Monday 17 October 2011

वर्ष एक, अंक 5, नई दिल्ली, अक्टूबर (1 व 2) 2011, कुल पृष्ठ 16


 विशेष
ज्यादा स्वायत्तता का अर्थ है, कल की स्वतंत्रता
     वार्ताकारों की रिपोर्ट पर फैसला सर्वदलीय बैठक के बाद
नई दिल्ली/जम्मू। कश्मीर मसले पर वार्ताकार पैनल ने अपनी रिपोर्ट भले ही केंद्रीय गृह मंत्रालय को सौंप दी है, लेकिन इसकी सिफारिशों पर अमल सर्वदलीय बैठक के बाद ही होगा। क्योंकि सरकार किसी भी विवाद का जिम्मा अकेले अपने ऊपर क्यों लेना चाहेगी? हालांकि, पिछले वर्ष 20 सितम्बर को हालात का जायजा लेने दो दिवसीय दौरे पर जम्मू-कश्मीर गये 39 सदस्यीय सर्वदलीय संसदीय प्रतिनिधिमंडल की सिफारिश पर ही वार्ताकार पैनल के गठन का फैसला किया गया था। इस कारण भी इसकी संभावना बनती है कि केंद्र सरकार इसके लिए सर्वदलीय बैठक बुलाएगी। इस प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व गृह मंत्री पी. चिदंबरम कर रहे थे, जिसमें संसद के दोनों सदनों- लोकसभा व राज्यसभा के नेता प्रतिपक्ष क्रमश: सुषमा स्वराज व अरुण जेटली, लोजपा प्रमुख रामबिलास पासवान सहित अन्य पार्टियों के नेता शामिल थे।
 केंद्र ने 12 अक्टूबर 2010 को वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पडगांवकर के नेतृत्व में तीन सदस्यीय वार्ताकार पैनल का गठन किया था। इसके दो अन्य सदस्य शिक्षाविद् प्रो. राधा कुमार और पूर्व सूचना आयुक्त एम.एम. अंसारी थे। गृह मंत्रालय ने वार्ताकारों को कश्मीर समस्या का विस्तृत अध्ययन कर इसके समाधान का रास्ता सुझाने के लिए कहा था। पैनल ने अपने एक वर्षीय कार्यकाल के अंतिम दिन यानी 12 अक्टूबर 2011 को अपनी रिपोर्ट गृह मंत्रालय को सौंप दी।
 रिपोर्ट सौंपने के बाद वार्ताकारों में से एक सदस्य ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि राज्य को और अधिक स्वायत्तता देने की सिफारिश की गयी है, पर यह 1953 के पहले जैसी नहीं होगी। हालांकि, तीनों वार्ताकारों- पडगांवकर, अंसारी और राधा कुमार ने रिपोर्ट के तथ्यों के बारे में अधिकृत रूप से कुछ भी बताने से इन्कार किया।
 इस संदर्भ में जम्मू विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. हरिओम का कहना है कि अगर रिपोर्ट स्वायत्तता की पैरवी करती है तो इसके नतीजे भयानक होंगे। जम्मू, लद्दाख के लिए अलग रीजनल काउंसिल बने तो यह ठीक रहेगा, लेकिन इसका स्वरूप क्या होगा, कहा नहीं जा सकता है।
 वहीं, भाजपा प्रवक्ता डॉ. जितेंद्र सिंह का कहना है कि पार्टी किसी भी ऐसे सुझाव को स्वीकार नहीं करेगी, जो देश की एकता व अखंडता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है। क्षेत्रीय भेदभाव व कई समस्याओं की जड़ अनुच्छेद 370 है, अगर रिपोर्ट इन्हें नजरअंदाज करती है, तो इसके परिणाम देशहित में नहीं होंगे।
 हालांकि, कश्मीर समस्या के समाधान के निमित्त विगत दस वर्षों में केंद्र का यह कोई प्रथम प्रयास नहीं है। इसके पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने श्रीनगर में 2425 मई 2006 को आयोजित राउंड टेबिल कान्फ्रेंस में कश्मीर समस्या पर गहन विचार विमर्श के लिए पांच कार्यदल गठित किये थे। बेहतर प्रशासनपर गठित कार्यदल के प्रमुख एन.सी. सक्सेना, ‘आर्थिक विकासपर सी. रंगाराजन, ‘नियंत्रण रेखा के आर-पार सम्बंध विकसित करनेएम.के. रसगोत्रा तथा विश्वसनीयता बढ़ाने के प्रश्नपर मोहम्मद हामिद अंसारी (अब उप-राष्ट्रपति) के नेतृत्व वाले कार्यदलों ने अपनी-अपनी रिपोर्ट 24 अप्रैल 2007 को केंद्र को सौंपी थी।

पांचवे कार्यदल के प्रमुख थे- जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति सगीर अहमद। न्यायमूर्ति अहमद ने अपनी रिपोर्ट में स्वायत्तता को अलगाववादी मांग नहीं माना और लिखा कि स्वायत्तता को बहाल करने के सम्बंध में प्रधानमंत्री स्वयं अपना तरीका व उपाय तय करें। उन्होंने अनुच्छेद 370 के अस्थाई दर्जे पर अंतिम फैसले की भी पैरवी की थी और कहा कि केन्द्र राज्य के बेहतर सम्बन्धों के लिये अनुच्छेद 370 पर अंतिम फैसला जरूरी है।
10 जनवरी 2010 को जम्मू में हुई बैठक में राज्य विधानसभा के सदस्यों- हर्षदेव, डॉ. अजय, अश्विनी कुमार, शेख अब्दुल रहमान और राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली ने रिपोर्ट को फर्जी और नेशनल कांफ्रेंस का एजेण्डा करार दिया था। इस पर जेटली ने सवाल उठाते हुए कहा था कि सितम्बर 2006 के बाद कार्यदल की कोई बैठक नहीं हुई तो यह रिपोर्ट कहां से आ गयी?
 दरअसल, जेटली का तर्क उचित ही था क्योंकि न्यायमूर्ति सगीर लम्बे समय से बीमार थे और कार्यदल की बैठकों में शामिल नहीं हो पाये थे। इस रिपोर्ट में नेशनल कांफ्रेंस की मांगों की शब्दावली है। उस समय यह चर्चा जोरों पर थी कि क्या इस रिपोर्ट को नेशनल कान्फ्रेंस के राजनैतिक इस्तेमाल के लिए ही कांग्रेस-नीत यूपीए सरकार ने तैयार करवाया है?
 जम्मू-कश्मीर मामले के अध्ययन के लिए पूर्व केंद्रीय विधि मंत्री राम जेठमालानी की समिति भी कार्य कर चुकी है। राज्य के वर्तमान राज्यपाल एन.एन. वोहरा भी कश्मीर पर केंद्र के वार्ताकार रह चुके हैं। सभी रिपोर्टों में कश्मीर समस्या की जटिलता की झलक स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। वैसे मौजूदा वार्ताकारों की रिपोर्ट में क्या है, इसकी जानकारी इसके सार्वजनिक होने के बाद ही पता चलेगी, लेकिन चर्चा इस बात की भी है कि वार्ताकारों की रिपोर्ट; विगत वर्षों में आयी न्यायमूर्ति सगीर सहित विभिन्न समितियों की रिपोर्टों से भिन्न नहीं होगी। यानी आज की ज्यादा स्वायत्तताका मतलब है, कल की स्वतंत्रता। (वितस्ता ब्यूरो)
 
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विशेष

अ.भा. कार्यकारी मंडल की बैठक सम्पन्न
राष्ट्रीय सुरक्षा पर केंद्र का रवैया चिंताजनक : आरएसएस
गोरखपुर। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने राष्ट्रीय कार्यकारी मंडल, गोरखपुर की तीन दिवसीय (14 से 16 अक्टूबर) बैठक में देश की सीमाओं पर बढ़ते तनाव, सीमापार से देश में अलगाववाद व आतंकवाद को बढ़ावा देने की बढ़ती घटनाओं के प्रति गंभीर चिंता व्यक्त की है। संघ ने राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध उभरते इन खतरों के प्रति केंद्र सरकार का ध्यान आकृष्ट कराने के निमित्त प्रस्ताव भी पारित किये हैं।

प्रस्ताव में कहा गया है- चीन भारतीय सीमा पर सैन्य दबाव बनाने के साथ-साथ वहाँ पर बार-बार सीमा का अतिक्रमण करते हुए सैन्य व असैन्य सम्पदा की तोड़-फोड़ एवं सीमा क्षेत्र में नागरिकों को लगातार आतंकित कर रहा है। भारत की सुनियोजित सैन्य घेराबन्दी करने के उद्देश्य से हमारे पड़ोसी देशों में चीन की सैन्य उपस्थिति, वहाँ उसके सैनिक अड्डों का विकास व उनके साथ रणनीतिक साझेदारी को भी गम्भीरता से लेने की आवश्यकता है। पाकिस्तान का भारत के विरुद्ध सशस्त्रीकरण व वहाँ पर भारत विरोधी आतंकवाद को संरक्षण, पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर में चीन की सैन्य सक्रियता  हमारी चिंता के कारण हैं।” 
 संघ का मानना है कि सीमापार से देश में आतंकवाद व अलगाववाद को बढ़ावा देने के साथ-साथ पूर्वोत्तर के उग्रवादी गुटों को चीन का सक्रिय सहयोग देश की एकता व अखण्डता को सीधी चुनौती है। चीन द्वारा अपने साइबर योद्धाओं के माध्यम से देश के संचार व सूचना तंत्र में सेंध लगाने की घटनाएँ एवं देश के विविध संवेदनशील स्थानों के निकट अत्यन्त अल्प निविदा मूल्य पर परियोजनाओं में प्रवेश के माध्यम से अपने गुप्तचर तंत्र का फैलाव भी देश की सुरक्षा के लिये गम्भीर संकट उत्पन्न करने वाला है।
 चीन द्वारा 1962 के युद्ध में हस्तगत की गयी देश की 38,000 वर्ग किमी भूमि को वापस लेने के उसी वर्ष के 14 नवम्बर के संसद के संकल्प को भारत सरकार ने तो विस्मृत ही कर दिया है। दूसरी ओर चीन हमारे देश की 90,000 वर्ग किमी अतिरिक्त भूमि पर और दावा जता रहा है, जिस पर सरकार की प्रतिक्रिया अत्यन्त शिथिल रही है। इन दावों व सीमा क्षेत्र में चीन की सैन्य गतिविधियों को देखते हुए सीमा क्षेत्र की सुरक्षा के लिए जैसी आधारभूत संरचनाएँ यथा दूरसंचार, रेल, सड़क व विमानपत्तन आदि की सुविधाएँ चाहिये, उनके विकास के प्रति भी सरकार की घोर उपेक्षा अत्यन्त चिन्तनीय है।
 कार्यकारी मंडल का मानना है कि भारत की पश्चिमी सीमा पर पाकिस्तान की गतिविधियां भी चिन्ताजनक हैं। स्वयं प्रधानमंत्री ने सेना के कमाण्डरों को सम्बोधित करते हुए स्वीकार किया है कि सीमा पार से घुसपैठ की घटनाओं में विगत कुछ माह के दौरान अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। एक अनुमान के अनुसार अकेले कश्मीर की सीमा पर विगत साढ़े चार माह के दौरान छिटपुट फायरिंग या घुसपैठ की 70 घटनाएँ घटी हैं। पाक सेना में कट्टरपंथियों का बढ़ता प्रभाव वहां के परमाणु हथियारों की सुरक्षा को लेकर भी एक गम्भीर चुनौती बनता जा रहा है।
प्रस्ताव में कहा गया है कि विगत दिनों सम्पूर्ण विश्व में आतंकवाद का सरगना माने जाने वाले ओसामा बिन लादेन का पाकिस्तान में मारा जाना और वहाँ उसकी सपरिवार वर्षों तक रहने की पुष्टि, पाकिस्तानी सेना व आई.एस.आई. के अन्तरराष्ट्रीय आतंकवाद के साथ गहरे सम्बन्धों को प्रकट करता है। यह भी उल्लेखनीय है कि ओसामा को पकड़ने में मदद करने वाले चिकित्सक को गिरफ्तार कर उसपर देशद्रोह का मुकदमा चलाया जा रहा है।
पाकिस्तान लगातार अफगानिस्तान में हामिद करजई सरकार को अस्थिर करने का प्रयास कर रहा है। अपने आन्तरिक कारणों से अगले वर्ष से आरम्भ करते हुए अमरीकी सेना के वहाँ से हटने की स्थिति में पाकिस्तान वहाँ पुनः भारत विरोधी कट्टरपंथी तालिबान को सत्ता में लाना चाहता है। अफगानिस्तान में ऐसी कोई परिस्थिति भारत के लिए सीधी चुनौती होगी। अखिल भारतीय कार्यकारी मण्डल पाक-अफगानिस्तान क्षेत्र की इन घटनाओं की तरफ सरकार का ध्यान आकृष्ट करना चाहता है।
 प्रस्ताव में यह भी कहा गया है- विगत दिनों दिल्ली उच्च न्यायालय के बाहर हुए विस्फोट में एक बार पुनः आईएसआई की संलिप्तता के प्रमाण मिले हैं। इधर इस बात के भी पर्याप्त प्रमाण मिल रहे हैं कि माओवादियों को मदद पहुंचाने में आईएसआई का नेटवर्क चीन की मदद कर रहा है। पाक-अफगानिस्तान में सक्रिय अत्यन्त खतरनाक हक्कानी गुट के आईएसआई से सम्बन्ध की बात अब जगजाहिर है। परन्तु इस सारे परिप्रेक्ष्य में भारत सरकार का रवैया अभी भी निष्क्रियता का ही बना हुआ है।
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समाचार
कश्मीर केंद्रित फार्मूला बर्दाश्त नहीं : आरएसएस
जम्मू। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहनराव भागवत ने कहा कि अलगाववादियों को खुश करने के लिए जम्मू-कश्मीर में देश की संप्रभुता से खिलवाड़ बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। केंद्र के वार्ताकारों की आड़ में राज्य में कोई रेडीमेड फार्मूला लागू करने की कोशिश हुई तो पूरे देश में लोकतांत्रिक आंदोलन होगा। विगत दिनों (23 सितम्बर को) राज्य के पांच दिवसीय दौरे पर आए डॉ. भागवत जम्मू क्लब में बुद्धिजीवियों की बैठक को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान व चीन जैसे दुश्मन देशों से घिरे जम्मू-कश्मीर के हालात चिंताजनक हैं। लिहाजा, यहां राष्ट्रवाद की भावना को मजबूत बनाना जरूरी है। संघ प्रमुख ने राज्य में सक्रिय देशविरोधी तत्वों के मंसूबों को नाकाम बनाने के लिए एकजुटता पर जोर दिया और कहा कि गृहमंत्री पी. चिदंबरम जैसे नेता अलगाववादियों को खुश करने के लिए कश्मीर केंद्रित नीतियां अपना रहे हैं। उन्होंने कहा कि संघ वर्ष 1953 के आंदोलन की तर्ज पर जम्मू-कश्मीर के मसले पर देशभर में लोकतांत्रिक आंदोलन की रणनीति बनाएगा।
डॉ. भागवत ने कहा कि राज्य में राष्ट्रवादी ताकतों का मजबूत होना जरूरी है। बैठक में विमर्श सत्र के दौरान राज्य में जम्मू संभाग, रिफ्यूजियों, कश्मीरी पंडितों की सम्मानजनक घाटी वापसी, पूर्व सैनिकों से हो रहे भेदभाव का मुद्दा जोरशोर से उठा। जम्मू-कश्मीर में अलग विधान, अलग निशान से संबंधित प्रश्न के उत्तर में डॉ. भागवत ने कहा कि संघ वर्ष 1953 के आंदोलन की तर्ज पर इन मुद्दों को लेकर आंदोलन करने पर विचार करेगा। इस दौरान राज्य में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के साथ लद्दाख में चीन के बढ़ते हस्तक्षेप का मुद्दा भी उठा।  
 ढुलमुल नीति का परिणाम है कश्मीर समस्या
नागपुर। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहनराव भागवत ने विगत दिनों नागपुर में विजयादशमी कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कहा कि कश्मीर की समस्या मात्र राजनीतिक नहीं बल्कि विदेश प्रेरित आतंकवाद और उसके मुकाबले हमारी असमंजसभरी ढुलमुल नीति का परिणाम है। डॉ. भागवत ने कहा कि जम्मू-कश्मीर में 1953 से पूर्व की स्थिति की मांग अलगाववादियों की साजिश है। इस साजिश को लोकतांत्रिक तरीके से समाप्त करने की नीति बनायी जानी चाहिए। उन्होंने कहा कि कश्मीर समस्या के समाधान के लिए संसद द्वारा 1994 में सर्वसम्मति से पारित प्रस्ताव को आधार बनाया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि पाक अधिकृत कश्मीर को भारत में वापस लाना ही कश्मीर की शेष बची समस्या है, यही बातचीत का आधार होना चाहिए। उन्होंने अनुच्छेद 370 को भारत की एकता में बाधक बताते हुए इसको समाप्त करने की वकालत की।
 कश्मीर पर प्रशांत के बयान निजी
नयी दिल्ली। कश्मीर मुद्दे पर विवादास्पद बयान के बाद टीम अन्ना के सदस्य एवं उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं। टीम अन्ना की सदस्य किरण बेदी ने प्रशांत के बयान से खुद को अलग कर लिया है और कहा कि यह उनके निजी विचार हैं। प्रशांत के बयान के संदर्भ में पूछे गये एक प्रश्न के उत्तर में बेदी ने माइक्रो ब्लॉगिंग वेबसाइट टि्वटर पर कहा, “यह प्रशांत भूषण जी के निजी विचार हैं। मैं जम्मू-कश्मीर में सुशासन और जनता के उससे बेहतर जुड़ाव के हक में हूं।
सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश ने भी प्रशांत के बयान की निंदा की और कहा, जम्मू-कश्मीर का भारत के साथ विलय पूरी तरह से अंतिम है। इस संदर्भ में 1947 से पहले की स्थिति में नहीं लौटा जा सकता। ज्ञातव्य है कि वरिष्ठ अधिवक्ता भूषण ने पिछले सप्ताह वाराणसी में कहा था कि कश्मीर में जनमत-संग्रह होना चाहिये। भूषण के इस बयान पर बुधवार (12 अक्टूबर) को कुछ युवकों ने उच्चतम न्यायालय स्थित उनके चैंबर में घुसकर उनकी काफी धुनाई की थी। 
 कश्मीर में जनमत-संग्रह कराने की बात निंदनीय
नई दिल्ली। कश्मीर में जनमत-संग्रह कराने संबंधी प्रशांत भूषण के बयान को कांग्रेस ने बेहद निंदनीय बताते हुए इसे पूरी तरह खारिज कर दिया है। कांग्रेस प्रवक्ता राशिद अल्वी ने जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बताया और प्रशांत भूषण के बयान को अनुचित करार दिया। उन्होंने कहा कि संविधान में जनमत-संग्रह का कोई प्रावधान नहीं है। वहीं, केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने भी कहा कि यह प्रशांत भूषण की निजी राय हो सकती है और हर कोई अपनी राय रखने को स्वतंत्र है। लेकिन इस मामले में सरकार की राय अलग है। उन्होंने कहा कि जनमत-संग्रह की मांग को बहुत तवज्जो देने की जरूरत नहीं है क्योंकि सरकार का मत पूरी तरह से अलग है। 
 
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पीओके में मौजूद हैं चीनी सैनिक
नई दिल्ली। पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) में चीनी सैनिकों की संख्या और मौजूदगी की शीर्ष सैन्य नेतृत्व ने पुष्टि कर दी है। सेना प्रमुख जनरल वीके सिंह के मुताबिक पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर में करीब चार हजार चीनी मौजूद हैं। इनमें चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी के सैनिक भी हैं। पीओके में चीनी मौजूदगी न केवल पाकिस्तान और चीन की नापाक साझेदारी का सुबूत है, बल्कि भारत के लिए चिंता का सबब भी। जनरल सिंह ने कहा कि पीओके में चीन की कई कंस्ट्रक्शन टीमें काम कर रही हैं। ऐसे करीब तीन से चार हजार लोग हैं जिनमें कई सुरक्षा कारणों से हैं। इनमें कई इंजीनियर टुकडि़यां भी हैं। फील्ड मार्शल केएम करियप्पा स्मृति व्याख्यान कार्यक्रम के बाद सेनाध्यक्ष पाक अधिकृत कश्मीर में चीनी सैनिकों की मौजूदगी के सवालों के जवाब दे रहे थे। इससे पहले वायुसेना प्रमुख एनएके ब्राउनी भी कह चुके हैं कि पाक अधिकृत कश्मीर में चीनी सैनिकों की मौजूदगी ने भारत का ध्यान खींचा है। अप्रैल 2011 में उत्तरी कमान के तत्कालीन प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल केटी परनायक ने कहा था कि गिलगिट और बाल्टिस्तान क्षेत्र में चीनी सैनिकों की संख्या लगातार बढ़ रही है।
उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया था पाक-चीन गठजोड़ भारत और पाक के बीच किसी संघर्ष की सूरत में भारतीय सुरक्षा हितों को प्रभावित करेगा। सूत्रों के मुताबिक जब भी भारत ने चीन के साथ मामला उठाया है तो उसे जवाब दिया गया कि बीजिंग पाकिस्तान की स्थिरता के लिए मदद करने की इच्छा से वहां है। भारतीय खेमा मानता है कि चीनी सैनिकों को किसी भी सूरत में पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में रहने का हक नहीं है। अगस्त 2010 में पाक अधिकृत कश्मीर में चीनी सैनिकों की मौजूदगी के बाबत अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय मीडिया में आई खबरों के बाद सरकार ने कहा था कि भारत इन सूचनाओं की पड़ताल कर तथ्यों की पुष्टि कर रहा है।
 गृह मंत्रालय को सौंपी घुसपैठ की रिपोर्ट
लेह। चीनी सैनिकों द्वारा भारतीय सीमा में घुसपैठ से संबंधित रिपोर्ट को जम्मू-कश्मीर सरकार ने केंद्रीय गृह मंत्रालय को सौंप दी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि बीते 25 अगस्त को लेह से 300 किलोमीटर दूर स्थिति न्योमा सेक्टर के चुनार डिविजन में चीनी सैनिक हेलीकाप्टर से उतरे और वहां भारतीय सेना के कुछ बंकर और टेंट नष्ट कर दिए थे। हालांकि इन बंकरों का इस्तेमाल सेना ने काफी पहले बंद कर दिया था। इसके पहले जुलाई 2009 में भी चीनी सैनिकों ने भारतीय सीमा में इसी तरह घुसपैठ की थी। हालांकि, ऊधमपुर सैन्य बेस के प्रवक्ता कर्नल राजेश कालिया ने चीनी घुसपैठ से इन्कार किया है, लेकिन एयर फोर्स के चीफ मार्शल एनएके ब्राउनी ने इसके बारे में पूछने पर कहा कि हमने आइटीबीपी के महानिदेशक रंजीत सिन्हा से बात की है और जरूरी कदम उठाने का कहा है। घुसपैठ की प्राथमिक सूचना न्योमा तहसील के सब डिवीजनल मजिस्ट्रेट ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को भेजी थी। लेह के डिप्टी कमिश्नर ने जांच के बाद रिपोर्ट को आगे भेजा। 
 लद्दाख में पूरी सतर्कता बरतें जवान : परनायक
जम्मू। लद्दाख में चीन के चुनौती का सामना कर रही भारतीय सेना को हर कीमत पर वास्तविक नियंत्रण रेखा की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कहा गया है। चीनी सेना के लद्दाख के सीमांत इलाकों में लगातार घुसपैठ करने से क्षेत्र के हालात तनावपूर्ण बने हुए हैं। इसका जायजा लेने के लिए विगत दिनों दो दिवसीय दौरे पर पहुंचे उत्तरी कमान प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल केटी परनायक ने कहा कि सीमा की गरिमा को काई ठेस न पहुंचे, इसके लिए कड़ी सर्तकता बरती जानी चाहिए।  उन्होंने चीन से सटे पूर्वी लद्दाख की सीमा पर मौजूदा चुनौतियों व उनसे निपटने के लिए सेना द्वारा की गई तैयारियों के बारे में जीओसी लेफ्टिनेंट जनरल रवि दस्ताने से जानकारी ली। 
 घाटी में हालात सुधरने से उग्रवादी हताश
नई दिल्ली। उदारवादी हुर्रियत नेता मौलाना फजल हक कुरैशी की हत्या के प्रयास से उग्रवादियों की निराशा झलकती है। जम्मू-कश्मीर में हालात सुधरने से उग्रवादी निराश हैं। स्वीडिश वेबसाइट विकिलीक्स से जारी केबल में वरिष्ठ हुर्रियत नेता बिलाल लोन के हवाले से ये बातें कही गई हैं। भारत में अमेरिका के तत्कालीन राजदूत टिमोथी रोएमर ने अपने देश यह केबल भेजा था। इसमें लोन को यह कहते हुए प्रस्तुत किया गया है कि वह खुद तो डरे हुए नहीं हैं, लेकिन इस घटना ने हुर्रियत के कुछ नरमपंथी नेताओं में असुरक्षा की भावना उत्पन्न कर दी है। लोन ने अमेरिकी दूतावास के एक अधिकारी के समक्ष यह विचार व्यक्त किया था। लोन हुर्रियत और केंद्र सरकार के बीच बातचीत करने वालों में शामिल थे। उन्होंने बातचीत को तर्कपूर्ण मुकाम तक पहुंचाने की इच्छा जताई थी। इसके साथ ही लोन ने यह भी कहा था कि कट्टरपंथियों और पाकिस्तान को भी बातचीत में साथ लाया जाना चाहिए। गौरतलब है कि आतंकियों द्वारा फजल हक पर चार दिसंबर 2009 को श्रीनगर में हमला किया गया था। इस हमले को केंद्र सरकार के साथ वार्ता में शामिल होने वाले अलगाववादियों के नरमपंथी गुट के प्रति चेतावनी के तौर पर देखा गया था।

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समाचार
पाक सेना ने अपने हाथ ली घुसपैठ की जिम्मेदारी
श्रीनगर। पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई ने अब न सिर्फ सीधे तौर पर आतंकियों को भारतीय सीमा में घुसपैठ कराने की जिम्मेदारी अपने हाथ में ले ली है, बल्कि उन्हें गुरिल्ला युद्ध की ट्रेनिंग भी दी जा रही है। यह खुलासा उत्तरी कश्मीर के कुपवाड़ा जिले में विगत दिनों पकड़े गए पाकिस्तानी आतंकी निसार अहमद ने पूछताछ के दौरान किया है। निसार की मानें तो आतंकी संगठन अब नशेड़ी युवकों को भी बड़े पैमाने पर अपने कैडर में शामिल कर रहे हैं। निसार अहमद पुत्र अली रहमान कराची का निवासी है। उसके पास से न सिर्फ हथियार, अत्याधुनिक संचार उपकरण, जीपीएस और खाद्य सामग्री मिली, बल्कि नशीले पदार्थ भी बरामद हुए हैं। पूछताछ के दौरान उसने कई सनसनीखेज खुलासे किये। उसने बताया कि वह खुद भी एक नशेड़ी है और हेरोइन का आदि है।
निसार ने बताया कि उसके घर की हालत अत्यंत दयनीय है। वह नशे की लत का शिकार था और उसके भाई ने उसे लश्कर-ए-तैयबा के भर्ती कमांडर को कुछ पैसों के बदले सौंप दिया। इसके बाद वह कराची में लश्कर के एक केंद्र में रहा, जहां उसकी तरह कुछ और लड़के भी थे। इसके बाद उन सभी को 12-12 के समूह में बांटते हुए मनशेरा स्थित आतंकी ट्रेनिंग कैंप में भेजा गया, जहां जिहाद का पाठ पढ़ाने के अलावा उन्हें विभिन्न प्रकार के हथियार चलाने की ट्रेनिंग दी गई। निसार ने बताया कि मनशेरा कैंप में पाकिस्तानी सेना और आईएसआई के अधिकारी अक्सर उन्हें गुरिल्ला युद्ध की ट्रेनिंग देने आते थे। इस कैंप का कमांडर अब्दुल्ला शाहीन था। उसने बताया कि मनशेरा के बाद सभी लड़कों को जामगड़ के कैंप में आगे की ट्रेनिंग दी गई। इसके बाद सभी को केल स्थित सेना के गैरिजन कैंप में लाया गया, जहां पाकिस्तानी फौजियों की तरह हमें ट्रेनिंग दी गई। केल कैंप में ट्रेनिंग के बाद हम सात लोगों का एक दल बना, उसका लीडर अबु तल्हा को बनाया गया। हमें जिस लांचिंग पैड पर लाया गया, वहां भी पाकिस्तानी सेना के अफसर थे।
 निसार ने बताया कि 27 सितम्बर की रात को हमें एलओसी पार कर कश्मीर में भेजा गया, लेकिन बार्डर पर ही हमारी मुठभेड़ भारतीय जवानों के साथ हो गई। तल्हा के साथ हम सभी लोग लौटने लगे, इसी दौरान मैं एक नाले में गिर गया और पकड़ा गया। ज्ञातव्य है कि 27/28 सितंबर की मध्यरात्रि को एलओसी के साथ सटे मच्छल सेक्टर में आतंकियों ने घुसपैठ का प्रयास किया था। लेकिन वहां तैनात भारतीय जवानों ने इस प्रयास को नाकाम बना दिया। सेना की 15वीं कोर के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन ने निसार के जिंदा के पकड़े जाने की पुष्टि करते हुए बताया कि उसने हमें कई अहम सुराग दिए हैं। उसने बताया है कि अब पाकिस्तानी सेना और आईएसआई के अधिकारी आतंकी ट्रेनिंग कैंपों में एक बार फिर सार्वजनिक तौर पर आने लगे हैं। इसके अलावा पाक अधिकृत कश्मीर में अधिकांश आतंकी ट्रेनिंग कैंप पाकिस्तानी सेना के प्रतिष्ठानों के साथ ही जुड़े हैं या उनके भीतर से संचालित हो रहे हैं।  
 आईएसआई ने अगस्त में कराये 80 घुसपैठ
 नई दिल्ली। पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई इन दिनों भारत में अस्थिरता फैलाने के लिए कुछ ज्यादा ही सक्रिय हो गया है। इसके लिए वह भारत में अधिकाधिक प्रशिक्षित आतंकियों को भेजने की फिराक में है। आईएसआई का प्रयास है कि बर्फबारी के कारण दर्रे बंद होने के बावजूद कश्मीर व आसपास के अन्य क्षेत्रों में आतंकी घटनाएं कम न होने पाएं। पिछले दिनों मच्छल सेक्टर में गिरफ्तार पाकिस्तानी आतंकी निसार अहमद ने पूछताछ में बताया कि आईएसआई ने घुसपैठ सुनिश्चित करने के लिए पाकिस्तान सेना व आतंकी गुटों के साथ मिलकर साझा समन्वय समूह गठित किया है। निसार 12 पाकिस्तान प्रशिक्षित आतंकियों के समूह के साथ भारतीय सीमा में घुसपैठ की फिराक में था। मुठभेड़ में अब तक उसके 6 साथी मारे जा चुके हैं।
प्राप्त जानकारी के अनुसार, आईएसआई के सहयोग से आतंकियों ने अगस्त माह में नियंत्रण रेखा (एलओसी) के समीप घुसपैठ के 80 प्रयास किये। इस दौरान 15 आतंकी मुठभेड़ में मारे गए और चार जीवित पकड़ लिए गए। इन सभी ने अपने प्रशिक्षण से लेकर घुसपैठ के प्रयासों तक में आईएसआई की भूमिका के बारे में विस्तार से भारतीय सुरक्षा बलों को जानकारी दी है। सितम्बर माह में 15 दफा प्रयास कर कुछ आतंकी भारत में घुसने में सफल हुए। जनवरी से जुलाई तक सीमा पार से घुसपैठ के 95 प्रयासों में 15 सफल हुए। इस दौरान सुरक्षा बलों ने 10 आतंकियों को मुठभेड़ में मार गिराया।

कश्मीर में घुसपैठ के फिराक में 600 आतंकी
श्रीनगर। उत्तरी कश्मीर में शमसबारी रेंज और उड़ी सेक्टर के पार लगभग 600 आतंकियों के घुसपैठ के लिए जमा होने की सूचना पर सेना ने एलओसी पर सुरक्षा व्यवस्था कड़ी कर दी है। श्रीनगर स्थित सेना की 15 कोर के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन ने इस बात की पुष्टि की है। मच्छल सेक्टर में एलओसी से सटे दुदी गांव में विगत दिनों पत्रकारों बातचीत में हसनैन ने कहा कि अगले दो माह में घुसपैठ की कोशिशों में तेजी आ सकती है। आतंकी सरगना और उनके संरक्षक चाहते हैं कि पहाड़ों पर बर्फ गिरने और घुसपैठ के रास्तों के बंद होने से पहले ज्यादा संख्या में घुसपैठियों को इस तरफ धकेला जा सके। हम इससे निपटने के लिए पूरी तरह तैयार हैं। संवेदनशील इलाकों में सुरक्षा व्यवस्था कड़ी करते हुए चौकसी बढ़ा दी गई है।
हाल ही में कंगन में स्वात घाटी से संबंधित दो आतंकियों के मारे जाने पर उन्होंने कहा कि पहले भी कश्मीर में पश्चिमोत्तर पाकिस्तान और अफगानिस्तान के आतंकी मारे जा चुके हैं। अभी कुछ साल पहले केरल के आतंकी भी यहां मारे गए हैं। वर्ष 2011 बहुत ही महत्वपूर्ण वर्ष है। इस साल हमने लश्कर और हिज्ब के 19 नामी कमांडरों को मार गिराया है। आतंकी संगठनों की कमर लगभग टूट चुकी है। वह हताश हैं और अपनी जान बचाने के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं। इसलिए अपने कैडर का मनोबल बढ़ाने और आतंकवाद को जिंदा रखने के लिए एलओसी पर बैठे आतंकी सरगना व उनके संरक्षक चाहते हैं कि वह ज्यादा से ज्यादा आतंकियों को इस तरफ भेज सकें। अगर हमने इस साल उनकी घुसपैठ को पूरी तरह नाकाम बना लिया तो अगले साल यकीनन कश्मीर के हालात पूरी तरह बदल जाएंगे और यहां पूरी तरह खुशहाली होगी। उन्होंने स्वीकार किया कि इस साल अब तक 30 से 40 आतंकियों के सीमा पार से घुसपैठ करने की सूचनाएं है।
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आईएसआई की साजिश नाकाम
नई दिल्ली। दीवाली से पहले देश की राजधानी को दहलाने की आईएसआई की बड़ी साजिश नाकाम हो गई। सुरक्षा एजेंसियों की मुस्तैदी से दिल्ली भेजे गए पांच किलो आरडीएक्स, पांच डिटोनेटर, दो टाइमर और दो बैटरी के साथ दहशत के पूरे साजोसामान से लदी कार को 13 अक्टूबर को अंबाला में ही पकड़ लिया गया। खुफिया ब्यूरो की पूर्व सूचना के बावजूद कार में आरडीएक्स लाने वाले आतंकियों का बच निकलना एजेंसियों की बड़ी चूक मानी जा रही है। अब टोल प्लाजा पर लगे सीसीटीवी कैमरों की मदद से आतंकियों की पहचान की कोशिश की जा रही है।
सुरक्षा एजेंसियों के अनुसार, आरडीएक्स की यह खेप आईएसआई ने बब्बर खालसा इंटरनेशनल के आतंकियों के लिए भेजी थी, जिसे जम्मू-कश्मीर में सक्रिय लश्कर तैयबा के आतंकियों ने उपलब्ध कराया था। खुफिया एजेंसियों को 12 दिन पहले ही आतंकियों की योजना की भनक लग गई। इस संबंध में हरियाणा और पंजाब पुलिस समेत तमाम एजेंसियों को सचेत कर दिया गया था। इसमें पाकिस्तान स्थित खुफिया सूत्रों ने अहम भूमिका निभाई। बाद में एजेंसियों को यह भी पता चल गया कि जम्मू-कश्मीर से दहशत का सामान इंडिका कार में भेजा जा रहा है और अंबाला में इसे दूसरी गाड़ी में रखकर दिल्ली तक ले जाया जाएगा। जाहिर है एजेंसियों के लिए कार को अंबाला में ही रोककर विस्फोटक बरामद करना जरूरी हो गया। पुलिस को यह कार अंबाला कैंट रेलवे स्टेशन के बाहर मिली, पर विस्फोटक लाने वाले आतंकी फरार होने में सफल रहे।  
 चुनाव के लिए रजामंद थे अलगाववादी
नई दिल्ली। कश्मीर का अलगाववादी संगठन हुर्रियत कांफ्रेंस राज्य में होने वाले चुनाव में शामिल होना चाहता था। हुर्रियत कांफ्रेंस के उदारवादी ध़डे के नेताओं ने 2007 में अमेरिका राजदूत से दिल्ली में एक मुलाकात के दौरान चुनाव में शिरकत पर रजामंदी जाहिर की थी। इसके बदले उन्होंने अहम राजनीतिक रियायतों के ऐलान की मांग की थी। यह खुलासा चर्चित वेबसाइट विकीलीक्स ने किया है। अब तक चुनावों को "दिखावा" बतानेवाले और उनका बहिष्कार करने वाले हुर्रियत कांफ्रेंस से संबंधित यह रहस्योद्घाटन उन ढाई लाख राजनयिक संदेशों का हिस्सा है, जो विकीलीक्स ने विगत दिनों जारी किये हैं। हालांकि विकीलीक्स के खुलासे को हुर्रियत कांफ्रेंस ने "आधा सच और आधा झूठ" करार दिया है।
दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास की ओर से फरवरी 2007 में भेजे गए संदेश में राजदूत मलफोर्ड की हुर्रियत नेता बिलाल गनी लोन से मुलाकात का जिक्र करते हुए कहा गया है कि हुर्रियत का यह ध़डा चुनाव के लिए तैयार है, लेकिन चाहता है कि भारत पहले कुछ राजनीतिक रियायतों की घोषणा करे। बिलाल लोन पृथकतावादी नेता अब्दुल गनी लोन के बेटे हैं, जिनकी करीब आठ साल पहले हत्या कर दी गई थी। उनके छोटे भाई सज्जाद गनी लोन ने सांसद का चुनाव ल़डा था, लेकिन हार गये थे। दूतावास के संदेश में कहा गया है कि बिलाल अलगाववादियों के सभी ध़डों को एक मंच पर लाना चाहते हैं। संदेश के मुताबिक बिलाल कहते हैं कि गिलानी तो कट्टरपंथी खयालत के हैं, वे नहीं मानेंगे। शब्बीर शाह हाशिए पर हैं, लेकिन यासीन मलिक से हम बात करेंगे। वह अगर चुनाव न ल़डें तो कम से कम खुलेआम उसका विरोध न करने का वादा जरूर करें।
 अफजल की फाइल से भी राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा
नई दिल्ली। सूचना अधिकार कानून (आरटीआई) की धार कुंद करने में जुटी सरकार ने कैबिनेट को मिली छूट का हवाला देकर संसद हमले के दोषी मो. अफजल की दया याचिका से जुड़ी सूचनाओं के खुलासे से इंकार कर दिया है। गृह मंत्रालय का कहना है कि आरटीआई के तहत कैबिनेट को दस्तावेजों के खुलासे से छूट प्राप्त है। अगर अफजल मामले का खुलासा किया तो राष्ट्रीय सुरक्षा पर प्रभाव पड़ सकता है। गृह मंत्रालय ने आरटीआइ कार्यकर्ता सुभाष चंद्र अग्रवाल की अर्जी के जवाब में कहा है कि वह अफजल मामले की सूचनाएं सार्वजनिक नहीं कर सकता। मंत्रालय को आरटीआइ की धारा 8 (1) ,जी और आइ के तहत कैबिनेट को तीन तरह की सूचनाएं सार्वजनिक न करने की छूट प्राप्त है। धारा आठ-1 (ए) उन सूचनाओं को सार्वजनिक न करने की छूट प्रदान करता है, जिनसे भारत की संप्रभुता व अखंडता, सुरक्षा, देश के सामरिक, वैज्ञानिक व आर्थिक हितों तथा अन्य देशों से जुड़े संबंध प्रभावित होते हों। हालांकि, केंद्रीय सूचना आयोग ने मौत की सजा का इंतजार कर रहे कैदियों की ओर से दायर दया याचिकाओं से जुड़ी फाइल नोटिंग जारी करने की इजाजत दी है। इन लोगों के जीवन व स्वतंत्रता को ध्यान में रखकर यह इजाजत दी गई है। गृह मंत्रालय ने इससे पहले राष्ट्रपति के पास भेजी गई विभिन्न दया याचिकाओं पर फाइल नोटिंग के ब्योरे को मुहैया किया है। अग्रवाल का कहना है कि वह मंत्रालय के रुख में बदलाव से आश्चर्यचकित हैं, जिसके तहत छूट प्रदान करने वाली धाराओं का हवाला कुछ चुने हुए मामलों में सूचना देने से इंकार करने में किया गया है।
 अफजल को तत्काल फांसी देने की मांग
ऊधमपुर। कई राजनीतिक दलों द्वारा की जा रही अफजल गुरु की फांसी की सजा माफ करने की मांग के विरोध में विगत दिनों जिला बार एसोसिएशन ने अदालती काम ठप रखा। बार एसोसिएशन के सचिव लोहित शर्मा की अध्यक्षता में हुई बैठक में अफजल गुरु की फांसी की सजा माफ करने की मांग व उसका समर्थन कर रही राजनीतिक पार्टियों की अधिवक्ताओं ने कड़ी आलोचना की।
अधिक्ताओं ने कहा कि संसद पर हमले के दोषी की सजा किसी भी सूरत में माफ नहीं होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि राजनीतिक लाभ हासिल करने के लिए राज्य सरकार आतंकियों के प्रति इस तरह का रवैया अपना रही है। इससे आतंकियों का मनोबल बढ़ेगा। अधिवक्ताओं ने कहा कि अभियोजन शुरू होने से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक अफजल को खुद का बचाव करने का हर मौका मिला। बार सदस्यों ने अफजल को शीघ्र फांसी देने की मांग की। इस अवसर पर साहिल रैना, आईडी शर्मा, अजय बंद्राल, पवन जंडयाल, दिनकर गुप्ता, गुलशन सिंह, सन्नी महाजन,राजेश जंडयाल सहित बार एसोसिएशन के सैंकड़ों सदस्य उपस्थित थे। 
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मंदिरों की सुरक्षा सुनिश्चित करे सरकार  
जम्मू। जम्मू-कश्मीर में हिंदुओं की सांस्कृतिक विरासत की सुरक्षा के प्रति उदासीन रवैये के खिलाफ आल पार्टीज माइग्रेंट्स कोआर्डिनेशन कमेटी के सदस्यों का आमरण अनशन पर बैठना गहन चिंता का विषय है। दु:ख की बात यह है कि आतंकवाद के दौरान कश्मीर घाटी में सैकड़ों मंदिर विखंडित हो गए थे और कई मंदिरों पर अवैध कब्जा हो चुका है। लेकिन सरकार की मंदिरों के संरक्षण प्रति कोई ठोस नीति न होने के कारण कमेटी के सदस्य पिछले कई दिनों से हड़ताल पर बैठे हुए हैं। जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद ने पर्यटन को प्रोत्साहित करने और राज्य की सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित रखने के लिए जो दावे किए थे उन्हें आने वाली सरकारें पूरा नहीं कर पाई। मंदिरों के संरक्षण की बात तो दूर राज्य में डोगरा महाराजाओं की विरासत भी धूल फांक रही है। विडंबना यह है कि सरकार ने कश्मीर घाटी में असुरक्षित मंदिरों के संरक्षण के लिए विधेयक लाने के जो दावे किए थे उन पर अमल न हो पाने का ही नतीजा है कि आज घाटी में मंदिरों पर कब्जा हो रहा है।
सरकार मंदिरों के संरक्षण के लिए खामोश बैठी हुई है जिससे विशेष समुदाय में रोष पनपना स्वाभाविक है। अनशन पर बैठे कमेटी के सदस्यों को विभिन्न संगठनों का समर्थन मिल रहा है और विपक्षी पार्टियों को भी सरकार के खिलाफ एक मुद्दा मिल गया है। बेहतर तो यह होगा कि सरकार घाटी के ऐतिहासिक मंदिरों के संरक्षण के लिए श्राइन बोर्ड का गठन करे। सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि यह मंदिर लाखों लोगों की आस्था का प्रतीक ही नहीं बल्कि उनकी सांस्कृतिक विरासत का भी हिस्सा हैं। अगर इन मंदिरों की अनदेखी होगी तो निसंदेह लोगों का भी सरकार के प्रति विश्वास उठ जाएगा। कश्मीर घाटी में नारान नाग का मंदिर तथा दक्षिण कश्मीर के मार्तंड मंदिर हजारों साल पुराने हैं। बिजबेहाड़ा में विजयश्री मंदिर करीब दो हजार साल पुराना है। हजारों साल पुराने इन मंदिरों की अनदेखी होती रहेगी तो वह दिन दूर नहीं जब ये सभी प्राचीन मंदिर इतिहास के पन्नों में सिमटकर रह जाएंगे। सरकार को चाहिए कि वह मंदिरों के संरक्षण के लिए आगामी शीतकालीन सत्र में एक विधेयक पारित करवाये।
भवन से भैरो मंदिर तक बनेगा रोप-वे
जम्मू। देश-विदेश से माता वैष्णो देवी आने वाले श्रद्धालुओं के लिए एक अच्छी खबर। माता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड ने भवन से भैरो मंदिर तक पैसेंजर रोप-वे और सियार दबड़ी से भवन तक मैटीरियल रोप-वे प्रोजेक्ट को मंजूरी दे दी है। इन दोनों प्रोजेक्ट पर 65 करोड़ रुपये का खर्च आएगा। विगत दिनों नई दिल्ली में श्राइन बोर्ड के चेयरमैन व राज्य के राज्यपाल एनएन वोहरा की अध्यक्षता में आयोजित बैठक में रोप-वे प्रोजेक्टों को मंजूरी दी गई। कटड़ा-रियासी मार्ग पर स्थित डीडी गांव में सियार दबड़ी से भवन तक मैटेरियल रोप-वे पर दस करोड़ रुपये जबकि भवन से भैरो मंदिर तक बनने वाले पैसेंजर रोप-वे पर 55 करोड़ रुपये खर्च आएगा। दोनों का काम दो वर्ष में पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है। भवन से भैरो मंदिर की दूरी करीब दो किलोमीटर है, यकीनन इस प्रोजेक्ट से भक्तों का लाभ होगा। खबर है कि बोर्ड की भवन से अ‌र्द्धकुंवारी, अ‌र्द्धकुंवारी से शंकराचार्य मंदिर और शंकराचार्य मंदिर से कटड़ा तक रोप-वे बनाने की भी योजना है।
करीब तीन घंटे तक चली बोर्ड की बैठक में यात्रा प्रबंधन और तीस अगस्त से शुरू हुए रजत जयंती समारोह पर भी चर्चा हुई। इसमें बाण गंगा से लेकर भवन तक चल रहे सफाई कार्य, पूरे मार्ग पर अतिरिक्त शौचालय, बोर्ड के कर्मचारियों और उनके बच्चों के लिए योजनाएं शुरू करना शामिल है। बैठक में यह भी बताया गया कि यात्रा मार्ग व आसपास के क्षेत्रों में पौधरोपण पर जोर दिया गया है। अ‌र्द्धकुंवारी से भवन के बीच इमरजेंसी हेलीपैड बनाने पर भी चर्चा की गई। कई बार यात्रियों को मार्ग में इमरजेंसी स्वास्थ्य सुविधा की जरूरत पड़ती है। यही नहीं, बाणगंगा से भवन तक स्थित सभी स्वास्थ्य केंद्रों में आधुनिक स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करवाने पर जोर दिया गया। बोर्ड ने घोड़ों की लिद से प्रस्तावित बायो गैस प्लांट, छह सोलर पावर प्रोजेक्ट स्थापित करने पर भी विचार किया।  

सात नवम्बर से जम्मू में सजेगा दरबार
श्रीनगर। ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर में ठंड की दस्तक के साथ ही 10 अक्टूबर को राज्य सरकार ने शीतकालीन राजधानी जम्मू में नागरिक सचिवालय के स्थानांतरण की अधिसूचना जारी कर दी। जम्मू में नागरिक सचिवालय अगले माह सात नवंबर से शुरू होगा। हालांकि, श्रीनगर में सचिवालय 29 अक्टूबर को बंद हो जाएगा। दरबार मूव में शामिल प्रत्येक कर्मचारी को छह हजार रुपये यात्रा भत्ता मिलेगा। इस भत्ते से वह कर्मचारी वंचित रह सकते हैं, जो निर्धारित समयावधि के भीतर दरबार मूव के लिए जम्मू रवाना नहीं होंगे। 
आधार कार्ड बनाने की प्रक्रिया शुरू
जम्मू। यूनिक आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया(आधार) के तहत जम्मू में हर नागरिक को विशिष्ट पहचान दिलाने का काम शुरू हो गया है। जम्मू में इंफ्रास्ट्रक्चर लीजिंग एंड फाइनेंशियल सर्विस (आईएल एंड एफएस) इस महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट पर काम कर रही है। जम्मू में सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के साथ मिलकर कंपनी आधार के तहत स्थानीय नागरिकों का विशिष्ट पहचान पत्र बना रही है। बैंक की आरएसपुरा, तालाब तिल्लो, गांधी नगर व शालामार शाखा में यह प्रक्रिया शुरू हो गई है। हालांकि, राज्य में जम्मू-कश्मीर बैंक को आधार प्रोजेक्ट सौंपा गया है, लेकिन फिलहाल सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया की जम्मू स्थित इन चार शाखाओं में ही यह प्रक्रिया शुरू हुई है। लोगों को सिर्फ अपना स्थानीय पहचान पत्र व पते का प्रमाण लेकर बैंक शाखा जाना पड़ेगा। हर नागरिक की फोटो खींचने के साथ फिंगर प्रिंट लिए जाएंगे और आंखों को स्कैन किया जाएगा। आईएल एंड एफएस के रीजनल हेड कुलदीप बाली के मुताबिक बहुत जल्द कश्मीर में भी यह प्रक्रिया आरंभ की जाएगी।
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संपादकीय
वार्ताकारों ने अपनी रिपोर्ट गृहमंत्री चिदम्बरम को सौंप दी है। यद्यपि यह सार्वजनिक नहीं हुई है किन्तु दिलीप पड़गांवकर के वक्तव्य और सूत्रों के हवाले से जो खबर समाचार-पत्रों में छपी है उससे लगता है कि रिपोर्ट में जम्मू-कश्मीर को अर्थपूर्ण स्वायत्ततादेने की बात कही गयी है।
वार्ताकारों ने राज्य के प्रत्येक जिले का दौरा किया और छः सौ से अधिक प्रतिनिधिमण्डलों से मिल कर उनका पक्ष सुना। अर्थपूर्ण स्वायत्तता शब्द के प्रयोग से ध्वनित होता है कि कहीं न कहीं उनकी धारणा बनी कि समस्या के हल के लिये अभी तक सरकार द्वारा किये गये प्रयास निरर्थक रहे हैं। निश्चित ही उन्होंने इसे अर्थपूर्णबनाने के लिये कुछ सुझाव भी दिये होंगे जो रिपोर्ट सार्वजनिक होने पर सामने आयेंगे। लेकिन अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि अगर समस्या को मूल संदर्भ से काटकर अर्थपूर्ण स्वायत्ततादेने का प्रयास अर्थपूर्णसाबित होने के स्थान पर अनर्थ की जड़साबित होगा।
जब से केन्द्र सरकार द्वारा वार्ताकारों के दल का गठन किया गया, तभी से एक बड़ा बर्ग यह संदेह व्यक्त करता आ रहा है कि यह सरकार की तुष्टिकरण की नीति को अमली जामा पहनाने के लिये किया गया है। रिपोर्ट के संदर्भ में छपी खबरें संकेद दे रहीं हैं कि यह संदेह अब सत्य में बदलने जा रहा है। कहा जा सकता है कि वार्ताकारों द्वारा प्रस्तुत यह रिपोर्ट 2005 में हुई दूसरी राउंड टेबल कांफ्रेंस के बाद क्रमशः हामिद अंसारी(वर्तमान उपराष्ट्रपति), एस के रसगोत्रा व सगीर अहमद की अध्यक्षता में बनी समितियों की रिपोर्ट का ही विस्तार है। गत वर्ष पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ द्वारा किये गये ट्रेक-2 वार्ता के खुलासे से भी इसकी पुष्टि होती है।
वस्तुतः कश्मीर से जुड़े किसी भी मामले पर विचार करने से पहले निम्नलिखित मूल स्थापनाओं को समझना ओर उन पर विश्वास करना आवश्यक है
1.
जम्मू-कश्मीर राज्य का विलय भारत में उसी प्रकार हुआ जिस प्रकार अन्य 568 राज्यों का हुआ। इसमें सशर्त विलय का कोई प्रावधान ही न था। भारतीय स्वाधीनता अधिनियम-1947 के अनुसार प्रत्येक रियासत के राजा को भारत अथवा पाकिस्तान में से किसी एक को चुनना था। महाराजा हरि सिंह ने भारत के साथ रहने का निर्णय किया। 26 अक्तूबर 1947 को उन्होंने विलय पत्र पर हस्ताक्षर किये और 27 अक्तूबर को गवर्नर जनरल माउंटबेटन ने उसे स्वीकार कर लिया।
2. जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय अंतिम है और इस पर पुनर्विचार की कोई संभावना नहीं है। भारत के संविधान के साथ ही जम्मू-कश्मीर राज्य का संविधान भी इसे सुनिश्चित करता है।
3. विलय के अनुसार चीन व पाक अधिकृत कश्मीर सहित पूरा जम्मू-कश्मीर राज्य भारत का अभिन्न अंग है।
 4. चीन व पाकिस्तान द्वारा अवैध रूप से एक बड़े भू-भाग पर कब्जा कर भारत की संप्रभुता को चुनौती दी गयी है। देश के नागरिकों द्वारा चुनी गयी संप्रभु सरकार का यह दायित्व है कि इस चुनौती से कड़ाई से निपटे। संसद में दो बार पारित किये गये सर्वसम्मत संकल्प के अनुसार भारत सरकार अपना भू-भाग वापस लेने के लिये वचनबद्ध है।
5.
जम्मू-कश्मीर के नागरिक स्वतः ही भारत के नागरिक हैं और भारतीय नागरिकों को प्रदत्त सभी सुविधाएं व अधिकार प्राप्त करना जम्मू-कश्मीर के नागरिकों का स्वतःसिद्ध अधिकार है। इसलिये भारतीय संविधान की जिन धाराओं व अनुच्छेदों को जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं किया गया है उन्हें तुरंत लागू करना आवश्यक है तथा अपने प्रत्येक नागरिक तक इसकी पहुंच सुनिश्चित करना भारत सरकार का दायित्व है।
6.
बिजली, सड़क, पानी तथा शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार जैसी मौलिक आवश्यकताओं को पूरा करने में भी राज्य में भेत्रीय आधार पर जो भेद-भाव किया गया है, उसका त्वरित परिमार्जन आवश्यक है।
7. पाक व चीन अधिकृत कश्मीर भारत का ही भू-भाग है तथा अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के अनुसार उससे संचालित हो रही भारत विरोधी गतिविधियों को रोकने तथा आवश्यक होने पर सैन्य कार्रवाई करने का अधिकार भारत को है।
8. कश्मीर की समस्या भू-राजनैतिक समस्या है न कि हिन्दू-मुस्लिम समस्या। प्रभावी कूटनीति तथा दृढ़ इच्छाशक्ति से ही इस समस्या से निपटा जा सकता है।
9.
भारत के संविधान का अनुच्छेद 370 एक अस्थायी प्रावधान है जिसे संसद द्वारा कभी भी समाप्त किया जा सकता है। जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के साथ इसका कोई संबंध नहीं है।
10. स्वतंत्रता के पश्चात राज्य में देशी-विदेशी पर्यवेक्षकों तथा मीडिया की मौजूदगी में हो रहे स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव राज्य की जनता के भारतीय लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में विश्वास को प्रदर्शित करते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा भी विवादों की सूची से जम्मू-कश्मीर को निकाले जाने के बाद जनमत-संग्रह अब मुद्दा ही नहीं बचा है।
इन स्थापनाओं को दरकिनार कर अपने पूर्वाग्रह के आधार पर कश्मीर समस्या को हल करने का प्रत्येक प्रयास मुद्दे की जटिलता को और अधिक बढ़ायेगा।
सरकार द्वारा बार-बार घाटी में पनपे आतंकवाद को पाकिस्तान प्रेरित बताने के बाद भी कूटनीति के स्थान पर साम्प्रदायिक दृष्टि से किये जा रहे समाधान के प्रयास न केवल जम्मू-कश्मीर राज्य को और अधिक अराजकता में धकेलते हैं बल्कि पूरे देश में भी भ्रम का वातावरण निर्माण करते हैं। यह भ्रम ही देश में सांप्रदायिक सदभाव को गहरी चोट पहुंचा रहा है। देश भर में इंडियन मुजाहिदीन के बढ़ते नेटवर्क और नये-नये स्थानीय माड्यूल सामने आने से इसके दुष्प्रभाव को समझा जा सकता है।
जम्मू-कश्मीर की समस्या को सही संदर्भ में समझने तथा उसके अनुरूप समाधान की दिशा में त्वरित प्रयास किये जाने आवश्यक हैं। इसके लिये जरूरी है कि वर्तमान राष्टीय नेतृत्व और समाधान खोजना जिनकी जिम्मेदारी है, ऐसे सभी लोगमूर्खों के स्वर्गसे बाहर आयें तथा वास्तविकता के धरातल पर खड़े होकर ठोस पहल करें। 
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मुद्दा
केंद्र सरकार का भ्रामक नजरिया
दयासागर
ब्रिटिश संसद भारतीय स्वतंत्रता कानून-1947 मुहैया कराती है। इसके अनुसार भारतीय रियासतों के शासक विलय शर्तों को स्वीकार कर भारतीय संघ में शामिल हो सकते हैं। जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह द्वारा हस्ताक्षरित विलय दस्तावेज के मुताबिक- मैं जम्मू-कश्मीर का शासक राज्य की संप्रभुता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए विलय की शर्तों को स्वीकार करता हूं। विलय की ये शर्तें भारतीय स्वतंत्रता कानून-1947 में किसी तरह के संशोधन से नहीं बदलेगा, जब तक कि यह संशोधन मुझे स्वीकार न हो।  
तत्कालीन गवर्नर जनरल ऑफ इंडिया लॉर्ड माउंटबेटन ने 27 अक्टूबर 1947 को इसे स्वीकार किया था। इसलिए तकनीकी रूप से यह विलय पूर्ण है। लेकिन तत्कालीन केंद्र सरकार ने जिस तरह महाराजा हरि सिंह से व्यवहार किया, उससे भारतीय गणतंत्र में जम्मू-कश्मीर के विलय पर सवाल उठने लगे। 27 अक्टूबर 1947 को गवर्नर जनरल ऑफ इंडिया ने जिस तरह विलय की शर्तों को स्वीकार किया, उससे पता चलता है कि अभी भी कई महत्वपूर्ण प्रश्न अनुत्तरित हैं।  
महाराजा के हस्ताक्षरित विलय दस्तावेज को पत्र के माध्यम से भेजा गया था। इस पत्र में मौजूदा परिस्थितियों को 14 अगस्त 1947 से आगे देरी होने के लिए जिम्मेदार माना गया है। लेकिन हरि सिंह के इस पत्र को देश विरोधी तत्वों ने उद्धृत नहीं किया है। माउंटबेटन द्वारा विलय को स्वीकार करने वाला दस्तावेज भी चिट्ठी में बंद था और इस पर महाराजा का पता लिखा हुआ था। विलय पर सवाल उठाने वाले कुछ लेखकों और समर्थकों ने माउंटबेटन की चिट्ठी का प्रयोग किया है।  
भारतीय स्वतंत्रता कानून-1947 और भारत सरकार कानून-1935 के अनुसार, सिर्फ महाराजा ही ब्रिटिश साम्राज्य की रियासतों के बारे में फैसला करने के अधिकारी थे। सिर्फ महाराजा ही अपने इर्द-गिर्द की परिस्थितियों का अवलोकन कर सकते थे। महाराजा ने अपने पत्र में लिखा है कि मैं महामहिम को सूचित करता हूं कि मेरे राज्य में गंभीर स्थिति पैदा हो गई है इसलिए मैं आपकी सरकार से तत्काल मदद का अनुरोध करता हूं। उत्तरी पश्चिमी सीमांत प्रांत के दूरदराज क्षेत्रों से बड़े पैमाने पर जनजातीय लोगों की घुसपैठ हो रही है। ये लोग मोटर और ट्रकों पर सवार होकर मानेसर व मुजफ्फराबाद मार्ग से हथियारों से लैस होकर आ रहे हैं। यह पाकिस्तान सरकार और उत्तरी पश्चिमी सीमांत प्रांत की सरकार की जानकारी के बिना संभव नहीं है। मेरी सरकार द्वारा बार-बार अपील करने के बावजूद इन हमलावरों को रोकने या राज्य में आने से मना करने का कोई प्रयास नहीं हुआ है।  
जम्मू-कश्मीर के लोगों के बारे में महाराजा का कहना था कि मेरे राज्य के मुस्लिमों और गैर मुस्लिमों ने इस हमले में किसी तरह भाग नहीं लिया है। राज्य में आपातकाल की स्थिति के कारण भारतीय संघ से मदद मांगने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं है। इसलिए मैंने ऐसा करने का फैसला किया है और मैं विलय दस्तावेज को आपकी सरकार द्वारा स्वीकार करने के लिए इसे संलग्न करता हूं। महाराजा की यह कार्रवाई उनके तार्किक मूल्यांकन और गहरी सोच का परिणाम था। लॉर्ड माउंटबेटन द्वारा महाराजा को लिखी चिट्ठी में विलय की शर्तों को स्वीकार करने के बाद भी कुछ अनुत्तरित प्रश्न रह गए हैं।  
जवाहर लाल नेहरू की तत्कालीन कैबिनेट से भी प्रश्न पूछे जा सकते हैं। लॉर्ड माउंटबेटन ने कहा था कि वीपी मेनन द्वारा दिनांक 26 अक्टूबर 1947 को महाराजा की लिखी चिट्ठी मुझे मिली है। महाराजा के अनुसार, मेरी सरकार ने भारतीय संघ में कश्मीर के विलय को स्वीकार करने का फैसला किया है। मैं भारतीय नीतियों से सहमत हूं। अगर किसी राज्य में विलय का मुद्दा विवाद का विषय बनता है तो राज्य के लोगों की इच्छा के मुताबिक इस पर फैसला होना चाहिए। मेरी सरकार की इच्छा है कि कश्मीर में कानून व्यवस्था बहाल होने और हमलावरों से यहां की भूमि मुक्त होते ही लोगों की राय से राज्य के विलय का निपटारा होना चाहिए। आपके महाराजा ने अंतरिम सरकार से शेख मोहम्मद अब्दुल्ला को आपके प्रधानमंत्री के साथ काम करने का न्योता दिया है।  
माउंटबेटन की चिट्ठी में वर्णित विलय संबंधी विवाद कहीं भी महाराजा हरि सिंह के रिकार्ड का समर्थन नहीं करती है। केंद्र सरकार और देश के राजनीतिक नेतृत्व ने पत्र से निर्मित जटिलताओं को बुद्धिमानीपूर्वक नहीं निपटाया है। यह पत्र विलय का हिस्सा नहीं है। कुछ लोगों ने इस पत्र को विलय के हिस्से के रूप में प्रोजेक्ट किया है। भारतीय स्वतंत्रता कानून-1947 के अनुसार, रियासत के राजा ही भारतीय संघ में विलय का फैसला लेने के लिए अधिकृत थे।  
दिल्ली समझौता-1952 जवाहर लाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला के बीच हुआ था, इसमें कहीं भी जम्मू-कश्मीर के महाराजा और युवराज का उल्लेख नहीं है। 8 अगस्त 1953 को शेख अब्दुल्ला के कैबिनेट सहकर्मियों द्वारा सौंपे गए ज्ञापन-पत्र में उन पर दिल्ली समझौता-1952 को लागू करने में गंभीरता नहीं दिखाने का आरोप लगाया गया है, जिसके शेख खुद शिल्पकार थे। जवाहर लाल नेहरू ने जिस तरह शेख अब्दुल्ला का पक्ष लिया और उन पर निर्भर रहे उससे उनके लिए कठिनाइयां पैदा हो गई।  
27 अक्टूबर 1947 को लिखित माउंटबेटन की चिट्ठी से कुछ विवाद का उल्लेख मिलता है। उस समय तक न तो महाराजा और न ही केंद्र सरकार संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में गए थे। दिनांक 01 जनवरी 1948 को भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ सुरक्षा परिषद में एक शिकायत दर्ज करवाई थी। इसमें विचित्र ढंग से भारत सरकार के समक्ष विलय के अंतिम समाधान के लिए निर्धारित शर्तों का जिक्र किया गया था। साथ ही जम्मू-कश्मीर को राज्य के तौर पर वर्गीकृत कर विलय को विवादास्पद मुद्दा बना दिया गया। जबकि महाराजा द्वारा लिखी गई चिट्ठी में राज्य के लोगों के प्रतिरोध का उल्लेख नहीं मिलता है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद छह वर्षों की शिकायत के बाद भी पाकिस्तान से जम्मू-कश्मीर के क्षेत्रों को खाली नहीं करवा सकी है। हालांकि भारतीय स्वतंत्रता कानून-1947 और महाराजा हरि सिंह द्वारा हस्ताक्षरित विलय दस्तावेज के अनुसार, इसकी कोई जरूरत नहीं है।  
वर्ष 1975 में इंदिरा गांधी ने जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार के मुखिया शेख अब्दुल्ला को वापस बुला लिया। प्रधानमंत्री के वर्किंग ग्रुप (2006) के अध्यक्ष सगीर अहमद ने भी कोई बढि़या काम नहीं किया है। उन्होंने दिसंबर 2009 में अनुच्छेद 370 से संबंधित, राज्य स्वायत्तता कमेटी और पीडीपी के स्वशासन संबंधी रिपोर्ट सौंपकर भ्रम को बढ़ाने का ही काम किया है। उम्मीद है कि केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त वार्ताकार पिछले एक साल में यह जान चुके होंगे कि कश्मीर घाटी की राय ही जम्मू-कश्मीर की राय नहीं है।
(लेखक : जम्मू-कश्मीर मामलों के जानकार हैं।)

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अफजल के क्षमादान बिल का हश्र
प्रो. हरिओम
लोकतंत्र के मंदिर संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु के लिए क्षमादान संबंधी निजी सदस्य के बिल पर नाटक समाप्त हो चुका है। इससे पूरा देश राहत महसूस कर रहा है। यह बिल ध्वस्त हो चुका है। अगर सदन में यह बिल नहीं गिरता तो स्वायत्तता समर्थित नेशनल कांफ्रेंस (नेकां) की जीर्ण-शीर्ण सरकार और द्विधा मनोवृत्ति, कपटी, अस्त-व्यस्त और अवसरवादी कांग्रेस देशवासियों के दबाव में आकर ध्वस्त हो जाती। कुछ को छोड़कर सदन में सभी राजनीतिक खिलाडि़यों ने इसका भंडाफोड़ कर दिया है। किसी को भी उसके वास्तविक इरादे और प्रतिबद्धता की कमी के बारे में कोई संदेह नहीं है।
नेशनल कांफ्रेंस के दो वरिष्ठ नेताओं जिसमें एक कैबिनेट मंत्री और सांसद भी शामिल थे, ने बताया कि नेकां की घोषणा कश्मीर के लोगों की भावनाओं पर आधारित होगी। लेकिन नेकां के वरिष्ठ नेतृत्व ने 28 सितंबर से पहले यू टर्न ले लिया, जब बिल को सदन में विचार-विमर्श के लिए रखा गया था। हर कोई जानता है कि इन परिस्थितियों के कारण सदन में एक विचित्र माहौल बन गया, जिससे स्पीकर को एक दिन के लिए सदन को स्थगित करना पड़ा। सदन में जिस दिन विवादास्पद प्रस्ताव को चर्चा के लिए रखा गया था, उस दिन नेकां और इसके स्टैंड पर इसकी भूमिका पर किसी तरह की टिप्पणी सही नहीं है।
पीडीपी ने इस विवादास्पद बिल को समर्थन देने की घोषणा की थी। उसने लोगों को यकीन दिलाने की कोशिश की कि उसने जो घोषणा की है उसे पूरा करने के लिए वह प्रतिबद्ध है। लेकिन इस बीच उसने स्पीकर से पहले से प्रस्तावित बिल में कुछ संशोधन करने की अनुमति दे दी और इसमें से एक प्रस्तावित संशोधन संसद पर हमले में जान गंवाने वाले लोगों के परिवार के सदस्यों के प्रति संवेदना जताना था। यह एक किस्म का विरोधाभास था। यही नहीं, यह हास्यास्पद भी था। वे एक ही समय में शहीदों के परिवारों के साथ कैसे संवेदना जता सकते थे और उन्हें क्षमा करने की मांग कर सकते थे?
28 सितंबर से पहले सदन के भीतर और बाहर पीडीपी ने अजीब राजनीति खेली, जिससे लोगों के दिमाग में शंका पैदा हो गया। नेकां की तरह पीडीपी भी सीमारेखा को पार नहीं करना चाहती थी। यह उस समय स्पष्ट हो गया जब इसके विधायकों में विपक्ष के नेता भी शामिल थे। उन्होंने सदन में शांति बहाली के लिए किसी तरह की मदद नहीं की और नेकां की तरह मूकदर्शक बने बैठे रहे। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि सदन में बिल लाने वाले इंजीनियर अब्दुल रशीद ने नेकां और पीडीपी की निंदा की और कांग्रेस व भाजपा पर बिल को मृतप्राय बनाने के लिए षड्यंत्र रचने का आरोप लगाया।
कांग्रेस संकटपूर्ण स्थिति में थी। अंतिम समय तक इसने कोई स्टैंड नहीं लिया। इसके नेतृत्व ने कभी एकमतता के अनुसार वोट बैंक को ध्यान में रखते हुए तो कभी अपने विधायकों के निर्णय पर सब कुछ छोड़ दिया। उन्होंने कहा कि वे सदन में अपना स्टैंड लेंगे। इसका कारण यह था कि इसके अध्यक्ष ने देशहित के मुद्दे पर बहुत ही असंदिग्ध, भ्रामक और गुमराह करने वाली बात कही थी। इनके सामने चार विकल्प मौजूद थे- नेकां नेतृत्व वाली सरकार से समर्थन वापसी और इससे बाहर निकलना, बिल के विरुद्ध मतदान, बिल का समर्थन और मतदान से परहेज करना।  
लेकिन इसने किसी भी विकल्प का इस्तेमाल नहीं किया। इसने स्पष्ट रूप से अपने सहयोगी साझीदार से मेलजोल बढ़ाकर पांचवें विकल्प के बारे में विचार किया और सदन में अराजकता की स्थिति पैदा कर दी ताकि सदन सुचारु रूप से नहीं चल सके। इसने स्पीकर से भाजपा के सभी सातों विधायकों को अयोग्य साबित करने के लिए कहा, जिसने अप्रैल में क्रॉस वोटिंग की थी। ऐसा कर वह सदन में हंगामा खड़ा करना चाहते थे। किसी ने भी यह कल्पना नहीं की थी कि कांग्रेस मंत्रियों जिसमें उप-मुख्यमंत्री और विधायक शामिल थे, इस तरह असभ्य ढंग से अपनी चाल बदल लेंगे और भाजपा विधायकों से धक्का-मुक्की कर उन्हें धमकी देंगे, जो बिल की वापसी की मांग कर रहे थे। ऐसा तीन बार हुआ। 
यह जम्मू-कश्मीर के इतिहास में अभूतपूर्व घटना थी। गठबंधन सरकार का एक घटक एक दिन में तीन बार वेल में गया और भाजपा विधायकों के खिलाफ नारेबाजी की। साथ ही स्पीकर की यह कहते हुए निंदा की कि वह भाजपा के सातों विधायकों को अयोग्य घोषित क्यों नहीं किए? सचमुच यह अभूतपूर्व घटना थी। कांग्रेस विधायकों ने कहा कि वह स्पीकर के तर्कों को न सुनें कि वह उन्हें अयोग्य घोषित क्यों नहीं कर सकते? कारण, यह मामला राज्य हाईकोर्ट में लंबित है। पैंथर्स पार्टी के विधायक उस समय सही थे जब उन्होंने कहा कि कांग्रेस मंत्रियों और विधायकों ने सरकार के खिलाफ विद्रोह कर दिया है। इसलिए राज्यपाल को सदन को भंग कर प्रशासन अपने हाथ में ले लेना चाहिए और चुनाव की सिफारिश कर देनी चाहिए।  
पैंथर्स पार्टी की विशेष याचना थी कि राज्य में संवैधानिक तंत्र भंग हो चुका है और गठबंधन सरकार अपना जनादेश खो चुकी है। पैंथर्स पार्टी ने यह बात इंगित की। गठबंधन सरकार को इसके गलत कार्यों की कीमत चुकानी चाहिए, जिसमें जानबूझकर अपमान करना भी शामिल है। भाजपा के लिए जितना कम कहा जाए उतना ही अच्छा होगा। इसको सिर्फ अपमान सहना पड़ा, इस तथ्य के बावजूद कि इसके विधायक स्पीकर से चाहते थे कि वह बिल को वापस ले लें। इस पर उनसे गाली-गलौज की गई, ताने मारे गए और उन लोगों द्वारा धमकी दी गई जो अप्रैल के अंत में उन्हें विधान परिषद चुनाव नहीं जीतने देना चाहते थे।  
इसी प्रकार, कश्मीर आधारित गैर नेकां और गैर पीडीपी विधायकों के बारे में भी जितना कम कहा जाए उतना ही अच्छा होगा। सदन के भीतर और बाहर इस मुद्दे पर उनकी भूमिका भी संदेह से परे नहीं थी। इस पूरे घटनाक्रम से सबसे अधिक नुकसान कांग्रेस को हुआ है। पूरे देश में उसका जनाधार खिसकता जा रहा है। इसका प्रमुख कारण यह है कि कांग्रेस नेतृत्व निष्पक्ष समालोचकों के शब्दों में घमंडी, असंवेदनशील, तानाशाह और सांप्रदायिक पार्टी बन गई है। जहां तक लोगों की बात है तो वे आजादी के बाद देश में कांग्रेस और यूपीए गठबंधन को सबसे भ्रष्ट संगठन मान रहे हैं। कोई भी व्यक्ति इससे सहमत हो सकता है।
(लेखक : जम्मू विवि के सामाजिक विभाग के पूर्व डीन हैं) 
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विश्लेषण
जम्मू-कश्मीर पर कुछ ठोस सवाल
जगमोहन
जो लोग 1952-53 के पहले की स्थिति बहाल करना चाहते हैं या जम्मू-कश्मीर के लिए अधिकतम स्वायत्तता की मांग करते हैं, वे मूल प्रश्नों पर ध्‍यान नहीं देते। वे आज भी अस्पष्ट हैं और अपनी मांग की व्यावहारिकता का जरा भी ख्याल नहीं करते। उदाहरण के तौर पर वे इस तथ्य को दबाते हैं कि संघ के साथ पूर्ण वित्तीय एकीकरण के बिना जम्मू-कश्मीर के विकास के लिए कोई स्रोत उपलब्ध नहीं होगा। यह संघ ही है, जो राज्य की पंचवर्षीय योजना का सारा धन मुहैया कराता है और गैर-योजना खर्च के एक बड़े हिस्से को भी वहन करता है।
संघ की तरफ से बिहार को प्रति व्यक्ति के हिसाब से 876 रुपये की मदद मिलती है, जबकि कश्मीर को मिलते हैं, 9,753 रुपये। यह बिहार को मिलने वाली धनराशि का 11 गुना है, जबकि बिहार देश के सबसे गरीब राज्यों में से एक है। इतना ही नहीं, जम्मू-कश्मीर को मिलने वाली धनराशि में 90 प्रतिशत सहायता के रूप में होती है और शेष 10 प्रतिशत ऋण के रूप में। जबकि दूसरे राज्यों में 70 प्रतिशत ऋण होता है और 30 प्रतिशत सहायता। यह इस बात का सबूत है कि संघ से वित्तीय एकीकरण के कारण जम्मू-कश्मीर को काफी धन मिलता है। क्या होगा, जब यह संबंध टूट जाएगा? कौन इसकी भरपाई करेगा
इसी तरह अनुच्छेद 356 के विस्तार का उदाहरण लीजिए। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 356 भारत के राष्ट्रपति को यह अधिकार देता है कि वह किसी राज्य में संघ का शासन लागू कर सके। प्राय: यह कहा जाता है कि इसके विस्तार से राज्यों की स्वायत्तता में अतिक्रमण होता है। यदि राज्य में संवैधानिक व्यवस्था असफल हो जाती है, या राज्य रक्षा, विदेश, संचार संबंधी किसी निर्देश को मानने से इनकार कर देता है, तो अनुच्छेद 356 के अधीन राष्ट्रपति की शक्तियों की अनुपस्थिति में क्या होगा? कल्पना कीजिए, यदि राज्यपाल के पास संगत शक्तियां हैं, तो इसका अर्थ यह होगा कि राष्ट्रपति अपने ही द्वारा नियुक्त राज्यपाल के निर्णयों को मानने पर विवश होगा। 
फिर भी मान लें कि यदि राज्यपाल को सदर-ए-रियासत बना दिया जाय, जिसका चुनाव राज्य विधानसभा करेगी, तब क्या सदर-ए-रियासत को अंतिम निर्णायक बनाना केंद्र को राज्य के अधीन करना न होगा? और यदि राष्ट्रपति सदर-ए-रियासत की मान्यता खत्म कर देता है, परंतु राज्य विधानसभा उसे फिर से चुनती है, तो क्या इससे संवैधानिक संकट नहीं खड़ा होगा
यदि संघ से धन उसी पैमाने पर कश्मीर को मिलता है, जैसा कि इस समय मिल रहा है और रक्षा, विदेश और संचार के अलावा अन्य विषयों पर राज्य का फैसला ही अंतिम है, तो पाकिस्तान की तर्ज पर यहां भी इस्लामी सिविल और क्रिमिनल कानूनों का निर्माण संभव है और शरियत कोर्ट की स्थापना भी हो सकती है, जो इसे धार्मिक राज्य में तब्दील कर देगी। क्या यह हमारे संविधान की मूल भावना के विपरीत नहीं है
विस्तृत शक्तियां
जम्मू-कश्मीर की समस्या शक्तियों का अभाव नहीं, बल्कि शक्तियों की अधिकता है। उदाहरण के तौर पर 1977-78 में शेख अब्दुल्ला ने राज्य में एक तरह से तानाशाही की स्थापना की। उन्होंने राजा की तरह शासन चलाया। उन्होंने अल-फतह, प्लेबिसाइट फ्रंट और दूसरे विध्‍वंसात्मक संगठनों के कट्टर समर्थकों की नियुक्ति पुलिस जैसे संवेदनशील संगठनों में की। निश्चित तौर पर यह कार्य राज्य की सुरक्षा और स्थायित्व के लिए गंभीर खतरा था। फिर भी वे बेरोक-टोक आगे बढ़ते रहे। 
पुनर्वास कानून, जो शेख अब्दुल्ला के समय 1982 में बना और डॉ. फारूख अब्दुल्ला के शासनकाल में औपचारिक रूप से लागू हुआ, इस बात का प्रमाण है कि राज्य सरकार के पास विस्तृत शक्तियां थीं। दरअसल, स्वायत्तता में ह्रास नहीं, बल्कि ईमानदारी और उत्साह में कमी थी, जिसने कश्मीर की तमाम समस्याओं को जन्म दिया। सच तो यह है कि राज्य नेतृत्व के पास पर्याप्त शक्तियां हैं, लेकिन उन्होंने इसका उपयोग राज्य की सेवा के लिए नहीं, बल्कि खुद की सेवा में लगाया।
 स्वायत्तता का राग अलापने वाले नेताओं से कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न पूछने की जरूरत है? क्या उन्हें और अधिक स्वायत्तता की जरूरत है ताकि वे ऐसे कानूनों का निर्माण कर सकें, जैसा कि ऊपर उल्लिखित है? किन शक्तियों के अभाव में राज्य के कल्याणकारी व विकास कार्य प्रभावित होते हैं? कौन से कानून, कार्यकारी आदेश या न्यायपालिका के फैसले ने कश्मीर की पहचान को प्रभावित किया या वहां सांस्कृतिक धरातल को बदला? संघ के द्वारा दिए जाने वाले धन की अनुपस्थिति में क्या होगा? यदि इस धन का प्रवाह निरंतर बना रहा तो यह कैसे सुनिश्चित होगा कि यह धन धर्मांधों के हाथों में नहीं जाएगा और उनके हाथ नहीं मजबूत करेगा? और राज्य के कट्टरपंथियों की समस्या से कैसे निपटेंगे
गुमराह करने की कोशिश
यदि हम गहराई से विचार करें तो पाएंगे कि ज्यादा स्वायत्तता या 1952-53 से पूर्व स्थिति की बहाली की मांग लोगों को गुमराह करने वाली है और उनके मस्तिष्क में अव्यावहारिक तथा असमर्थनीय धारणा को जन्म देने वाली है। वे जानबूझ या अनजाने में उन शक्तियों के हाथ मजबूत कर रहे हैं, जो 1948 के बाद छिपे या प्रत्यक्ष रूप से अलगाववाद को प्रोत्साहन दे रहे हैं। लेकिन आज की ज्यादा स्वायत्तताका मतलब है, कल की स्वतंत्रता। दरअसल, इस तरह की मांग के गंभीर व भयानक परिणाम होंगे और देश अंतत: कई टुकड़ों में बंट जाएगा।
(लेखक जम्‍मू-कश्‍मीर के पूर्व राज्‍यपाल हैं।)
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मुद्दा
अंदरूनी आतंक बड़ा खतरा
केवल कृष्ण पनगोत्रा
वफा की फिक्र कर ऐ नादान, मुसीबत आने वाली है। तेरी बर्बादियों के मशिबरे हैं आसमानों में। न संभलोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोसतां वालो, तुम्हारी दास्तां भी न होगी दास्तानों में। ऐसे चिंताजनक शब्द किसी देश या समाज के सभ्य तबके में तब ही उभरते हैं जब उसे देश के काल की गति में आतंक की भयावहता और इरा आसुरी प्रवृत्ति को देश के भीतर से ही सत्ता और समाज विरोधियों का परोक्ष समर्थन मिले। कभी सियासत और कभी कुर्सी के लिए।  
देश की राजधानी दिल्ली में हाइकोर्ट के बाहर आतंकी हमले के बाद आगरा में हुए विस्फोट ने देश के अंदर पनप रहे आतंक को लेकर चिंता को और ज्यादा गंभीर बना दिया है। आखिर क्यों समाज के कुछ लोग आतंक की राह पर चल निकले हैं? इस चिंता की स्वीकारोक्ति हाल ही में गृहमंत्री पी. चिदंबरम भी कर चुके हैं। भारत में इस तरह के खूनी आतंकी हमलों की सूची काफी लंबी है। कल का इतिहास देश के अंदरूनी भागों में इस खूनी खेल का सबसे बड़ा गवाह होगा जो हमारे आज के शासकों की राष्ट्र के प्रति कमजोर जिम्मेदारियों और आतंक के प्रति अनिच्छा का ही परिचायक होगा। 
गृहमंत्री का यह कहना उचित ही है कि लगभग तीस साल से आतंकवाद से जूझने के बावजूद भारत इससे निपटने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं है। गृहमंत्री पी. चिदंबरम की इस स्वीकारोक्ति को जम्मू-कश्मीर में फैले आतंकवाद के संदर्भ में भी लिया जा सकता है। जिस तरह देश के अनेक भागों में हुए विस्फोटों के तार कई बार जम्मू-कश्मीर से आकर जुड़ते हैं उससे यह कहना गलत होगा कि राज्य में आतंकवाद समाप्त हो चुका है। दिल्ली विस्फोट के संबंध में किश्तवाड़ से विद्यार्थियों की गिरफ्तारी हैरान कर देने वाली है। लगता है कि इस राज्य में देश विरोधी तत्वों की पकड़ आतंकवाद से ग्रस्त रहने वाले क्षेत्रों में स्कूलों पर भी है, जहां से आतंकी जब चाहें अबोध किशोरों का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। आतंकवादी आतंक की शैली बदलते हैं आतंक की मानसिकता नहीं।  
किश्तवाड़ से दो स्कूली छात्रों की गिरफ्तारी देशविरोधी और आतंकी मानसिकता का ही परिचायक है। जब आतंक और देश विरोध की मानसिकता वाले लोग राज्य में प्रचुर संख्या में मौजूद रहेंगे, तब तक शांति और आतंकवाद के राज्य से खात्मे का कोई भी दावा भरमाने वाला ही होगा। वस्तुत: यह राज्य आतंकवाद का जनक है। यहां सदैव आतंकवाद और अलगाववाद को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष समर्थन हासिल है। इस संरक्षण और समर्थन के कारण सियासी और मजहबी भी हो सकते हैं। सियासत की यह सूरतेहाल ही आतंक को पैदा करने और पालने वाली है।  
राज्य में एक राष्ट्रीय सियासी पार्टी के नेता का अफजल गुरु की फांसी के प्रस्ताव पर भ्रमित करने वाले बयान की भरमाने वाली भाषा देखें। बयान है- हमारा एक राष्ट्रीय दल है। हम अपने नीतिगत निर्णय पूरे देश को ध्यान में रखकर करते हैं। यानि न सीधी हां और न ही सीधी ना। राज्य में कुछ सियासी पार्टियां इस मुद्दे पर बोलने से परहेज कर रही हैं। राज्य की सत्ता कब्जाने को आतुर एक क्षेत्रीय दल की फिलवक्त भावना यह लग रही है कि अफजल की सजाए मौत को माफ करना राज्य में कश्मीर समस्या के समाधान लायक माहौल बनाना है। वस्तुत: माफी का प्रस्ताव सरकार के गले की फांस बनता जा रहा है।  
नेकां और कांग्रेस का हाल यह है कि अगर घाटी के वोट को देखें तो जम्मू और लद्दाख का वोट हाथ से निकल जाता है। सवाल यह भी है कि आखिर वह कौन सी मजबूरियां हैं जिनका रोना आतंकवाद और भ्रष्टाचार जैसी राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान के मुद्दों पर रोया जाता है? 21 साल पूर्व आतंकवाद के चरमोत्कर्ष पर पहुंचते ही कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडित समुदाय को जम्मू और देश के दूसरे भागों में विस्थापन झेलना पड़ रहा है। इसी आशंका के चलते ही विस्थापित पंडित राज्य में एक अलग होमलैंड की मांग करते आए हैं जहां विशुद्ध तौर पर भारतीय संविधान लागू हो। गृहमंत्री की स्वीकारोक्ति से यह भी जाहिर है कि अगर तीस साल पूर्व हमारे राजनेताओं में आतंकवाद से निपटने की अनिच्छा और बहानेबाजी की प्रवृत्ति की जगह मजबूत इच्छाशक्ति और सशक्त राष्ट्रवाद की भावना होती तो आज भारत में जगह-जगह खूनी खेल का निरंतर सिलसिला न चलता। 
यह बात हैरान कर देने वाली है कि एक ओर गृह मंत्रालय संसद पर हमले के आरोपों से घिरे अफजल गुरु के मुद्दे पर सख्ती दर्शाता नजर आ रहा है वहीं जम्मू-कश्मीर विधानसभा में उसकी माफी के प्रस्ताव पर चर्चा होगी। 1947 में पाकिस्तान द्वारा कबाइली हमले के बाद पाक अधिकृत कश्मीर को पाक के कब्जे से मुक्त कराने वाले, इसे जम्मू-कश्मीर का हिस्सा बनाने वाले प्रस्ताव पर चर्चा नहीं हो सकती। मालूम हो कि भारतीय संसद में इस आशय का एक प्रस्ताव पहले ही पारित हो चुका है। ऐसे में यह सवाल भी है कि कश्मीर समस्या और आतंकवाद को लेकर हमारी रणनीति क्या है?
 इस समय आतंकवाद राष्ट्रीय सुरक्षा को भारी चुनौती दे रहा है। कश्मीर ही देश में आतंकवाद का बड़ा जनक है। यह बात अब भारत सरकार को समझ लेनी चाहिए। न ही केंद्र और न ही राज्य सरकार अपनी जिम्मेदारी को समझ रही। आखिर हमारे राजनेता कब तक सीमापारीय आतंकवाद और घुसपैठ को जिम्मेदार ठहराकर अपने नैतिक और राष्ट्रीय कर्तव्य से मुंह मोड़ते रहेंगे। जबकि सच्चाई यह भी है कि देश को इस समय सबसे ज्यादा खतरा अंदरूनी आतंकवाद से है। आए दिन हो रहे आतंकी हमलों से यह जाहिर है कि घरेलू आतंकी संगठन देश में एक बड़ा नेटवर्क रखते हैं। आखिर हमारे राजनेता आतंकवाद से निपटने में अमेरिका से भी कुछ क्यों नहीं सीखते? वहां भी तो लोकतंत्र ही है। आखिर हम इतने कमजोर क्यों हैं?
(लेखक : जेएंडके के सामाजिक विषयों के अध्येता हैं)
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अनुच्छेद 370 की आड़ में उपजी भारत विरोधी कश्मीरियत
नरेंद्र सहगल
भारत की समस्त देशभक्त जनता और सरकारों को अब यह समझ लेना चाहिए कि कश्मीर में देशद्रोह के पनपने, आजादी का नारा बुलंद होने और कश्मीरी राष्ट्रीयता का शोर मचने के पीछे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 ने भी खासी भूमिका निभायी है। इसी अनुच्छेद ने पिछले 57 वर्षों से कश्मीर में भारत विरोधी तत्वों को आश्रय दे रहा है। इसी अनुच्छेद की वजह से कश्मीर के युवक देश की मुख्य धारा से कटे हैं, मुस्लिम लीग और हुर्रियत कान्फ्रेंस जैसे पाकिस्तान परस्त संगठनों को मजबूती मिली है। इसी अनुच्छेद के कारण कश्मीर को स्वतंत्र देश घोषित करने वाले हजारों मदरसे खुले हैं। इन इस्लामिक शिक्षण संस्थाओं में प्रशिक्षित हुए कश्मीरी युवकों ने पाकिस्तान की मदद से भारत के विरोध में हथियार उठाये हैं। कश्मीर के राजनीतिक दलों को मुस्लिम वोटबैंक के लिए हिंदू विरोध की प्रेरणा दी है। अनुच्छेद 370 के कारण ही भारत की सभी सरकारें कश्मीर में पनपते रहे अलगाववाद को मजबूर आंखों से देखती रही। परिणामस्वरूप इस्लामिक कट्टरपंथ और पाकिस्तान प्रेरित अलगाववाद कश्मीर राष्ट्रवाद का आकार लेने लगा। भारतीय संविधान के निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर ने प्रधानमंत्री पंडित जवारह लाल नेहरू को चेतावनी दी थी कि इस अनुच्छेद से जम्मू-कश्मीर को भारत के साथ समरस करने में दिक्कतें खड़ी होंगी। यह अनुच्छेद घाटी के लोगों में अलगाववाद के बीच बोयेंगे। अनुच्छेद 370 की आड़ लेकर कश्मीर घाटी के कट्टरपंथी संगठनों और नेताओं ने सदैव ही भारत की सरकार द्वारा संचालित राष्ट्रीय महत्वों के प्रकल्पों और हिंदू समाज द्वारा सम्पन्न होने वाले धार्मिक कार्यक्रमों का जातिगत आधार पर विरोध किया है। श्री अमरनाथ यात्रा इसी मानसिकता का शिकार हुई थी। इसी अनुच्छेद की बुनियाद पर इस्लामिक मजहबी जुनून को सड़कों पर उतर कर भारत राष्ट्र को चुनौती देने का मौका मिला और कश्मीर में सभी भारतीयों को विदेशी कहा जाने लगा। आज तो अनुच्छेद 370 का औचित्य ही समाप्त हो गया है। अलगाववादी कश्मीरियों के भारत के विरुद्ध खुली बगावत पर उतर आने और भारतीय सेना के साथ छापामार युद्ध करने के बाद इस अनुच्छेद का तो कोई संवैधानिक अर्थ ही समझ नहीं आता।
 विदेश में उपजी आक्रामक तहजीब
स्वतंत्र कश्मीर राष्ट्र का नारा बुलंद करने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि राष्ट्र एक सांस्कृतिक अवधारणा होती है। राजनीतिक इकाई नहीं। जिस मजहब अथवा संस्कृति के आधार पर कश्मीरियत को राष्ट्रीयता बताया जा रहा है वह मजहब अथवा संस्कृति कश्मीर की जमीन पर नहीं जन्मी। इस संस्कृति के निर्माताओं में से एक भी कश्मीरी नहीं था। यह संस्कृति विदेशी हमलावरों के साथ आई। इन हमलावरों ने कश्मीर की पांच हजार वर्ष पुरानी संस्कृति इसके संरक्षकों और अनुयायियों को तहस-नहस करके विदेश में उपजी एक तहजीब को थोप दिया। कितनी अजीब बात है कि इस विदेश आक्रामक तहजीब का डटकर मुकाबला करने और अपनी कुर्बानियां देकर कश्मीरियत के इस प्राचीन और सनातन स्वरूप को बचा कर रखने वाले कश्मीरी हिंदुओं को उनकी धरती से विस्थापित होना पड़ा और उधर इन विदेशी हमलावरों के आगे कायरतापूर्वक घुटने टेककर कश्मीरियत के असली चेहरे को बिगाड़ने वाले लोग आज कश्मीर के मालिक बनकर कश्मीरी राष्ट्र की दुहाई दे रहे हैं। इन लोगों ने अपने ही पूर्वजों की स्वदेशी कश्मीरियत को तहस-नहस करके विदेश से आये आक्रमणकारियों की तहजीब को कश्मीरियत बना दिया। जाहिर है कि विदेश तहजीब और मजहब न ही कश्मीरियत और न ही राष्ट्र हो सकती है। ऐसी कश्मीरियत जिसमें कश्मीरी हिंदुओं का कोई स्थान नहीं, जिसमें कश्मीर का प्राचीन वास्तविक संस्कृति के लिए कोई जगह नहीं और जिसमें कश्मीर के पांच हजार साल पुराने गौरवशाली इतिहास का कोई आधार नहीं, राष्ट्र का रूप नहीं ले सकती। अलगाववादी कश्मीरी नेता जिस मजहबी जुनून को राष्ट्र बता रहे हैं वह हिंदू विहीन कश्मीरियत वास्तव में मुस्लिम राष्ट्र है।
 समान पूर्वज समान संस्कृति
कश्मीर युवकों को समझना चाहिए कि उनकी रगों में हिदू पूर्वजों का खून है। शेष देश की भांति कश्मीर के हिंदू और मुसलमानों के समान पूर्वज हैं, समान इतिहास हैं, समान संस्कृति है और धरती भी समान है। इसलिए हिंदू और मुसलमानों की राष्ट्रीयता भी एक ही है। मात्र मजबह मदलने से अथवा पूजा के तौर-तरीके बदलने से बाप-दादा नहीं बदल जाते तो फिर बाद-दादाओं की संस्कृति और राष्ट्रीयता कैसे बदल सकती है? अत: भारत की सरकार, राजनैतिक दलों और राष्ट्रवादी जनता को अब जाग जाना चाहिए। श्री अमरनाथ यात्रा द्वारा किये गये विजयी जनांदोलन ने देशद्रोहियों का पर्दाफाश किया है। कश्मीर में पनप चुके भारत विरोधी अलगाववाद को समाप्त करने का एक ही मार्ग शेष है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाकर कश्मीर में उपजे कश्मीर राष्ट्रके बवाल को समाप्त किया जाए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
पृष्ट 14
प्रेमनाथ डोगरा ने दिलायी जम्मू को नई पहचान  
गोपाल सच्चर
स्वर्गीय पंडित प्रेमनाथ डोगरा महान थे। उनके व्यक्तित्व के कई पक्ष उल्लेखनीय थे। विद्यार्थी जीवन में वह एक माने हुए फुटबाल खिलाड़ी थे। एक सरकारी अधिकारी के रूप में योग्य प्रशासक थे। सामाजिक जीवन में कुरीतियों तथा छुआछूत के विरुद्ध एक बड़े सुधारक थे। किन्तु राजनीतिक जीवन में जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बनाने के लिए कड़ा संघर्ष किया तथा जम्मू को एक पहचान दिलायी। ऐसे महान सपूत का जन्म 23 अक्टूबर 1884 को हुआ था।  
लगभग 160 वर्ष पूर्व महाराजा गुलाब सिंह ने अपनी वीरता तथा सामरिक रणनीति के आधार पर जम्मू-कश्मीर जैसे बड़े राज्य का निर्माण किया। देश की सीमाओं चीन, रूस, तजाकिस्तान और अफगानिस्तान तक बढ़ाया किन्तु कई कारणों से राजाओं के सौ वर्षों से अधिक के शासनकाल में उनका केंद्र बिंदु कश्मीर घाटी ही रहा। यद्यपि मूलरूप से उनका संबंध जम्मू से था और वह प्राय: डोगरा राज्य की संज्ञा के नाम से जाने जाते थे। 1947 में जब देश का विभाजन हुआ, परिस्थितियों तथा एक राष्ट्रवादी सोच के अंतर्गत महाराजा हरि सिंह ने अपने कानूनी अधिकारों का प्रयोग करते हुए भारत के साथ विलय का प्रस्ताव रखा किन्तु देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू यह शर्त लगा दी कि विलय के साथ महाराजा को सत्ता उनके मित्र तथा नेशनल कान्फ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्ला को सौंपना होगा।   
सत्ता संभालने से पूर्व एक राजनीतिक पत्र के रूप में पहले तो शेख मुहम्मद अब्दुल्ला ने महाराजा को अपने लिखित पत्र में उनका राजभक्त रहने का आश्वासन दिया; किन्तु कुछ ही समय पश्चात् न केवल महाराजा को राज्य से बाहर निकालने के लिए षड्यंत्र रचना शुरू कर दिया किन्तु कई डोगरा नेताओं को पकड़कर जेल में डाल दिया तथा कई राष्ट्रवादियों को राज्य से बाहर का रास्ता दिखा दिया। जिन लोगों को जेल में डाला गया उनमें पंडित प्रेमनाथ डोगरा प्रमुख थे और बाहर निकाले जाने वालों में केदारनाथ साहनी तथा कई अन्य भी थे। उन्हीं दिनों भारत का संविधान बन रहा था जिसमें जम्मू-कश्मीर से शेख अब्दुल्ला के साथ उनके तीन बड़े साथी भी भारत के संविधान के निर्माण में भागीदार बने। 
जम्मू के विरुद्ध नेशनल कान्फ्रेंस की घृणा इसलिए भी थी कि महाराजा मूलरूप से जम्मू के थे तथा कश्मीर के नेता उन्हें डोगरा मानकर डोगरों कश्मीर छोड़ दोके नारे उसी प्रकार लगाते थे जिस प्रकार शेष भारत में अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलनचलता था। अत: भारत के संविधान निर्माण के समय चतुरता से नाम लेते हुए राज्य के इन प्रतिनिधियों ने जम्मू, कश्मीर, लद्दाख, गिलगित के स्थान पर अपने राज्य का नाम केवल कश्मीर दर्ज करवा दिया किन्तु दूरदर्शी बंगाल तथा कुछ अन्य भागों के प्रतिनिधियों के हस्तक्षेप से संशोधन हुआ तथा इस राज्य को संविधान में जम्मू-कश्मीर का नाम मिला, लद्दाख और गिलगित का नाम समाप्त हो गया। इसी के साथ नेशनल कान्फ्रेंस तथा कांग्रेस ने संविधान की आठवीं सूची में केवल कश्मीरी भाषा को ही शामिल करवाया अपितु देश की भाषाओं की इस सूची में डोगरी को कोई स्थान नहीं मिल सका।  
कई वर्षों के संघर्ष के पश्चात् डोगरों को उनकी भाषा की पहचान 2003 में जाकर भाजपा-नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के शासनकाल में प्राप्त हुई। जम्मू के साथ भेदभाव को समाप्त करवाने तथा इस राज्य और शेष भारत के बीच अलगाववाद की दीवारों को समाप्त करवाने के लिए स्वर्गीय पंडित प्रेमनाथ डोगरा के नेतृत्व में राज्य प्रजा परिषद का गठन हुआ। राष्ट्रवादियों के इस संगठन ने एक कड़े संघर्ष का रास्ता अपनाया जिसमें पंडित डोगरा को कई बार जेल यातनाओं को सहन करना पड़ा, कई आंदोलन हुए, कई युवक पुलिस की गोलियों का निशान बने।
वर्ष 1952 व 53 के बड़े संघर्ष में देश के विरोधी पक्ष के महान नेता डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को भी अपने जीवन की आहुति देनी पड़ी। अत: इस प्रकार पंडित डोगरा के नेतृत्व में कई संघर्ष किये गये। कुछ बडे़ इतिहासकारों का कहना है कि अगर महाराजा गुलाब सिंह ने इस राज्य का निर्माण किया था तो पंडित डोगरा ने देश की स्वतंत्रता के पश्चात् इसे भारत का अभिन्न अंग बनाये रखने तथा जम्मू की पहचान दिलाने में अपना बहुत बड़ा योगदान दिया था। किन्तु भेदभाव का अध्याय अभी भी समाप्त नहीं हुआ है जिसके लिये राष्ट्रवादी शक्तियां अभी भी प्रयत्नशील हैं। 
एक बार एक बड़े पत्रकार ने पंडित डोगरा को एक गुलदश्ता की संज्ञा दी थी। अपने लेख में उस पत्रकार ने पंडित डोगरा के जीवन के बहुपक्षीय होने की चर्चा की थी। उन्हें अजातशत्रु भी कहकर यह स्पष्ट किया था कि पंडित डोगरा ने एक ऐसी जीवनशैली को अपनाया था कि उनके विरोधी भी अन्तत: उनकी स्पष्टता का लोहा मानने लगे। उन्होंने कभी सिद्धांतों के साथ समझौता नहीं किया। उनका कहना था कि सम्प्रदाय के आधार पर कोई बंटवारा नहीं होना चाहिए। इससे मानवता के लिए दुखों के सिवाय कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता। पंडित डोगरा के जीवन संबंधी चर्चा के कुछ ऐसे पक्ष भी हैं जिनका बहुत ही कम उल्लेख हुआ है किन्तु आज की वंशवाद की राजनीति तथा राजनेता बनकर सम्पत्ति जुटाने का क्रम पंडित डोगरा के त्याग को और भी महान बना देता है। वह सरकार प्रशासन के उच्च पदों पर रहे। महाराजा के काल में उनकी प्रजा सभा के सदस्य चुने गये और फिर 1957 से लेकर 1972 तक तीन बार राज्य विधानसभा के सदस्य भी रहे; किन्तु उन्होंने कोई सम्पत्ति नहीं जुटाई और अपने जीवन के अंतिम दिनों में आर्थिक कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ा। 
(लेखक : जम्मू-कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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Azad Kashmir: Neither Azad nor Kashmiri
Jaibans Singh
With the swearing in of Sardar Mohammad Yaqub Khan as President of the so-called “Azad Jammu and Kashmir” (AJK), which is more aptly termed as Pakistan Occupied Kashmir (POK), the ruling Pakistan People’s Party (PPP) has, in accordance with tradition, established its stranglehold on the region. Historically, it is always the ruling party, or a Pakistan Army sponsored party when the country is under military rule, which forms a government in POK. Recently, in a sham which passed off as elections, the PPP, predictably, established a majority in the legislative assembly and installed its senior member, Choudhary Abdul Majeed, as the Prime Minister. Sardar Muhammad Yaqub Khan, an erstwhile member of the All Party Hurriyat Conference, joined the PPP a little before the assembly elections and has been rewarded for his defection by being appointed the President of AJK alias POK. Thus the stranglehold is once again complete. 
The newly appointed President has not taken too long to establish his intention to toe the PPP line despite being in an apolitical appointment. In his address after taking oath, he roundly condemned the arrest Ghulam Nabi Fai despite it having been established that Fai was involved in underhand lobbying sponsored by the ISI . He further said that his top priority would be the Kashmir issue as his ancestors had “liberated the territory of Azad Kashmir” and their mission has to be completed, so much for reconciliation. 
A different version to the entire ballgame has been presented by Altaf Hussain, the exiled leader of the Muttahida Qaumi Movement (MQM), whose ”Mohajir” party members are being selectively targeted in the ongoing violence in Karachi. In a telephone conversation with Sardar Atique Ahmad Khan, an ex-Prime Minister of POK, the MQM chief said, “Everyone in Pakistan is aware of the fraud in the recent Azad Kashmir elections.” “The current government is authoritarian and not a democratic government,” he added. 
In POK, every action of the civilians is scrutinised by the hawk-eyed army and the ISI. This is because the entire administration is in the hands of the Pakistani army. The army runs the schools, the water department, the power stations, and the transport. Mohammed Mumtaz Khan, a senior leader from Rawalakote has gone on record to state: ‘Pakistani army is using POK as a training camp for terrorists, as for development, the area lags behind Jammu & Kashmir by ages, where development had moved at almost the same pace as that of other cities in India.’ In POK, no freedom is granted to the media, in fact there is no media at all. Whatever public opinion is there gets squashed immediately. There is no way you can go out and hold a protest march since an action of this nature invites retaliation with firing by troops 
The Human Rights Commission of Pakistan (HRPC) has opined that people in POK have suffered gross violations of their rights, from being continuously ‘watched and monitored’ by Pakistan’s ISI to denial of basic fundamental rights including access to judiciary and fair trial. As per HRPC ‘People feel that their and political rights have been infringed under the guise of the Maintenance of Public Order Ordinance, which prohibits activities that are prejudicial to public safety”. 
The residents of POK lack a constitutional status in Pakistan even more so than the Mohajirs, the Balochis, the Pashtuns and the Sindhis who are now in open revolt against the government seen to be Punjabi (Army) dominant. Presently, there is no semblance of a Nation state in the geographic area which passes off as the Islamic Republic of Pakistan. In this turmoil the biggest victim are the people of POK and Northern Areas who are undergoing rampant colonisation. The recently held elections and the installation of the puppet government has laid the framework of continued exploitation in the long run. 
Deep beneath the layer of deceit and blatant opportunism that has enveloped POK since the last six plus decades there is a very palpable disgust for Pakistan. Many in POK, including its large Diaspora in the United Kingdom and other parts of the world, find India’s handling of its part of Kashmir more commendable. There is a growing awareness that while India has respected Kashmir’s age-old practice of not allowing outsiders to settle down in the valley, Pakistan has allowed over 28,000 Afghan families to settle down and fleece the local populace in the name of Jihad. With regard to socio-economic parameters everyone is aware that Kashmiri’s in the valley are better educated and better skilled due to the better education facilities that are available to them. On the political front, India has held fair elections in the Valley right down to the Panchayat level while the Pakistani government not only indulges of gross manipulation of elections, it also has the gumption of dismissing installed governments at will. 
Azad Kashmir is neither inhabited largely by Kashmiris nor is it Azad. There are voices of protest coming up; those actively involved in this crusade to obtain justice are Shabir Choudhry’s Jammu and Kashmir Liberation Front, Abdul Hamid Khan’s Balawaristan National Front, All Party National Alliance, Karakoram National Movement, Karakoram Students Organization and Afro-Asian Peoples Solidarity Organization and many others. These political organisations have, time and again, reiterated their demand for empowering the people of POK and Northern Areas to decide their future both political and economic outside the Islamic Republic of Pakistan. The time has arrived for the world, led by India, to intervene in this highly oppressed region and pressurise the government of Pakistan to pay cognisance to the just demands of the people.

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Massacre of pilgrims
K.N. Pandita
The massacre of twenty-eight Shia pilgrims in Balochistan who headed for a pilgrimage to the neighbouring country of Iran has, once again, diverted attention to brutal sectarian attacks and clashes in the Islamic Republic of Pakistan. The notorious Lashkar-e-Jhangvi, known for its rabid anti-Shia animus has accepted the responsibility of this dastardly act. The pilgrims destined for Taftan on Balochistan-Iran border were travelling in a bus which was stopped through a road block obstruction and then the passengers were asked to come out, lined up and shot dead one by one. The gruesome act is not the first of its kind in Pakistan. Attacks on Shia community members praying in mosques or assembling in Imambargahs for congregational prayers have been fired at in the past resulting in many casualties. The attack by Lashkar-e Jhangvi came in spite of official ban on the terrorist group. It means that the government in Pakistan is unable to enforce its own decree or that it is conniving at these heinous crimes and turns its head away. A government is supposed to provide security of life and property to its citizens. That is always the first Article in any constitution. But failure of Pakistan government or the local government to provide security and safety to the pilgrims who are also a minority group raises many questions about the policy and intentions of the government in power. 
Pakistan was created by the Muslims of India on the basis that they wanted a separate home for the Muslims of the sub-continent. But while Pakistan came into being, nobody among the leaders and stakeholders of partition and creation of a homeland for the Muslim said whether the new country carved out of India was for the Sunnis or Shias or Ahmadis or Ismailis. They sought to bulldoze various sectarian identities and also failed to prove that the new government worked irrespective of sectarian identities of the people who inhabited it. Not only that, there are four theological schools among the Sunnis as well and it was not set forth which of the four schools was the officially recognised school for the Islamic Republic of Pakistan. The Devbandi and Barelvi schools within same sect have often been at loggerheads with deep and widening differences in many religious matters. This too was left unattended. Therefore the basic question arises for whom was the Islamic Republic of Pakistan created?

Pakistan gloats over not being a secular state and castigates India for her secularist ideology labelling it "la diniyat" meaning faithlessness. But which faith allows massacring and butchering innocent people intending to proceed on pilgrimage? The carnage indicates that law and order has completely broken down in Pakistan and lawlessness is the order of the day. It has to be reminded that the Sunnis in the southern province of Pakistan have raised a Sunni organization called Jundullah that has indulged in violence several times and is aimed at crushing pro-Shia elements not only within the boundaries of Pakistan but Iran also. Some time back Jundullah conducted an operation in Iranian Balochistan and killed a number of Iranian security men deployed to man the border with Pakistan. Thus there is not one but more than one terrorist outfit in Pakistan that have taken upon themselves the task of crushing the Shia community in that country. It will be reminded that the Ahmadis have already borne the brunt of Sunni-Hanafi fanaticism and they have been excommunicated from Islam. It was on the behest of the Government of Pakistan that Ahmadis were declared non-Muslims and not allowed to pray in a Sunni mosque. This exposes the theory that anybody speaking kelima or the word of Islamic confession will be protected by the Muslims. The Islamic Republic of Pakistan has shrunk to Sunni-Hanafi-Wahhabi Islamic Republic of Pakistan. 
Another aspect of sectarian violence in Pakistan against the Shia minority community is about Iran's reaction. Since Iran claims to be a theocratic state and claims to be transcending sectarian divide in Islam, is it not Tehran's duty to lodge protest against the killing of a defenceless Shia minority? Iran has desisted from take genuinely serious note of these developments in Pakistan. Why the Ayatollahs in Iran are silent and tight lipped on these un-Islamic incidents and blatant violation of human rights. Pakistan cries hours about human rights violation in connection with a solitary or chance loss of life in Kashmir owing to militancy. But neither Pakistan's Human Rights Organizations and NGOs or the Iranian government demand an enquiry into these brutal acts of human rights violations. Who is answerable for the massacre of innocent people of a religious minority community in Pakistan?


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सम्पादक : आशुतोष   सम्पादकीय सहयोग : पवन कुमार अरविंद 
जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र, करगिल भवन, अम्बफला कॉम्प्लेक्स, जम्मू, द्वारा
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