाहिदीन, अल जेहाद, जम्मू-कश्मीर नेशनल लिबरेशन आर्मी, पीपुल्स लीग, मुस्लिम जांबाज फोर्स, कश्मीर जेहाद फोर्स, अल जेहाद फोर्स, अल उमर मुजाहिदीन, महाज-ए-आजादी, इस्लामी जमात-ए-तुलबा, जम्मू-कश्मीर स्टूडेंटस लिबरेशन फ्रंट, इख्वान उल मुजाहिदीन, इस्लामिक स्टूडेंटस लीग, तहरीक-ए-जेहाद-ए-इस्लामी, मुस्लिम मुजाहिदीन, अल मुजाहिद फोर्स, तहरीक-ए-जेहाद, इस्लामी इंकलाबी महाज जैसे संगठन भी काम कर रहे हैं। इसके अलावा मुत्ताहिदा जेहाद काउंसिल, जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट, आल पार्टीज हुर्रियत काफ्रेंस और दुख्तरन-ए-मिल्लत जैसे अलगाववादी गुट भी हैं।

आतंकी मामलों की जाच के लिए विशेष रूप से गठित राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मुहम्मद, हरकत उल मुजाहिदीन, हरकत उल अंसार, हरकत उल जेहाद-ए-इस्लामी, हिजबुल मुजाहिदीन, अल उमर मुजाहिदीन, जम्मू-कश्मीर इस्लामिक फ्रंट, स्टूडेंटस इस्लामिक मूवमेंट आफ इंडिया (सिमी), पर प्रतिबंध लगाया है। प्रतिबंधित संगठनों की सूची में दीनदार अंजुमन, अल बदर, जमात उल मुजाहिदीन, अल कायदा, दुख्तरन-ए-मिल्लत और इंडियन मुजाहिदीन के नाम भी शामिल हैं।
दिल्ली हाईकोर्ट बम विस्फोट के पीछे हिजबुल मुजाहिदीन का हाथ माना जा रहा है और इस सिलसिले में एनआईए ने गिरफ्तारियां भी की हैं। उन्होंने कहा कि लश्कर, जैश और हिज्ब आतंकियों ने भारत में बडे़ पैमाने पर तबाही की है। न सिर्फ जम्मू-कश्मीर बल्कि वाणिज्यिक राजधानी मुम्बई, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) सहित देश के कई राज्यों में आतंकी वारदात के पीछे इन गुटों का हाथ है।
लश्कर 1990 में बना था और इसे जमात उद दावा के नाम से भी जाते हैं। इस प्रमुख हाफिज मुहम्मद सईद है जिसे भारत ने वाछित आतंकी घोषित किया है। लश्कर की घाटी में पहली बार उपस्थिति 1993 में सार्वजनिक हुई जब 12 पाकिस्तानी एवं अफगान आतंकी नियंत्रण रेखा पार कर घाटी आए। हिजबुल मुजाहिदीन घाटी में सक्रिय सबसे बड़ा कैडर आधार वाला आतंकी गुट है।

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एलओसी पर हवाला रैकेट ईडी ने दर्ज किया केस
नई दिल्ली। जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा के पास हवाला कारोबार चलाने के सिलसिले में पहली बार प्रवर्तन निदेशालय ने कार्रवाई करते हुए विगत दिनों मामला दर्ज किया है। जम्मू-कश्मीर पुलिस ने 2009 में हवाला रैकेट का पर्दाफाश किया था और इसमें पंजाब तथा जम्मू के कारोबारी शामिल थे, जिन्होंने कश्मीर घाटी में लश्कर आतंकवादियों को कथित रूप से धन मुहैया कराया और बदले में भारी कमीशन कमाया।

निदेशालय ने आर्थिक आतंकवाद पर लगाम कसने के उद्देश्य से हरकत में आते हुए हवाला मामलों की समीक्षा के लिए अपने एक वरिष्ठ अधिकारी को घाटी में भेजा था। सूत्रों के मुताबिक, अब तय किया गया है कि मनी लांड्रिंग रोकथाम कानून के तहत मामले की जांच की जाएगी। आतंकवादी संगठन नियंत्रण रेखा पर कानूनी बैंकिंग सुविधाएं नहीं होने का फायदा उठा रहे हैं। पुलिस ने बडगाम के कारोबारी मुश्ताक अहमद को उस समय गिरफ्तार किया, जब वह अब्दुल्ला को 10 लाख रुपये सौंप रहा था। जम्मू के कारोबारी सूरज सिंह और एक कश्मीरी व्यापारी ने कुछ कंपनियां बनाई हैं, जो श्रीनगर-मुजफ्फराबाद मार्ग और पुंछ में चकनदाबाग के जरिए नियंत्रण रेखा से सामान हासिल करती है। ये सामान अमृतसर स्थित दो व्यापारियों को भेजा जाता है, जिनके नाम विपिन कुमार और संजीव हैं।
सूत्रों ने बताया कि अमृतसर स्थित ये दोनों कारोबारी भी गिरफ्तार किए गए। इन लोगों ने मुश्ताक को सीधे नकद राशि भेजी ताकि वह लश्कर के आतंकवादियों को रकम सौंप सके। बदले में इन लोगों ने 35 से 40 प्रतिशत कमीशन लिया। आतंकवादी संगठनों के वित्तपोषण के मसले पर सरकार काफी गंभीर है और हाल ही में गृह सचिव आरके सिंह की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय बैठक में ऐसे मामलों की समीक्षा की गई।
गृह सचिव ने सभी संबद्ध पक्षों से कहा है कि वे आतंकी संगठनों और जम्मू-कश्मीर के अलगाववादी संगठनों को धन का प्रवाह रोकें। सूत्रों ने बताया कि केंद्र सरकार ने आतंकी वित्तपोषण से निपटने वाला विशेष प्रकोष्ठ भी गृह मंत्रालय में बनाया है। यह अपनी तरह का पहला प्रकोष्ठ है। हालांकि इसके प्रमुख भारतीय राजस्व सेवा (आयकर) के अधिकारी हैं। यह प्रकोष्ठ राजस्व खुफिया विभाग, खुफिया ब्यूरो, आयकर विभाग, प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआइ और सीमा शुल्क महानिदेशालय जैसी एजेंसियों के साथ मिलकर काम करता है।

बीच में युद्ध रोकने वालों को इतिहास कभी माफ नहीं करेगा
नई दिल्ली/श्रीनगर। पाकिस्तान के कब्जे से पूरे जम्मू-कश्मीर को छुड़वाने से पहले युद्ध रोकने का फैसला लेने वाले नेताओं को इतिहास कभी माफ नहीं करेगा। केंद्रीय अक्षय ऊर्जा मंत्री एवं नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला ने विगत दिनों यह बात द कैलीफेट्स सोल्जर्स: द लश्करे तैयबाज लांग वाकनामक पुस्तक का विमोचन करने के बाद कही।

अब्दुल्ला ने कहा कि पूरे जम्मू-कश्मीर पर भारतीय सेना के नियंत्रण से पहले पाकिस्तान के साथ वर्ष 1948 का युद्ध रोकना त्रासदीथा। उन्होंने कहा, हमें पूरा उत्तर कश्मीर, स्कार्दू, बाल्तिस्तान और यहां तक कि पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को भी अपने नियंत्रण में ले लेना चाहिए था। मेरा मानना है कि इतिहास उस समय युद्ध रोकने का निर्णय करने वाले नेताओं को कभी भी माफ नहीं करेगा। विदित हो कि उस समय भारतीय सेनाओं को आगे बढ़ने से रोकने का फैसला तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू तथा फारूक अब्दुल्ला के पिता शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने लिया था।

वहीं, विगत दिनों (5 दिसम्बर) फारूक ने स्वायत्तता को कश्मीर समस्या का एकमात्र हल करार देते हुए केंद्र से जस्टिस सगीर की सिफारिशें लागू करने की मांग की है। वह अपने पिता स्व. शेख अब्दुल्ला की 106वीं जयंती पर आयोजित कार्यक्रम के बाद पत्रकारों से बातचीत कर रहे थे। फारूक ने कहा कि कश्मीर समस्या का सही और व्यावहारिक हल स्वायत्तता बहाल करना ही है। कोई इससे भी बेहतर हल है तो हम उसमें भी सहयोग करने के लिए तैयार हैं। राज्य की स्वायत्तता और सगीर कमेटी राज्य के तीनों संभागों के लोगों की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक उम्मीदों को पूरा करती है।  

श्रीनगर में सेना की जमीन का मामला सीबीआई के हवाले
नई दिल्ली। रक्षा मंत्रालय ने अपने संपदा विभाग द्वारा श्रीनगर में वायु सेना की करीब 200 एकड़ भूमि निजी लोगों को बेचने के लिए जारी किए गए अनापत्ति प्रमाणपत्रों (एनओसी) की जांच सीबीआई के हवाले कर दी है। इस बात की पुष्टि करते हुए रक्षामंत्री एके एंटनी ने स्वीकार किया कि आरंभिक जांच में उच्च सुरक्षा वाले ठिकानों के समीप एनओसी जारी करने में ऐसी अनियमितताएं पाई गयी हैं जिनके दूरगामी प्रभाव हो सकते हैं।

राज्यसभा में एक सवाल के लिखित जवाब में विगत दिनों (23 नवम्बर) उन्होंने कहा कि मामले की पूरी जांच व दोषियों की जवाबदेही तय करने के लिए इसकी जांच सीबीआई को सौंप दी गई है। एक शिकायत के आधार पर की गई आरंभिक अंदरूनी जांच में इसकी पुष्टि हुई है कि पिछले चार सालों में रक्षा संपदा विभाग ने 200 एकड़ से अधिक भूमि की बिक्री के लिए 70 से अधिक अनापत्ति प्रमाणपत्र जारी किए। विभाग द्वारा निजी लोगों को जमीन की बिक्री के लिए जारी प्रमाणपत्रों में कहा गया है कि संबंधित भूमि कभी भी रक्षा मंत्रालय के पास नहीं थी। इसके विपरीत विभाग के रिकार्ड के मुताबिक सरकार ने 1960 के दशक में यह भूमि अधिग्रहीत की थी।

एलओसी के निकट पाक ने बनाए 162 बैरक
नई दिल्ली। आंतरिक सुरक्षा से जुड़ी संसद की स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि पाकिस्तान गुपचुप तरीके से भारत से सटी सीमा पर अपनी सैन्य ताकत बढ़ाता जा रहा है और नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर 97 निगरानी पोस्ट व 162 बैरक भी बना चुका है। समिति के मुताबिक, निगरानी पोस्ट व बैरकों के निर्माण का कार्य पाकिस्तान ने विगत 8 वर्षों में किया है। समिति के चेयरमैन भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष व राज्यसभा सांसद एम. वेंकैया नायडू हैं। उन्होंने तीन नवंबर को अपनी रिपोर्ट राज्यसभा के सभापति हामिद अंसारी को सौंपी।

रिपोर्ट के मुताबिक, नवंबर 2003 में संघर्ष विराम पर सहमति बनने के बाद पाकिस्तान ने एलओसी पर निर्माण गतिविधियां बढ़ाई है। इस संदर्भ में समिति ने सरकार को कई सुझाव दिए हैं। इसमें सीमा पर बाड़ लगाने के काम में जुटे जवानों की मदद के लिए बंदका निर्माण प्रमुख है। बंदबनाने का मामला पिछले दो साल से लंबित है। रिपोर्ट के मुताबिक, सुरक्षा मामले की कैबिनेट समिति इस पर गंभीरता से विचार कर रही है।   

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पीओके में रोकना होगा चीनी हस्तक्षेप
वॉशिंगटन। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) के गिलगित-बाल्टिस्तान में चीन की बढ़ती मौजूदगी पर अमेरिका के एक थिंक टैंक ने चेताया है। उसने कहा है कि अगर चीन के इस अवांछित हस्तक्षेप को चुनौती नहीं दी गई तो इस क्षेत्र का हश्र भी तिब्बत और पूर्वी तुर्किस्तान जैसा होगा। इंस्टीट्यूट फॉर गिलगित-बाल्टिस्तान नामक इस थिंक टैंक का मानना है कि क्षेत्र में चीन की मौजूदगी कश्मीर मुद्दे को और जटिल बनाती है, जो आतंकियों और आईएसआई में अराजक तत्वों के लिए ऑक्सीजन की तरह है। थिंक टैंक ने इस क्षेत्र के लिए सैनिक हटाने, आत्मनिर्भरता, लोकतंत्र को बढ़ावा देने और उग्रवादी तत्वों की वापसी की सिफारिश की है।

थिंक टैंक की ओर से इन मामलों पर नजर रखने वाले सेंगे सेरिंग ने कहा, “अमेरिका को लद्दाख और गिलगित-बाल्टिस्तान के बीच व्यापार और संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए भारत और पाकिस्तान को राजी करना चाहिए। इस क्षेत्र के लोगों के अधिकारों की रक्षा में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका भी बढ़नी चाहिए।गिलगित-बाल्टिस्तान के निवासी सेरिंग का मानना है कि इस क्षेत्र में पाकिस्तान का हस्तक्षेप कम होने से यहां की मूल संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा। साथ ही यहां उग्रवाद और अरब कबाइलियों का प्रभाव भी कम होगा।
उन्होंने आरोप लगाया कि पाकिस्तान और चीन ने वहां के मूल निवासियों को अपने ही संसाधनों का लाभ लेने से रोक कर क्षेत्र के सामरिक और आर्थिक हितों को नुकसान पहुंचाया है। उन्होंने कहा कि चीन की कंपनियों को यहां खनन करने के लाइसेंस देने के पाकिस्तान के एकतरफा फैसले ने वहां के लोगों के अपने जमीन के अधिकार को खतरे में डाल दिया है। सेरिंग ने आरोप लगाया कि आईएसआई इस क्षेत्र का इस्तेमाल आतंकियों को छिपाने और जमीन मुहैया कराने के लिए कर रही है।

अमेरिका ने हटाया पीओके का त्रुटिपूर्ण मानचित्र
वॉशिंगटन। अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने अपनी वेबसाइट से पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) को पाकिस्तान का क्षेत्र दिखाने वाले मानचित्र को हटा दिया है। विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता विक्टोरिया नुलैंड ने विगत दिनों (22 नवम्बर) संवाददाताओं को बताया कि हमने भारत के उस मानचित्र को अपनी वेबसाइट से हटा दिया है जिसमें कुछ भौगोलिक स्थानों की सीमाओं से संबंधित गलतियां थीं। उन्होंने कहा कि यह मानचित्र गलत था। उसे सही तरीके से नहीं बनाया गया था।

प्रवक्ता ने बताया कि हम नए मानचित्र को तभी वेबसाइट पर लगाएंगे जब हमें यकीन हो जाएगा कि वह सही है। हालांकि उन्होंने इस सवाल का कोई जवाब नहीं दिया कि ऐसा मानचित्र कहां से आया। विक्टोरिया ने कहा, 'यह जानबूझ कर नहीं किया गया था। हम इस मानचित्र को सही करा कर लगाएंगे।' डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डॉट स्टेट डॉट जीओवी नाम की इस वेबसाइट पर उन सभी देशों के मानचित्र मौजूद हैं, जिनसे अमेरिका के राजनयिक संबंध हैं। अमेरिकी प्रवक्ता ने यह भी कहा कि विदेश मंत्रालय अपनी वेबसाइट के अन्य भागों से भी इस तरह के मानचित्र को हटा रहा है।

ज्ञातव्य है कि एक भारतीय समाचार-पत्र ने पहली बार यह जानकारी दी थी कि अमेरिकी विदेश मंत्रालय की वेबसाइट पर पीओके को पाकिस्तानी क्षेत्र के तौर पर दिखाया गया है। इसके बाद भारत सरकार ने अमेरिकी विदेश मंत्रालय के समक्ष कड़ी आपत्ति जतायी थी। भारत के विदेश सचिव रंजन मथाई ने कहा था कि जहां तक पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) का मामला है, इस मानचित्र में सुधार जरूरी है। मथाई ने संपूर्ण जम्मू-कश्मीर को देश का अभिन्न अंग बताते हुए विश्व बिरादरी से आग्रह किया कि भारतीय सीमाओं को सही तरीके से पेश करने वाले मानचित्र का ही इस्तेमाल किया जाना चाहिए।  


पीओके से शादी कर लौटा आतंकी सपत्नीक गिरफ्तार
श्रीनगर। सुरक्षाबलों ने विगत दिनों (12 दिसम्बर) श्रीनगर-बारामूला राष्ट्रीय राजमार्ग पर पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) से शादी कर लौटे हिजबुल मुजाहिदीन के एक आतंकी को सपत्नीक गिरफ्तार कर लिया। दोनों के कब्जे से पुलिस ने एक रिवॉल्वर, तीन गोलियां और एक हथगोला बरामद किया है।
पुलिस व सेना ने दावा किया है कि यह आतंकी पाक सीमा से दाखिल हुआ है। सूत्रों की माने तो आतंकी अपने पत्नी समेत वाया नेपाल ही कश्मीर लौटा है। इसकी पहचान त्रिन-कंगन शोपियां निवासी मुहम्मद यूसुफ भट्ट पुत्र गुलाम मोहिउद्दीन के रूप में हुई है। वह हिजबुल मुजाहिदीन का एक सक्रिय आतंकी था और आठ साल पहले पीओके चला गया था। उसने वहीं पर शादी की। उसकी पत्नी का नाम शहनाज है और वह मुजफ्फराबाद से सटे चिनारी गांव की रहने वाली है। 

अलगाववादी गुंडागर्दी छोड़ें : उमर
जम्मू/श्रीनगर। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने अलगाववादियों को खुली चुनौती देते हुए कहा कि वह अपना कैलेंडर लागू करवाने के लिए गुंडागर्दी छोड़ दें। अगर उनमें दम है तो राजनीति के मैदान में दमखम दिखाएं। उमर ने कहा कि झूठ अधिक दिन तक नहीं छिपता है, एक दिन लोगों के सामने असलियत आ जाती है। श्रीनगर के नौहाटा में अलगाववादियों का कैलेंडर न मानने वाले दुकानदार तारिक अहमद की पत्थरबाजों द्वारा हत्या की निंदा करते हुए उमर ने कहा कि हिंसा व नफरत फैलाने वाले अब बेनकाब हो रहे हैं।

अलगाववादियों की चुप्पी को आड़े हाथ लेते हुए उमर ने कहा कि अगर ऐसा कार्य किसी सुरक्षाकर्मी ने किया होता तो यह अलगाववादियों के टॉप एजेंडे में होता। मुख्यमंत्री ने कहा कि बेगुनाह दुकानदार को अलगाववादियों के इशारे पर पत्थरबाजों ने महज इसलिए मार दिया क्योंकि उसे अलगाववादियों द्वारा बार-बार हड़तालें करवाना मंजूर नहीं था। उमर ने कहा कि राज्य की शांति तबाह करने पर तुले अलगाववादियों की इस गुंडागर्दी को सरकार बर्दाश्त नहीं करेगी। उन्होंने इस घटना को अमानवीय करार देते हुए कहा कि इसकी जितनी निंदा की जाए कम है।

वहीं, हुर्रियत कांफ्रेंस के उदारवादी गुट के चेयरमैन मीरवाइज मौलवी उमर फारूक पर विगत दिनों (16 दिसम्बर) कट्टरपंथी अली शाह गिलानी के गढ़ सोपोर में पत्थर बरसाए गए। हल्के बल प्रयोग के बाद बमुश्किल पुलिस उन्हें वहां से सुरक्षित निकाल सकी।

सोपोर में मीरवाइज नमाज-ए-जुमा के लिए पहुंचे थे। उन्होंने खानकाह मस्जिद में नमाज अता करने के बाद देश विरोधी जलसे में जम्मू-कश्मीर से सेना की वापसी पर जोर दिया। जब वह वहां से निकलने लगे तो लोगों ने उन पर कस्बे के मुख्यचौक तक जुलूस की अगुआई का दबाव बनाया, लेकिन उन्होंने इंकार कर दिया। जब वह नहीं माने और श्रीनगर के लिए रवाना होने लगे तो गुस्साई भीड़ पत्थर फेंकने लगी। किसी तरह पुलिस मीरवाइज को वहां से निकाल पाई। इसके बाद पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच हिंसक झड़पों में छह लोग जख्मी हो गए।

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सम्पादकीय
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भारत विरोध के नाम पर कश्मीर के गोजवारा इलाके में बाजार बंद करा रहे हुर्रियत (मीरवाइज गुट) के लोगों को एक स्थानीय दुकानदार तारिक ने कहा कि रोज-रोज के बंद से कारोबार चौपट हो रहा है। दरअसल यह अकेले तारिक का नहीं बल्कि पूरे बाजार की आवाज थी। फर्क यह था कि बाकी लोग चुप रहे और तारिक ने इसे कह दिया।
मीरवाइज के लोगों को भी यह मालूम था कि अगर आज तारिक को खामोश नहीं कराया गया तो कल दूसरे लोग भी यही बात बोलने लगेंगे। उन्होंने तारिक को हमेशा के लिये खामोश कर दिया। उसे इस गलती के लिये इतना पीटा गया कि उसकी मौत हो गयी। हालांकि, उनका मंसूबा फिर भी पूरा नहीं हुआ। तारिक की मौत से गुस्साय़े व्यापारियों ने मीरवाइज मौलवी उमर फारूख के खिलाफ नौहट्टा, गोजवारा और डाउन-टाउन में प्रदर्शन किया। उन्होंने यह चेतावनी भी दी कि अगर जुमे की नमाज से पहले इन्साफ नहीं मिला तो आगे श्रीनगर घाटी में उनके खिलाफ हड़ताल भी की जायेगी।
कश्मीर का अवाम आए-दिन होने वाले इन बंदों और हड़तालों से आजिज आ चुका है। विभिन्न अलगाववादी गुटों की आपसी राजनैतिक रस्साकशी में कारोबारी भी परेशान है और आम आदमी भी। लोग इन हड़तालों से इत्तेफाक नहीं रखते हैं; पर खिलाफत की हिम्मत भी नहीं जुटाते। कोई यदि बोलना चाहता है तो उसका हश्र तारिक से अलग कुछ नहीं होता। नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी जैसे राजनैतिक दल अलगाववादियों को किनारे कर जम्हूरियत को मजबूत करने के बजाय अपने-आप को उनका ज्यादा बड़ा हिमायती साबित करने की कोशिश करते हैं।
मीरवाइज समेत कश्मीर के सभी अलगाववादियों के लिये यह गंभीर चेतावनी है। उन्हें यह इल्म होना चाहिये कि अवाम को मजबूर करके कोई आंदोलन नहीं चलाया जा सकता। बहुत समय बाद घाटी में शांति लौट रही है। बाजारों में रौनक लौटी है। पर्यटकों के काफिले एक बार फिर कश्मीर का रुख करने लगे हैं। स्थानीय लोग इससे खुश हैं। उनकी खुशियों को खाक कर जो लोग अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकने की कोशिश कर रहे हैं, जनता उन्हें पहचान रही है। अगर जनता उनके खिलाफ सड़कों पर आ गयी तो कितने तारिकों को खामोश करेंगे।


जम्मू-कश्मीर में अफस्पा आवश्यक
एशिया डिफेंस न्यूज ब्यूरो
जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्सों से सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (एएफएसपीए/अफस्पा) हटाने के मामले में उमर अब्दुल्ला की टिप्पणियों पर उनकी आलोचना नहीं की जा सकती। यहां तक कि गृहमंत्री द्वारा उनका समर्थन किए जाने की भी निंदा नहीं की जा सकती। दरअसल अफस्पा असामान्य स्थितियों के लिए एक असामान्य कानून है। अगर उमर इसे हटाने की मांग कर रहे हैं तो इसका मतलब यह होगा कि जम्मू-कश्मीर की स्थिति सामान्य होती जा रही है। अगर यह सच है तो आलोचकों को अपना मुंह बंद कर लेना चाहिए।

हम सभी जानते हैं कि उमर, चिदंबरम और मानवाधिकारों के तथाकथित समर्थकों को अफस्पा से चिढ़ है। उनकी प्रमुख दलील यह है कि इससे राज्य में हालात बिगड़ रहे हैं। अगर केंद्र सरकार के ताजा आंकड़ों और उमर की मांग पर गौर करें तो ऐसा नहीं है। कहा तो यह जा सकता है कि अफस्पा ने राज्य की स्थिति में इतना सुधार किया है कि अब इसकी जरूरत ही नहीं है। दूसरे शब्दों में अफस्पा की निंदा नहीं बल्कि सराहना की जानी चाहिए। 64 साल पहले 27 अक्टूबर को जम्मू-कश्मीर को पाकिस्तान आर्मी की शह पर आए कबाइली हमलावरों से बचाया गया था। इसके बाद से हमारी सेना नियंत्रण रेखा पर चौकसी बरत रही है। इस काम में हजारों लोगों ने अपनी जानें भी दी हैं। क्या इस बलिदान की अनदेखी की जा रही है?

अगर उमर यह समझते हैं कि घाटी में सुरक्षा का स्तर इस हद तक सुधर गया है कि अफस्पा और डीएए को कुछ हिस्सों से हटाया जा सकता है तो ऐसा इसलिए संभव हो पाया है कि सेना वहां थी और कारगर ढंग से अपना कर्तव्य निभा रही थी। अब अगर अलगाववादियों की अक्सर दोहराई जाती रही अफस्पा तथा सेना हटाने की मांग को मान लिया जाता है तो इसमें रत्ती भर भी संदेह नहीं कि आईएसआई और जिहादी कश्मीर-विभाजन के 1948 के अधूरे एजेंडे को पूरा करेंगे। दुनिया जानती है कि भारत के खिलाफ पाकिस्तान आर्मी का आतंकी ढांचा सक्रिय ही नहीं हो गया है, बल्कि उसने नए-नए तरीके ईजाद कर लिए हैं। उमर को याद होगा कि दिल्ली उच्च न्यायालय के विस्फोट के आरोपियों के तार किश्तवार से जुड़े थे। अंबाला में विस्फोटकों से भरी कार का मिलना भी कश्मीर में सक्रिय लश्कर के आतंकवादियों का ही कारनामा था।

अफस्पा कोई सामान्य कानून नहीं है। यह दो असाधारण स्थितियों में- अलगाववादी हिंसा और अंदरूनी गड़बड़ियों में इस्तेमाल के लिए संसद का एक विशेष प्रावधान है। 1958 से ही अलगाववादी हिंसा से ग्रस्त कुछ उत्तरपूर्वी राज्यों और कश्मीर में इसका इस्तेमाल किया गया है। पुलिस के हालात संभालने में नाकाम रहने के बाद ही सशस्त्र बलों को बुलाया जाता है। इससे सशस्त्र बलों को किसी भी कानून के खिलाफ काम करने वालों और घातक हथियार रखने के संदिग्धों को बिना वारंट गिरफ्तार करने, उनके घरों की तलाशी लेने का अधिकार मिलता है। स्वाभाविक रूप से इस कानून के साथ कुछ शर्तें जुड़ी हैं और उल्लंघन करने वाले जवानों/अफसरों के खिलाफ कार्रवाई भी की जा सकती है।

वर्ष 1990 के बाद से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार- 1,511 मामलों में सुरक्षा बलों पर मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप लगे। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की जांच में इनमें से 1,473 मामले (98 प्रतिशत) झूठे पाए गए। जिस देश में दोषी पाए जाने के छह साल बाद भी एक अफजल गुरू को फांसी पर नहीं लटकाया गया है या जहां कसाब जैसे आतंकियों को संरक्षण मिल रहा है वहां सैन्य न्याय का इससे बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है। जो आलोचक कहते हैं कि सेना, सामान्य कानूनों के तहत काम क्यों नहीं कर सकती, उनसे सीधा सा एक सवाल पूछा जा सकता है कि अगर सेना किसी आपरेशन के दौरान खुद से कोई कदम नहीं उठा सकती और उसे किसी सिविलियन मंजूरी की बाट जोहनी पड़ती हो तो उसकी कार्रवाई, सामान्य पुलिस से अलग कैसे हो सकती है?
(अफस्पा पर एशिया डिफेंस न्यूज ब्यूरो का आकलन)


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विशेषाधिकार कानून पर यह कैसी बहस
जोगिंदर सिंह
हिटलर के प्रचार मंत्री जोसफ गोएबल्स ने एक बार कहा था, ‘अगर एक झूठ को बार-बार दोहराया जाए तो लोग उसे सच मानने लगते हैं। ...लेकिन झूठ तभी बोला जाए जब राज्य अपनी जनता को उसके राजनीतिक, आर्थिक या सामरिक दुष्प्रभावों से बचा पाए। ऐसे में राज्य के लिए यह जरूरी हो जाता है कि वह असहमति को कुचल दे क्योंकि सच हमेशा झूठ का शत्रु होता है और इसी तर्क को आगे बढ़ाएं तो सच राज्य का सबसे बड़ा शत्रु है।

कश्मीर में आज यही हो रहा है। वहां मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला आतंकवाद से निपटने के लिए सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून को हटाना चाहते हैं। वे यह साबित करना चाहते हैं कि कश्मीर घाटी में सब कुशल मंगल है। लेकिन मुख्यमंत्री के लगातार खंडन के बावजूद उनकी अपनी ही पार्टी सशस्त्र बलों पर हमला बोल रही है। अक्टूबर में सशस्त्र बलों के ठिकानों पर आतंकवादियों के हमले के बाद मुख्यमंत्री के एक करीबी ने बड़बोला बयान जारी किया कि श्रीनगर के हमले दरअसल सेना की करतूत हैं। यानी ये हमले सेना ने खुद करवाए। सेना प्रमुख ने जायज ही इसे टिप्पणी लायक नहीं माना।

सेना लगातार विशेष अधिकार कानून की वकालत करती आ रही है क्योंकि उसके बिना घाटी में आतंकवाद से जूझना मुश्किल होगा। यह कानून सुरक्षा बलों (सेना, सीआरपीएफ, बीएसएफ, आईटीबीपी) को शांति व्यवस्था कायम करने के दौरान उनकी कार्रवाईयों पर सीधे मुकदमा चलाने से रोकता है। विशेष अधिकार कानून हटा लेने से सशस्त्र बलों के मनोबल पर उलटा असर पड़ेगा और यह शायद आतंकवादियों के हक में जाएगा।

खुफिया रिपोर्टों के मुताबिक घुसपैठ की वारदातें बढ़ रही हैं और सीमा पार 42 आतंकवादी प्रशिक्षण शिविरों में करीब ढाई हजार रंगरूट घुसपैठ के इंतजार में हैं। करीब 800 आतंकवादी तो नियंत्रण रेखा के पास मौके का इंतजार कर रहे हैं। 2003 में जारी जम्मू-कश्मीर पुलिस की एक पत्रिका में कहा गया है कि 1990 से 2002 दिसंबर तक 56,041 हिंसा की वारदातें हुईं। इनमें 10,000 बम धमाके और 29, 931 गोलीबारी की वारदातें हैं। 14 साल लंबे आतंकवाद के दौर में करीब 30,000 आम लोगों के मरने की आशंका है। सुरक्षा बलों ने इस दौरान 24,785 एके-राइफलें, 9,387 पिस्तौल और रिवाल्वर, 742 राकेट लांचर वगैरह पकड़े। इसके अलावा 6,865 किलो आरडीएक्स, 47,219 हथगोले, 5,228 बारूदी सुरंगें और 4,176 राकेट बरामद किए।

2003 के बाद सरकार ने कोई आंकड़ा जारी नहीं किया है। शायद यह दिखाने के लिए कि जम्मू-कश्मीर में सब ठीक-ठाक है और इसी वजह से मुख्यमंत्री का दावा है कि विशेष अधिकार कानून हटा लिया जाना चाहिए। हालांकि मुख्यमंत्री ने कहा, ‘सेना वाकई राज्य में आतंकवाद विरोधी कार्रवाईयों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। लेकिन अगर सरकार जीवन-मृत्यु के सवालों पर झूठ बोले तो आपकी प्रतिक्रिया क्या होगी। सच्चाई यह है कि जब सत्ता में होते हैं तो सच बोलने की जरूरत नहीं होती। यही दुनियाभर में जमाने से चलता आ रहा है।

विडंबना यह है कि सरकार विरोधाभाषी रुख अपनाकर आतंकवादियों को मौका मुहैया करा रही है, मानो आतंकवाद से कड़ाई से निपटना कोई गलत काम हो। भारत धर्मनिरपेक्ष देश है और यहां हर आदमी के समान अधिकार हैं। लेकिन कश्मीर और यहां तक कि बाकी देश में भी कुछ राजनीतिक सियासी बढ़त पाने के लिए आतंकवादियों की वकालत करते दिखते हैं। अगर कोई आतंकवाद का नाम लेता है तो उसे लाल, हरा, भगवा जैसे रंगों में रंग दिया जाता है। जबकि आतंकवादी और उनके समर्थक खुलेआम यह कहते हैं कि पाकिस्तान उनके दिल में बसा है। वे अपने दिल की बात सुनेंगे और भारत में उपलब्ध आजादी का इस्तेमाल करके अपने मनपसंद देश के साथ हो जाएंगे। समस्या यह है कि सरकार खुद कट्टरवादियों को घाटी में आम लोगों की जिंदगी चौपट करने का मौका मुहैया करा देती है। वरना आप सिनेमा, वीडियो पार्लर, ब्यूटीपार्लर, शराब की दुकानें और फिल्मी पत्रिकाओं को कट्टरवादियों के दबाव में बंद कराने की क्या व्याख्या कर सकते हैं।

कई बार हमारे तथाकथित नागरिक समाज के लोग कहते हैं कि सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार से भी बुरी है (जिससे मैं सहमत नहीं हूं) तो वे कश्मीर के मामले में चुप्पी क्यों साध लेते हैं। शायद कुछ लोगों की रोजी-रोटी भारत विरोध के नाम पर चलती है। दुनिया में कहीं भी आतंकवाद को तुष्टिकरण से मिटाया नहीं जा सका है। हमारी सरकार आतंकवादियों को, चाहे वे कश्मीर के हों या माआवोदी, उन इलाकों के विकास के नाम पर तरह-तरह की योजनाओं से पैसा पहुंचाकर परोक्ष रूप से मदद ही करती है। केंद्र सरकार से आवंटित लगभग 70 प्रतिशत रकम कश्मीर घाटी में खर्च होती है, जहां आतंकवादियों का सिक्का चलता है और स्थानीय अधिकारियों की मिलीभगत से यह रकम उनकी जेब में पहुंच जाती है। ये अधिकारी उनसे डरे हाते हैं या फिर सहानुभूति रखते हैं।

इसी तरह की दूसरी लटकेबाजी तथाकथित वार्ताकारों की नियुक्ति भी रही है जिनसे आतंकवादियों तक ने बात करना मुनासिब नहीं समझा। फिर भी ये वार्ताकार चाहते हैं कि कश्मीर में 1953 के पहले की स्थिति लागू की जाए और अधिक स्वायत्तता दी जाए। मतलब यह है कि कश्मीर में एक समांतर सरकार बने जिसमें जम्मू और लद्दाख जैसे गैर-मुस्लिम क्षेत्रों का कोई लेना-देना न हो।

सच्चाई यह है कि स्वायत्तता और अलगाव के बीच एक बेहद बारीक रेखा है। इसमें आम आदमी, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान या सिख, की कोई दिलचस्पी नहीं है। वह तो शांति और सुरक्षा के साथ जीना चाहता है जिसे 1989 से घाटी में कोई सरकार मुहैया नहीं करा पाई है। घाटी से करीब 3.7 लाख हिंदू और सिखों के विस्थापन पर कोई बात तक नहीं करना चाहता। इससे भी बढ़कर यह भी बात है कि समूचे देश के करदाता जम्मू-कश्मीर का बोझ उठा रहे हैं। वहां की सरकार के पास तो तनख्वाह देने का भी पैसा नहीं है। तो, क्या करदाताओं के पैसों को कश्मीर में कट्टरवादियों और आतंकवादियों के लिए खर्च किए जाने की इजाजत दी जानी चाहिए?
अफस्पा हटाने का प्रस्ताव न सिर्फ भ्रामक है बल्कि राष्ट्रविरोधी भी है। राष्ट्रविरोधी तत्वों को ब्लैकमेल करने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। केंद्र और राज्य दोनों सरकारों को अब्राहम लिंकन का वह प्रसिद्ध वाक्य याद रखना चाहिए कि, ‘अपने ही खिलाफ खड़े लोग एकजुट होकर काम नहीं कर सकते।
(लेखक सीबीआई के पूर्व निदेशक हैं।)

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अफस्पा की आवश्यकता
दयासागर
देश में बाह्य प्रायोजित विद्रोह से निपटने के लिए अफस्पा के प्रावधान नितांत आवश्यक हैं। इसके बिना सेना विद्रोह की स्थिति में प्रभावी ढंग से कार्य नहीं कर सकेगी। विशेष परिस्थितियों जैसे कि उत्तर-पूर्व और जम्मू-कश्मीर में इस प्रकार के विशेष कानून की जरूरत है। कश्मीर घाटी से बड़ी संख्या में लोगों की विदाई और जम्मू-कश्मीर की सीमाओं के एक छोर से दूसरी छोर तक आतंकी गतिविधियां बढ़ने के बाद अफस्पा-1990, 1990 का 21 (10 सितंबर 1990) का अस्तित्व सामने आया।

10 सितंबर 2010 को राष्ट्रपति की सहमति के साथ ही 5 जुलाई 2000 का सशस्त्र बल (जम्मू-कश्मीर) विशेषाधिकार अध्यादेश, 1990 रद्द हो गया था। कुछ लोग अफस्पा के प्रावधानों को कठोर मानते हैं। जबकि विपरीत परिस्थितियों में सुरक्षाबलों के परिचालन के लिए प्रतिरक्षा की निश्चित मात्रा आवश्यक है। अफस्पा के निरस्तीकरण पर राजनीतिक वाद-विवाद नया नहीं है। यह मुद्दा वर्ष 2005 में भी गरमाया था। उस समय से अफस्पा को निरस्त करने की मांग उठती रही है।

अगर राज्य सरकार की राय है कि पिछले छह वर्षों में राज्य की स्थिति काफी सुधरी है तो जिन क्षेत्रों में सेना की जरूरत नहीं है, वहां से इस कानून को हटा देना चाहिए। लेकिन यह भी जवाब देना होगा कि 2005 के बाद छह सालों तक कश्मीरी प्रवासी कश्मीर घाटी से बाहर क्यों हैं? उन्हें जो प्रवासी वेतन, प्रवासी राहत और प्रवासी रियायत मिलता है, वह असाधारण परिस्थितियों में दिया जाता है। वैसे राज्य के मुख्यमंत्री ने 21 अक्टूबर को कहा था कि जल्द ही जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्सों से अफस्पा, डीएए (अशांत क्षेत्र अधिनियम) को हटा लिया जाएगा, पर यह समझ नहीं आया कि उन्होंने साथ-साथ यह क्यों कहा कि वो अभी उन इलाकों के नाम नहीं बता सकते। उन्होंने अशांत क्षेत्रों का उल्लेख क्यों नहीं किया? शांतिपूर्ण क्षेत्रों में सुरक्षा बलों के लिए अफस्पा के प्रावधानों की जरूरत नहीं होगी।

राजनीतिक लाभ के लिए राष्ट्रीय महत्व के इतने गंभीर मुद्दों पर कोई विवाद नहीं होना चाहिए। कोई भी देश यह सहन नहीं कर सकता। सेना और अ‌र्द्धसैनिक बलों को नागरिक क्षेत्रों में लंबे समय तक नहीं रखना चाहिए। अफस्पा जैसे कानून सेना को दृढ़ता और तीव्रता से कार्रवाई करने का अधिकार प्रदान करता है, जहां राष्ट्रीय अखंडता और भौगोलिक सीमाओं पर गंभीर खतरा हो। यदि सेना को देश के दुश्मनों की तलाशी के लिए अभियान छेड़ना हो तो उसे बिना समय गंवाए इसे अंजाम देना होता है। लेकिन जिस तरह अफस्पा को प्रोजेक्ट किया जा रहा है उससे लगता है कि अनुचित ढंग से केंद्र सरकार के उद्देश्यों पर आपराधिक आरोप लगाए जा रहे हैं।

वर्ष 1950 में उत्तर-पूर्वी राज्यों में हिंसा आम बात थी। राज्य प्रशासन और नागरिक पुलिस अंदरूनी गड़बडि़यों पर नियंत्रण स्थापित नहीं कर पा रहे थे और आम नागरिक को सामाजिक और भौतिक सुरक्षा मुहैया कराने में असमर्थ थे। इसलिए राष्ट्रपति ने 22 मई 1958 को सशस्त्र बल (असम और मणिपुर) विशेषाधिकार अध्यादेश की घोषणा कर दी। बाद में (सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून-1958, 1958 का एक्ट नं.-28) यह बिल संसद में पारित हो गया। वर्ष 1947 के बाद स्थानीय कारणों से ये गड़बडि़यां नहीं थी। विदेशी एजेंसियों ने देश विरोधी तत्वों को बढ़ावा देना शुरू कर दिया था। बाद में ऐसे कानूनों के दुरुपयोग पर रोक होनी चाहिए थी। इसके प्रभाव को बढ़ाते हुए प्रगतिशील तरीके से अरुणाचल प्रदेश कानून-1986 (1986 का 69) और सशस्त्र बल (जम्मू-कश्मीर) विशेषाधिकार कानून-1990 में संशोधन होना चाहिए था-

(1)- सशस्त्र बल (जेएंडके) विशेषाधिकार कानून की धारा 2 के तहत सैन्य बलों और वायु सैनिकों के परिचालन के लिए थल सैनिकों के रूप में इसका उल्लेख करता है और संघ के दूसरे सशस्त्र बलों के परिचालन को इसमें शामिल करता है।

(2)- धारा 3 के तहत अधिसूचना जारी कर अशांत क्षेत्र को घोषित किया गया है। इसलिए अशांत क्षेत्र की घोषणा सेना या सुरक्षाबलों को स्वयं नहीं बल्कि नागरिक अधिकार द्वारा अफस्पा के प्रावधानों का विस्तार होना चाहिए। इसलिए किसी को भी आपात अधिकारों की जिम्मेदारी के लिए मनोदशा को समझने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। वर्ष 1990 से शर्ते और अवधारणाएं बदल चुकी हैं। शत्रुओं की युद्ध तकनीक भी बदल चुकी है। इसलिए अफस्पा-1990 को लागू करने के लिए कुछ खास बदलाव को समाविष्ट (धारा 3,4,5,6) किया गया है। धारा 3 में, अशांत और खतरनाक शर्तों को अधिक विस्तार मिला है। यह आतंकी गतिविधियों में शामिल स्थापित कानूनों से सरकार को उलटने का निर्देश देता है। या आतंकी हमलों या किसी भी लोगों के बीच विलगाव या उनके बीच सामंजस्य को विपरीत ढंग से प्रभावित करता है।

(3)- यह भारतीय संविधान, राष्ट्रगान, तिरंगे के अपमान का कारण या भारतीय क्षेत्र के एक हिस्से के विखंडन के बारे में या देश की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता को नष्ट करने या इस पर सवाल उठाने या इससे इंकार करने के बारे में निर्देश देता है। इस भाग में आतंकी गतिविधियों का समान अर्थ है जैसा कि भारतीय संविधान की धारा 248 में वर्णित है। इसी प्रकार धारा 4 में सशस्त्र बलों के विशेषाधिकार रद करने का उल्लेख है। इसके तहत किसी भी वाहन में यदि कोई संदिग्ध व्यक्ति जा रहा हो, जोकि घोषित अपराधी हो या कोई व्यक्ति जो अक्षम्य अपराध किया हो या जिस पर संदेह हो कि वह अक्षम्य अपराध करने वाला है या कोई व्यक्ति हथियार या विस्फोटक ले जा रहा हो, जोकि गैरकानूनी हो, की तलाशी और गिरफ्तारी का जिक्र है।

(4)- इसके तहत सुरक्षा बलों को तलाशी लेने या फिर उसका सामान जब्त करने का अधिकार प्रदान करता है। धारा 5 में तलाशी का अधिकार विशेष रूप से शामिल है। इसके तहत सुरक्षा बलों को ताला तोड़ने का भी अधिकार प्राप्त है। इस कानून के तहत किसी भी व्यक्ति की तलाशी ली जा सकती है। सुरक्षा बलों को किसी भी दरवाजे, अलमारी, सुरक्षित बक्से, दराज, पैकेज या अन्य चीजों की तलाशी के लिए ताला तोड़ने का अधिकार प्राप्त है।
इसमें संदेह नहीं कि कुछ लोग विशेषाधिकार का गलत प्रयोग कर रहे हैं। यदा-कदा मानवाधिकार का उल्लंघन भी होता है। कुछ लोग महसूस करते हैं कि वे प्रतिरक्षा की आड़ में कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हैं। लेकिन यह भी सच है कि किसी भी जगह या किसी भी संगठन में इस प्रकार का एकाध व्यक्ति हो सकता है जो कानून का उल्लंघन या उसका दुरुपयोग कर सकता है। इस तरह के आरोप स्थानीय पुलिस पर भी लगते रहते हैं। इसका यह मतलब नहीं कि एसएचओ को दिए गए सभी अधिकार उससे छीन लिए जाएं।
(लेखक : जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं।)

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हसनैन की अलगाववादी सोच
प्रो. हरिओम
श्रीनगर स्थित 15 सैन्य कमांडर, लेफ्टिनेंट जनरल सईद अता हसनैन ने कश्मीरी अलगाववादियों को थाली में परोस कर एक मुद्दा थमा दिया है। उनका यह बयान कि राज्य के कुछ क्षेत्रों से अगर सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) हटाया जाता है तो वर्ष 2016 तक कश्मीर आजाद हो सकता है। 9 नवंबर को जम्मू में आयोजित यूनिफाइड हेडक्वार्टर की बैठक में उन्होंने अपने विचारों को व्यक्त किया था। यदि यह बात सच है तो उनके बयान से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पिछले 64 वर्षों से भारत ने कश्मीर घाटी पर जबरन कब्जा जमाया हुआ है।

एक अग्रणी समालोचक के मुताबिक, हसनैन ने रुक्षतापूर्वक यूनिफाइड कमांड के सदस्यों से कहा है कि यदि अफस्पा को निरस्त किया जाता है तो केंद्र सरकार पर वर्ष 2016 तक कश्मीर को आजाद करने के लिए दबाव डाला जाएगा। क्या हसनैन ने जानबूझ कर यह बयान दिया था या फिर उन्होंने बिना सोचे समझे यह टिपण्णी की थी। यदि वह अपने बयानों का मतलब जानते थे तो इसका यह अर्थ होगा कि उन्होंने कश्मीर घाटी के सभी मुस्लिमों को देश विरोधी करार दिया है, जबकि ऐसा नहीं है। मुस्लिम पंथ से संबंधित कुछ लोग ही अलगाववादी आंदोलन में शामिल हैं। गुज्जर-बक्करवाल, शिया, पथोवारी मुस्लिम, सिख और विस्थापित कश्मीरी हिंदुओं और कुछ असंतुष्ट तत्वों को छोड़ दें तो अलगाववादी आंदोलनों से इनका कोई लेना देना नहीं है। ये समुदाय कश्मीर की कुल जनसंख्या का 30 फीसदी से अधिक हैं।

जहां तक कश्मीरी सुन्नियों का सवाल है, जोकि कश्मीर में बहुसंख्यक हैं, उनकी मांगों के मुताबिक सीधे तौर पर उन्हें पांच समूहों में बांटा गया है- पाकिस्तान में शामिल होना, आजादी, स्वायत्तता, स्वशासन और भारत के साथ बने रहना। इन समूहों का तहरीक-ए-हुर्रियत, ऑल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस (मीरवाइज), जेकेएलएफ व जेकेडीएफपी, नेकां, पीडीपी और कांग्रेस प्रतिनिधित्व करते हैं। सभी कश्मीरियों को देश विरोधी कहना अपराध होगा। हसनैन ने यह कह कर कि अफस्पा हटाने से 2016 तक कश्मीर आजाद हो सकता है, देश की कोई सेवा नहीं की है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह बिना सोचे-समझे या बिना किसी तैयारी के दिया हुआ बयान नहीं है। वास्तव में, वह जानते हैं कि उनके बयान का क्या अर्थ है। उन्होंने पहले भी विवादास्पद बयान दिए हैं। उदाहरण स्वरूप 1 फरवरी 2010 को दिए उनके बयान को ही लें- उन्होंने कहा था कि कश्मीर एक राजनीतिक मुद्दा है और कश्मीर घाटी से अफस्पा को हटाने में सेना की कोई भूमिका नहीं है। कश्मीर एक राजनीतिक मुद्दा है और इसका राजनीतिक समाधान होना चाहिए। उन्होंने कश्मीर के खन्नाबल सेक्टर 2 स्थित सैन्य मुख्यालय में आयोजित समारोह के बाद मीडियाकर्मियों से बातचीत करते हुए ये बयान दिए थे।

हसनैन के बयान से देश के मित्रों और शुभचिंतकों के लिए खतरे की घंटी बज गई है। कारण, उन्होंने देश की परेशानियों को बढ़ाने का ही काम किया है। स्मरण रहे, हसनैन ने वही बात कही थी, जो कश्मीरी अलगाववादी और मुख्यधारा के नेता दशकों से कहते रहे हैं। वे कथित कश्मीर समस्या के राजनीतिक हल की मांग कर रहे हैं। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी बार-बार ऐसा ही कुछ कहा है। पीडीपी नेता भी लगातार सुर में सुर मिलाते हुए केंद्र से कश्मीर समस्या का समाधान राजनीतिक रूप से करने की गुहार लगाते रहे हैं। गिलानी, मीरवाइज व मलिक जैसे अलगाववादी भी इसी तरह के विचार व्यक्त कर रहे हैं। इतना ही नहीं, दिल्ली और उसके बाहर रहने वाले कश्मीरी नेताओं के समर्थक भी कश्मीर को एक राजनीतिक समस्या बताते हुए केंद्र से इसके राजनीतिक समाधान के लिए कहते हैं, ताकि तनावग्रस्त कश्मीर में शांति बहाल हो सके।

दूसरे शब्दों में, ये लोग ऐसे समाधान की वकालत कर रहे हैं जो कश्मीरी नेताओं की मांगों को समायोजित करे। इनकी मांगों को स्वीकार करने का मतलब कश्मीर में भारत की मौजूदगी का अंत, अलगाववादी ताकतों और पाकिस्तान की जीत होगी। यह चिंता का विषय है, क्योंकि जाने-अनजाने हसनैन उन लोगों में शामिल हो चुके हैं जो कश्मीर को राजनीतिक समस्या मानते हैं और अंतरराष्ट्रीय समुदाय को गुमराह कर उनसे मदद लेने का प्रयास कर रहे हैं ताकि वे देश को तोड़ने वाले एजेंडे लागू कर सकें।

हसनैन के बयान की तुलना सैन्य प्रमुख जनरल वीके सिंह के उस बयान से की जा सकती है, जो उन्होंने 29 जनवरी 2010 को नई दिल्ली में एक न्यूज चैनल से साक्षात्कार के दौरान दिए थे। इस तरह हमें कश्मीर आंदोलन पर सेना के भीतर मौजूद विरोधाभास को समझने में मदद मिलेगी। ऐसे अभ्यास से हमें सेना के भीतर विरोधाभास और कश्मीर में जारी आंदोलन की प्रकृति समझने में आसानी होगी। वीके सिंह ने कहा था कि जम्मू-कश्मीर जटिलताओं का एक समुच्चय है। हम वहां जो कुछ कर रहे हैं उस पर एक पवित्र विचार होना चाहिए। हमें दीर्घकाल के लिए एक अलग नजरिया विकसित करना होगा। किसी खास उद्देश्य की पूर्ति के लिए हम कोई निर्णय नहीं ले सकते। कश्मीर समस्या के समाधान के लिए एकाग्र होने और सरकार को इस काम के लिए कुछ लोगों को लगाने की जरूरत है।

इस समय सेना की वापसी का कोई औचित्य नहीं है। जिस दिन सीमापर स्थित 42 आतंकी कैंप बंद हो जाएंगे और पाकिस्तान छद्म युद्ध बंद कर देगा, तभी सेना की वापसी संभव है। हमें सेना को कम करने के बारे में यथार्थवादी बनना पड़ेगा। हसनैन को अपने विवादास्पद बयान से लोगों के दिमाग में उपजी शंकाओं को दूर करना चाहिए। इसी प्रकार, सेना प्रमुख को अपने मातहतों को यह बताने की जरूरत है कि वह कोई ऐसा बयान न दें, जिससे राज्य में राष्ट्रीय हितों को नुकसान पहुंचे। सेना प्रमुख को एक स्वर में बोलना चाहिए।
(लेखक : जम्मू विवि के सामाजिक विभाग के पूर्व डीन हैं।)

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अपने देश में पराया होने का दर्द
विजय क्रान्ति
आज़ाद हिंदुस्तान की हवा में सांस लेने के आदी हो चुके लोगों को इस बात पर शायद विश्वास नहीं होगा कि इस देश में बीस लाख से ज्यादा लोगों का एक ऐसा शरणार्थी समाज भी है जो 1947 में भारत विभाजन के 64 साल बाद आज भी अपने ही देश में अपनी पहचान को मोहताज है। यह समाज जम्मू-कश्मीर के उस इलाके से है जिस पर पाकिस्तानी पुलिस और पाकिस्तानी कबायलियों ने 25 नवंबर 1947 के दिन जबरन कब्जा जमा लिया था। मीरपुर, मुज़फ्फराबाद, भिंबर, कोटली और देव बटाला जैसे शहरों वाला यह इलाका आज भी पाकिस्तान के कब्जे में है और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) के नाम से चर्चित है।

इस समाज का एक बड़ा दर्द यह है कि जिस देश और प्रांत के लिए उनके समाज के 50 हजार से ज्यादा नागरिकों ने अपने प्राण न्यौछावर किए उनकी सरकारें आज भी न तो उन्हें शरणार्थीका दर्जा देने को तैयार है और न उन्हें वे अधिकार देने को राजी है जो भारत और पाकिस्तान की सरकारों ने विभाजन में शरणार्थी हुए सवा करोड़ नागरिकों को दिए। जम्मू-कश्मीर सरकार की दलील है कि क्योंकि भारत सरकार पीओके को भारत का अंतरंग हिस्सामानती है और यह इलाका भारतीय नक्शे में दिखाया जाता है इसलिए इस समाज को न तो विभाजन के शरणार्थीवाली श्रेणी में रखने का औचित्य है और न ही उन्हें शरणार्थी जैसी सुविधाएं दी जा सकती हैं। इनमें से राज्य से बाहर जाकर बसने को मजबूर हुए लगभग दस लाख शरणार्थियों को तो वह अपना स्टेट सब्जेक्ट’ (नागरिक) भी मानने को तैयार नहीं है। इस दर्जे के बिना ये लोग या उनके बच्चे जम्मू-कश्मीर में न तो घर-जमीन खरीद सकते हैं, न राज्य सरकार की नौकरी कर सकते हैं और न विधानसभा, म्युनिस्पैलिटी या ग्राम पंचायत में वोट दे सकते हैं। 

केंद्र सरकार ने तो इस शरणार्थी समाज को शुरू से ही 1954 के उस शरणार्थी पुनर्वास बोर्डके दायरे से अलग कर दिया था जिसका गठन विभाजन के शिकार लगभग 80 लाख भारतीय नागरिकों को राहत देने और पाकिस्तान में छूट गई सम्पत्तियों का मुआवज़ा देने के लिए किया गया था। केंद्र सरकार पीओके शरणार्थियों को संयुक्त राष्ट्र के 1951 वाले शरणार्थी कन्वेंशन और उसके 1967 वाले प्रोटोकोल के दायरे में लाने को भी तैयार नहीं है। उसकी दलील है कि इससे पीओके पर भारतीय दावा कमजोर पड़ जाएगा।

विभाजन के बाद राज्य सरकार की इस कठोरता का परिणाम यह हुआ कि पीओके से आए कई शरणार्थियों को राज्य से बाहर जाने को मजबूर होना पड़ा। उन्हें तत्कालीन शेख अब्दुल्ला सरकार ने कश्मीर घाटी में जाकर बसने से भी जबरन रोक दिया और कई हजार शरणार्थियों को पंजाब की ओर जाने पर मजबूर कर दिया। शेख की दलील थी कि इन शरणार्थियों के वहां रहने से कश्मीरियत हलकी पड़ जाएगी। राज्य में बचे रहे शरणार्थियों में से कई लोगों ने धीरे-धीरे अपने बूते पर अपना वहां रास्ता बना लिया है। लेकिन आज भी कई लाख पीओके शरणार्थी ऐसे हैं जो वहां के 39 शरणार्थी कैंपों में घुटन भरी जिंदगी जीने पर मजबूर है। कश्मीरी दबदबे पर चलने वाली राज्य सरकार ने इन लोगों को इन शरणार्थी कैंपों में अपने घरों पर मालिकाना हक भी नहीं लेने दिया है।

लेकिन इसे भारतीय लोकतंत्र की विडंबना ही कहा जाएगा कि जम्मू-कश्मीर सरकार ने 1982 में विधानसभा में एक विशेष रिसेटलमेंट एक्ट-1982’ पास किया जिसमें विभाजन के दौरान पाकिस्तान जा बसे कश्मीरियों को यह अधिकार दिया गया है कि वे वापस आकर अपने परिवार की सम्पत्तियों का कब्जा लेकर यहीं बस जाएं। पीओके शरणर्थियों के नागरिक और मानवाधिकारों के लिए प्रयास कर रहे संगठन एसओएस इंटरनेशनल के अध्यक्ष श्री राजीव चुन्नी कहते हैं, ‘‘राज्य सरकार पाकिस्तानी नागरिकों के लिए बहुत चिंतित है। वह भारत से भागकर पाकिस्तान में आतंकवाद की ट्रेनिंग लेने के लिए गए कश्मीरी आतंकवादियों को सरकारी नौकरियां और पुनर्वास सुविधाएं देने को भी उतावली है। लेकिन अपने पीओके शरणार्थियों के लिए उसके पास दया भरा एक शब्द भी नहीं है।’’ जम्मू-कश्मीर सरकारों के ऐसे पक्षपाती रवैये ने राज्य में सांप्रदायिक विभाजन को यकीनन लगातार बढ़ाया है, घटाने में कभी योगदान नहीं दिया।

जम्मू-कश्मीर का अध्ययन करने वाले कई विशेषज्ञ मानते हैं कि राज्य में इस तरह के भारत विरोधी कानून बनाने के लिए वहां कश्मीर घाटी के राजनेता उस प्रावधान का बहुत दुरूपयोग करते हैं जिसके तहत पीओके के हिस्से की 24 सीटों को विधानसभा में स्थायी रूप से खाली रखा जाता है। इससे विधानसभा में कश्मीर घाटी का बहुमत पक्का हो चुका है जिसका सीधा नुकसान जम्मू और लद्दाख की जनता को होता है।

राज्य से बाहर जाकर बसे लगभग दस लाख पीओके शरणार्थियों के हितों की रक्षा के लिए काम करने वाली विभिन्न बिरादरियों के साझा मंच फोरम ऑफ पीओके कम्युनिटीज़ ने पिछले दिनों जम्मू-कश्मीर पर सलाहकार दल को दिए गए अपने प्रतिवेदन में यह मांग रखी है कि ये 24 सीटें पीओके शरणार्थियों की दी जानी चाहिएं। फोरम ने यह मांग भी की है कि केंद्र सरकार राज्य में और वहां से बाहर जाकर बस चुके पीओके नागरिकों का एक राष्ट्रीय रजिस्टरतैयार करे जिसमें इस समाज के सदस्यों की पूरी जानकारी दर्ज रहे। फोरम के एक संयोजक डा. सुदेश रतन महाजन का कहना है, ‘‘ऐसा रजिस्टर भारत सरकार के लिए ऐसे समय में बहुत उपयोगी सिद्ध होगा जब पीओके पर भारतीय अधिकार के दावे पर चर्चा का सही समय आएगा।’’

पीओके शरणार्थी समाज को इस बात का बहुत दुख है कि उन्हें ऐसे समय में अपने घर से बेघर होना पड़ा जब जम्मू-कश्मीर रियासत का भारत में बाकायदा विलय हो चुका था और विभाजन के समय सीमा के दोनों ओर शुरू हुई हत्याओं और लूटपाट की  आग ठंडी पड़ चुकी थी। लेकिन तब न तो भारत सरकार ने और न उसके द्वारा रियासत में नियुक्त किए गए नए प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला ने रियासत के इस हिस्से को भारतीय नियंत्रण में लेने के लिए पुलिस या सेना भेजने की जहमत उठाई। परिणाम यह हुआ कि मैदान खाली पड़ा देखकर पाकिस्तान की हथियारबंद पुलिस ने सहयोगी रज़ाकारोंतथा कबायलियों की मदद से इस इलाके पर कब्जा कर लिया। एक मोटे अनुमान के अनुसार केवल मीरपुर और मुजफ्फराबाद में लगभग 50 हजार भारतीय नागरिक इस पाकिस्तानी हिंसा में मारे गए।

सवाल उठता है कि इस अभागे शरणार्थी समाज को अपनी बात सुने जाने तक कितने 25 नवंबर और देखने होंगे? एक और सवाल यह भी है कि भारत के एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य की सरकारों का अपने अल्पसंख्यकों के प्रति निरंतर इस तरह का अमानवीय रवैया क्या भारत के बाकी मुस्लिम समाज की छवि को प्रभावित नहीं करता? (लेखक वरिष्ट पत्रकार हैं।)

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अव्यावहारिक भर्ती नीति
केवल कृष्ण पनगोत्रा
विधि-विधान किसी की बपौती नहीं। सामाजिक-वैधानिक दृष्टि से विधान पर उनका भी अधिकार नहीं जो सत्ता शीर्ष पर विराजमान होते हैं। लोकतंत्र में सत्ता लोगों की होती है, जनता द्वारा चुने गए उन प्रतिनिधियों या नौकरशाहों की नहीं, जिन्हें जनता मंत्रियों-मुख्यमंत्रियों या सचिवों-आयुक्तों आदि के रूप में राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी बनाकर सत्ता और प्रशासन के आसन पर बिठाती है। बिना गहन चिंतन-मनन के विधि-विधान से छेड़छाड़ लोकतांत्रिक मूल्यों और भावनाओं से खुला खिलवाड़ माना जाता है। संविधान की प्रस्तावना में कहीं इस बात का संकेत नहीं मिलता कि संविधान सम्मत विधि-विधान राजनेताओं और प्रशासकों के अधिकृत दस्तावेज हैं, जिनका वे जब चाहें मनमाफिक और निरंकुश उपयोग कर सकते हैं।

दुर्भाग्य से आज पूरे देश में ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हो चुकी हैं जहां लोकतंत्र गर्त में जा रहा है। सत्ताधारी वर्ग विधि-विधान की खुली धज्जियां उड़ा रहा है। लोकतंत्र के नाम और गुणगान के साथ जनता सूली पर है व अपने मौलिक और मानव अधिकारों के लिए छटपटा रही है। संदर्भ में जम्मू-कश्मीर सरकार की हालिया नई रोजगार नीति को देखा जा सकता है। यह भर्ती नीति ऐसा संकेत दे रही है मानो राज्य में आम जनता, युवाओं और राजनेताओं के बीच सहानुभूति के संवाद और समझ का अच्छा-खासा अभाव है। रोजगार को लेकर नई भर्ती के तहत नवंबर 2011 के बाद सरकारी सेवा में आने वाले प्रत्येक गैर राजपत्रित कर्मचारी पांच साल तक स्थिर और स्थापित अल्प वेतन हासिल करेंगे। बावजूद सियासी और सामाजिक विरोध के सरकार अपनी प्रस्तावित नीति पर ही अडिग है।

कुछ दिन पूर्व मीडिया के समक्ष मुख्यमंत्री यह कह चुके हैं कि एक कर्मचारी को पूरा वेतन देने के बजाए उतनी ही रकम में वह चार लोगों को रोजगार देना अच्छा समझते हैं। माना कि राज्य आर्थिक तंगी से दो-चार है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि इस तंगी का सारा बोझ उन युवाओं पर डाल दिया जाए जो भविष्य में गैर राजपत्रित सरकारी सेवा में शामिल होंगे। इस कमी को पूरा करने के लिए सरकारी तामझाम वाले ऐसे कई ऊलजलूल खर्चे हैं जिन्हें बंद करके ऐसी असंवैधानिक नीति से बचा जा सकता है। जिस प्रकार इस नीति का विरोध बढ़ता जा रहा है उससे ऐसा भी मालूम हो रहा है कि सरकार के अड़ियल रवैये से यह विरोध शायद ही कम हो पाए। एक दृष्टि से यह नीति भेदभावपूर्ण होने के साथ तर्कसंगत भी नहीं है।

मात्र एक तारीख (1 नवंबर 2011) के आधार पर समान वर्ग के कर्मचारियों में आर्थिक और अमानवीय भेद को किसी भी सामाजिक और मानवीय दृष्टि से उचित नहीं माना जा सकता। देखा जाए तो प्रस्तावित भर्ती नीति भारतीय संविधान के अध्याय तीन की खिलाफवर्जी के साथ समान काम समान वेतन को प्रतिस्थापित करने वाली धारा 14 और 16 का उल्लंघन भी है और दोनों धाराएं जम्मू-कश्मीर में भी लागू हैं। यकीनन यही कारण है कि समूचे राज्य के शिक्षित बेरोजगारों के साथ आम जनता भी इस भर्ती नीति का विरोध कर रही है। दरअसल राज्य सरकार इस नीति को शिक्षा विभाग की रहबर-ए-तालीम योजना की तर्ज पर लागू करने के मूड में है और इस योजना के आधार पर लाखों पढ़े-लिखे बेरोजगारों की भ्रमित करती दिख रही है।

ज्ञातव्य है कि रहबर-ए-तालीम योजना का उद्देश्य दूरदराज के क्षेत्रों के स्कूलों में स्थानीय शिक्षक उपलब्ध करवाना है ताकि 21वीं सदी के प्रतिस्पर्धी समाज और तेजी से विकास कर रही दुनिया में समाज की सबसे अहम जरूरत को पूरा किया जा सके। ऐसी योजना मात्र जम्मू-कश्मीर में ही नहीं है अपितु शिक्षा मित्रों या अन्य पदों के रूप में देश के अन्य राज्यों में भी शिक्षा के विस्तार के लिए चलाई जा रही है। मगर किसी भी अन्य राज्य से जम्मू-कश्मीर जैसी असंवैधानिक और भेदभावपूर्ण रोजगार नीति का समाचार नहीं है। इस दृष्टि से ऐसा ही प्रतीत हो रहा है कि राज्य सरकार बेरोजगारी के मोर्चे पर विफल हो रही है। उन समस्त दावों और वादों की हवा निकल रही है जो करीब एक साल पूर्व 15 अगस्त 2010 को किए गए थे। तब 50 हजार युवाओं को अति शीघ्र नियुक्त करने की घोषणा हुई थी। इसके साथ ही 43 हजार कैजुअल कामगारों को काम देने की घोषणा भी हुई थी। मात्र यही नहीं बल्कि आठवीं कक्षा तक पढ़े युवाओं को दायरे में लाने वाली नीति एक घर एक नौकरी का वादा भी पूरा किया गया था।

इन बातों के दृष्टिगत यह भी साफ होता जा रहा है कि सरकार और जनता के बीच अविश्वास की खाई दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही है। एक समाजवादी और लोकतांत्रिक सरकार जनता और युवाओं के शोषण की नहीं बल्कि लोगों की सुख-सुविधाओं के प्रति सचेत होती है। आखिर देश जनता से बनता है और देश में अनीति की ऐसी तासीर अच्छे देश का निर्माण नहीं करती।

बेहतर यह है कि राज्य सरकार वित्तीय संकट के नाम पर उन युवाओं के पेट न काटे, जिन्हें राज्य से बहुत उम्मीदें हैं। जिस समाज का युवा निराश हो उस देश और समाज की दशा कैसी होगी, यह जम्मू-कश्मीर के राजनेताओं और नौकरशाहों से अधिक शायद ही देश के किसी कोने के शासक और प्रशासक जानते होंगे। युवाओं के प्रति ऐसा नजरिया क्यों?
(लेखक : जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं।)

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Chinese threat to Leh continues unabated
Thupstan Chhewang
Before I leave Leh for Chumur village in the south-east, the scene of the latest Chinese incursion into our territory, I shuffle through the pages of "The Jammu and Kashmir Year Book and Who's Who 987" to refresh my memory about the Dragon's approach towards Jammu and Kashmir as a whole and Leh district (one of the two districts constituting the Ladakh region of India's northernmost State) in particular.

The following highlights catch my eye :-
March 16, 1956 : Chinese Premier Chou (now spelt as Zhou) En-Iai, tells Indian envoy : people of Kashmir have already expressed their will regarding accession with Indian Union.
May 31, 1962 : China tells India: her attitude of never getting involved in dispute over Kashmir is well known throughout world.
October 20, 1962 :  Chinese launch massive attack in Ladakh.
October 26, 1962 : National emergency declared.
November 21, 1962 : China declares unilateral ceasefire after occupying 14500 square miles in Ladakh.
December 20, 1962 : According to USIS (United States Information Service) release in Delhi "Srinagar is major supply base. For India fertile Vale is lifeline to Communist-threatened Ladakh.

March 2, 1963 : Pakistan gives away 2200 square miles of State territory to China under boundary agreement.
April 10, 1963 : Zhou En-Iai confirms Pakistan had assured him that she joined SEATO (September 8, 1954) and Baghdad Pact (September 23, 1955) only go gain political and military ascendancy over India.

April 29, 1963 : Sino-Pak agreement providing direct air link "unfortunate breach of free world solidarity", according to US State Department.
February 22, 1964 : Zhou-Ayub (Pakistani military dictator Ayub Khan) discuss Kashmir in Rawalpindi.
March, 28, 1965 : Sheikh Abdullah meets Zhou En-Lai at Alergiers.

September 19, 1965 : China says it gives all-out support to people of Kashmir in their struggle for right of self-determination.
June 4, 1974 : China agrees to set up a textile mill in Pakistan-occupied Kashmir.
March 4, 1975 : China describes Kashmir accord (between Indira Gandhi and Sheikh Abdullah) as Indian annexation of Kashmir.

From 1956 to 1975 China underwent a total change in its perception. Its friendly appearance disappeared altogether and it started showing its true colours as an expansionist force. Its premier had no hesitation in shaking hands with Sheikh Abdullah in an alien territory only to cry foul when the Kashmir leader showed realistic appreciation of the home turf.

Not surprisingly, therefore, China has gone a step ahead of late. It has been desperately trying off and on to nibble into the Leh district clearly not satisfied with having forcibly captured a big part of it in 1962. I am often taken aback by the argument that the boundary excesses committed by China are an outcome of difference in perception about what exactly constitutes the boundary between India and China. It amounts to finding justification for Chinese violations. It is true that the boundary between China and India is not clearly demarcated. Just because a line has not been drawn does not mean that we should plead ignorance about the areas that we have been using for centuries for habitation and grazing purposes in particular.

There has actually been no clear-cut boundary between China and Leh district in the past too. For, there was no geographical proximity between the two. Leh was adjoining Tibet with which it had strong spiritual ties fostered by the common Buddhist bond and a spirit of mutual tolerance and accommodation. Monks from Leh travelled to Tibet for higher studies while those from Tibet blessed the Ladakh region with their teachings.

In history there are references about Mongolia having created problem for Ladakh but there has been no trouble from China with Tibet standing as a bulwark in the middle. It is after China turned red, annexed Tibet and exiled its temporal and spiritual head His Holiness Dalai Lama that it has begun poking into Leh district. In Leh district, Chumur village is the latest victim of the Chinese designs.

Accompanied by Mr Chering Dorjay, former Chief Executive Councillor of the Ladakh Autonomous Hill Development Council, Leh (LAHDC-Leh),Mr. Nawang Norboo,a former Councillor and a few others I reach Chumur Village around I 1.30 a.m. on September 18. We have tea with the Lama in charge of Chumur gonpa, monks and a few villagers. They all seem to be worried. They were scared about the threat to their abode from the Chinese and were critical of the callous attitude of security forces, Government and the local administration.

We then move towards the actual site of the Chinese raid - eight kilometres away. We drive for six kilometres before a rough passage passing as a motorable road disappears.We are required to cover the rest of distance on foot. The site of incursion is the place where Paranglha-Chhu river; also known as Spiti Chhu enters the Tibetan (Chinese territory) The stream reeenters Indian Territory at Sumdah and flows through Kinnaur and Shimla in Himachal Pradesh. On the left side of river, there is no mark to divide border but just a narrow valley which is treated as the boundary between the two countries.

We learnt that on August 22 morning two Chinese helicopters violated international border and landed on a small flat piece of land. A version that they had landed on the Tibetan side of the border is not convincing. In that event the occupants of the flying machines would have had to walk at least one kilometre to cause the damage that they have done.

They landed on our side of the border to dismantle 17 of our bunkers. They have also dismantled a map of India drawn by arranging small white pieces of stones on a flat area near one of the bunkers.We found lot of white small round stones scattered near a dismantled bunker. The number of Chinese soldiers who acted as wreckers of our assets is said to be 14.

The forced entry of helicopters and 14 members of the People Liberation Army was observed by the Indo-Tibetan Border Police from its observation post located near Chumur Village which is about eight km from the site of incursion.

We are surprised to know that the incursion was reported by ITBP and ITBF (Indo-Tibetan Border Force) on August 25 whereas it has taken place on August 22. It is confirmed by the local villagers and official sources who don't wish to be identified. Why there should be an anomaly like this is not clear. It is possibly because at official levels there is a constant attempt to downplay Chinese mischief.

To attribute the Chinese interference to "difference in perceptions" is to overlook the concerns of our villagers living in faraway areas and shepherds who are discovering to their perils that their pastures face a threat of being swallowed by another country. I instantly recall what Mr Dorjay as the CEC had written in the Border Affairs in 2009 under the title "why should we retreat from our territory?" about the repeated Chinese misadventures into Leh district.

He had recorded in detail :-
It all began last winter - in December 2008 to be precise. The people of Kuyul and Demchok met me in Leh. They complained that they were being harassed by Chinese army. Their experience was harrowing in Skakjung winter pasture land where they had taken their goat and sheep for grazing.

The pasture was frequented by the inhabitants of Tsaga, Nyoma, Mug and Rongo apart from of course those from Kuyul and Demchok. Before I proceed further let me clarify why the Skakjung pasture is popular during harsh cold winter of Leh district at a height of about 14000 feet. The entire land measuring 60 kilometres by 5 kilometres is to the north of the Indus and is prohibited for grazing during summer. The result is that the grass is preserved for winter for lakhs of goats, sheep and yaks to savour and survive.

The entire movement of people and livestock is regulated through practices that have been in existence for centuries. It is in fact in keeping with the cycle of migration that they strictly adhere to all through the year. Skakjung figures in their winter itinerary.

The whole sequence is a tribute to the ingenuity of the nomadic population which have evolved a system for the upkeep of their animals for which the modern education and technology have found no alternative as yet. Skakjung is bordering Tibet which is under the Chinese occupation. It is virtually our lifeline during winter. What are we without our livestock which includes globally famous pashmina goat?

What the people of Kuyul and Demchok told me was startling. They said they had gone with their animals in the vast Skakjung belt to the point they would go every year. This time, however, they had an entirely different experience. As always they camped in the territory they knew was theirs. Much to their surprise one day they found the Chinese troops at their doorstep. They were asked to vacate the area as they were told that it was part of China.

There were heated arguments. They protested saying that they had been visiting the spot for generations. In support of their argument they pointed to the enclosures for animals and other tell-tale signs like fireplaces and indigenous toilets. The Chinese troops left after handing out a threat that they should not been seen at the same venue again. A feature of these exchanges was that the Chinese army had brought a Tibetan interpreter along to communicate with the Ladakhi nomads.

Our nomads decided to stay put. The Chinese came again and tore apart a tent of one family that was staying within our territory but closest to their border. The nomads repaired the tent and did not leave the place. There was no let-up in the Chinese efforts. They came for the third time with enhanced strength, fully armed and in vehicles accompanied by a video cameraman. They again took out their anger on the tent that they had damaged earlier. They dug it up and set it on fire at a distance. While leaving they announced that they would not permit any human or animal settlement in this area again.

On hearing the hair-raising tale I immediately left Leh for the actual spot of occurrence along with the local councillor, Mr Nawang Norbu, and some government officials. I took care to take a new tent along with me. I met the family that was hit by the Chinese and gave them the tent. I met everybody around and inquired from them about their welllbeing.AII of them expressed anxiety about the absence of drinking water as the nearby Indus was totally frozen at that time of the year. I promised them that the hand pumps would be installed very soon - something that I am satisfied to note is about to be completed shortly. The argument made then is relevant even today and for all times to come: the people should feel safe in their homeland and those in charge of ensuring their safety and security against foreign invasion should ensure that they continue to use the land and pastures that they have done so far. If their territory shrinks it is the country that suffers.

There is an official document emanating from Leh district that notes :-
"It is apprehended that the members of PLA of China may come again. The seriousness of the matter may be imagined from the fact that they are not even accepting it a disputed area but claiming it as their territory. Keeping in view the seriousness of the issue it needs a detailed estimation by the experts of Indo-China matters. Villagers & shepherds should be consulted and taken into confidence while planning any activity in the area as shepherds are the second line untrained but successfullbirds-view watchers of our borders. They have played an important role during Kargil War by informing about the activity of enemy across other side (Hanu). Moreover the age old grazing rights of local shepherds and villagers need to be protected in the area"

Why should we not heed to it? We ought to keep our eyes and ears wide open. It is only too well known that Pakistan has virtually given a free hand to China in Gilgit region of J&K which it is illegally occupying. There is a Chinese market in the main Gilgit town and China's contribution towards building the Karakoram highway is hardly a secret. Responsible people have said that Chinese armed forces too are being increasingly spotted in and around Gilgit.

It is possible that together Pakistan and China are building - if they have not already done so - army and air base against India and the erstwhile Soviet Union on the one hand and the US forces active in Afghanistan on the other hand. My own information is that the Chinese army men have been seen moving around across the Line of Control in our Batalik sector. This is the same area that Pakistan had used to push in its armed men only to be pushed back in the Kargil war of 1999. Is some sort of coalition being formed against India with China agreeing to lend a helping hand to Pakistan to avenge its earlier humiliation?  

(The writer is a member of the 14th Lok Sabha of India, and represents the Ladakh constituency.)


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सम्पादक : आशुतोष     सम्पादकीय सहयोग : पवन कुमार अरविंद 
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