Tuesday 14 February 2012

वर्ष : 1, अंक : 10, नई दिल्ली, फरवरी (संयुक्त अंक), कुल पृष्ठ 12


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गिलगिट-वाल्टिस्तान चीन को देने की तैयारी में पाक
वाशिंगटन/नई दिल्ली। अमेरिका के साथ तनाव के बीच चीन से अपने रिश्ते को मजबूत करने के लिए पाकिस्तान गिलगिट और वाल्टिस्तान 50 वर्षों के लिए बीजिंग को देने के प्रस्ताव पर विचार कर रहा है। अमेरिका के प्रतिष्ठित मिडल ईस्ट मीडिया रिसर्च इंस्टीट्यूट ने विगत दिनों (10 फरवरी) जारी अपनी रिपोर्ट में स्थानीय उर्दू अखवारों के हवाले से बताया कि पाकिस्तान का यह कदम अमेरिका के साथ कभी भर सकने वाले दरारों के बीच चीन के साथ संबंधों को पूरी तरह मजबूत करने के लिए है।
रिपोर्ट के मुताबिक, गिलगिट और वाल्टिस्तान के लिए पाकिस्तान चीन सामरिक कार्यक्रम का फैसला संभवत: सेना प्रमुख जनरल अशफाक परवेज कयानी की जनवरी 2012 में चीन यात्रा के दौरान लिया गया उर्दू अखवार रोजनामा बांग शहरमें प्रकाशित खबर के मुताबिक, पाकिस्तान में बिगड़ती स्थिति, अमेरिका के साथ तनावपूर्ण संबंधों के आलोक में गिलगिट व वाल्टिस्तान चीन को 50 साल की लीज पर देने पर विचार शुरू हो गया है।
एफबीआई के एक पूर्व अधिकारी की अगुवाई वाले अमेरिकी थिंक टैंक के मुताबिक, उर्दू अखवार की खबर में कहा गया कि चीन की एक थिंक टैंक ने भी हरी झंडी दे दी है। इस अखवार को पाकिस्तानी सीमा चौकी पर नाटो हमले में 24 पाकिस्तानी सैनिकों के मारे जाने के तीन हफ्तों के भीतर 13 दिसम्बर 2011 को गिलगिट व वालिटस्तान में वितरित किया गया।
उर्दू अखवार ने कहा कि चीन और पाकिस्तान के थिंक टैंक ने इस इलाके को चीन के नियंत्रण में देने के विषय पर विचार विमर्श शुरू कर दिया है। खबर में कहा गया,‘योजना के पहले चरण में चीन इलाके में विकास परियोजनाओं की रणनीति तैयार करेगा और धीरे-धीरे क्षेत्र को अपने नियंत्रण में ले लेगा।
रिपोर्ट के मुताबिक, चीन 50 सालों के लिए गिलगिट व वाल्टिस्तान को पूरी तरह अपने नियंत्रण में ले लेगा और अपनी सेना को वहां तैनात करेगा। अमेरिकी थिंक टैंक ने कहा कि पाकिस्तान सेना प्रमुख जनरल कयानी की 4 - 8 जनवरी की पांच दिवसीय चीन यात्रा के कारण रोजनामा बंग--सहर की रिपोर्ट महत्वपूर्ण हो जाती है।
बीजिंग में चीनी प्रधानमंत्री वेन जियावाओ के साथ बैठक में जनरल कयानी ने कहा कि चीन पाकिस्तान सामरिक साझेदारी दोनों देशों की नीतियों के लिए महत्वपूर्ण हैं। अपनी टिप्पणी में चीनी प्रधानमंत्री ने कहा,‘चीनी सरकार और सेना दोनों देशों के बीच रक्षा सहयोग को मजबूत करना और ज्यादा से ज्यादा सैन्य आदान-प्रदान जारी रखेगी।उर्दू अखवार में प्रकाशित खबरों के हवाले से वाशिंगटन स्थित थिंक टैंक ने कहा कि पाकिस्तानी और चीनी सेना गिलगिट व वाल्टिस्तान के संयुक्त सैन्य प्रबंधन की दिशा की ओर बढ़ रहे हैं।
गिलगित-वाल्टिस्तान   
जम्मू-कश्मीर के इस क्षेत्र को पाकिस्तान ने विधिवत अपना प्रांत घोषित कर उसका सीधा शासन अपने हाथ में ले लिया है। यह लगभग 63 हजार वर्ग किमी. विस्तृत भू-भाग है, जिसमें गिलगित लगभग 42 हजार वर्ग किमी. और वाल्टिस्तान लगभग 21 हजार वर्ग किमी. है। गिलगित का सामरिक महत्व है। यह वह क्षेत्र है जहां 6 देशों की सीमाएं मिलती हैं- पाकिस्तान, अफगानिस्तान, तजाकिस्तान, चीन, तिब्बत एवं भारत। यह मध्य एशिया को दक्षिण एशिया से जोड़ने वाला दुर्गम क्षेत्र है जो सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है तथा जिसके द्वारा पूरे एशिया में प्रभुत्व रखा जा सकता है।
अमेरिका भी पहले गिलगित पर अपना प्रभाव रखना चाहता था और एक समय चीन के बढ़ते प्रभुत्व को रोकने के लिये सोवियत रूस की भी ऐसी ही इच्छा थी, इसलिये 60 के दशक में रूस ने पाकिस्तान का समय-समय पर समर्थन कर गिलगित को अपने प्रभाव क्षेत्र में लाने का प्रयास किया था। वर्तमान में गिलगित में चीन के 11000 सैनिक तैनात हैं। पिछले वर्षों में इस क्षेत्र में चीन ने लगभग  65 हजार करोड़ रूपये का निवेश किया व आज अनेक चीनी कम्पनियां व कर्मचारी वहां पर काम कर रहे हैं।
1935 में जब सोवियत रूस ने तजाकिस्तान को रौंद दिया तो अंग्रेजों ने गिलगित के महत्व को समझते हुये महाराजा हरिसिंह से समझौता कर वहां की सुरक्षा व प्रशासन की जिम्मेदारी अपने हाथ में लेने के लिये 60 वर्ष के लिये इसे पट्टे पर ले लिया। 1947 में इस क्षेत्र को उन्होंने महाराजा को वापिस कर दिया। इसकी सुरक्षा के लिये अंग्रेजों ने एक अनियमित सैनिक बल गिलगित स्काउट का भी गठन किया। (वितस्ता ब्यूरो)
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कश्मीर पर पाक को समर्थन नहीं देता चीन
वाशिंगटन। प्रसिद्ध पाकिस्तानी लेखक अहमद राशिद ने कहा है कि चीन के लिए पाकिस्तान भले ही एक सर्वकालिक सहयोगी हो, लेकिन बीजिंग भारत के साथ दुश्मन की तरह व्यवहार नहीं करेगा। क्योंकि पाकिस्तान के लिए चीन भारत के साथ अपने 60 अरब डॉलर के व्यापार को खतरे में नहीं डालेगा।
राशिद ने अपनी नई पुस्तक पाकिस्तान ऑन द ब्रिंक : द फ्यूचर ऑफ अमेरिका, पाकिस्तान एंड अफगानिस्तान में लिखा है कि आर्थिक कारक इस बात की ओर इशारा करते हैं कि पाकिस्तान लंबे समय तक भारत के विरुद्ध बिना शर्त या पूर्ण समर्थन के लिए चीन पर और आगे विश्वास नहीं कर सकता है। यह पुस्तक 19 मार्च को बाजार में आएगी।
लेखक ने कहा कि चीन भारत की उभरती हुई अर्थव्यवस्था को संतुलित करने के लिए पाकिस्तान के साथ रणनीतिक संबंध चाहता है और पाकिस्तान ने ऐसा करने के प्रति सहमति जताई है। उन्होंने लिखा, “चीन भारत के साथ दुश्मन की तरह व्यवहार करने के लिए तैयार नहीं है जैसा कि पाकिस्तान उससे अपेक्षा रखता है। चीन चाहता है कि भारत और पाकिस्तान छद्म युद्ध की स्थिति में न रहकर शांतिपूर्वक रहें।
राशिद ने लिखा है कि एक समय चीन कश्मीर को लेकर पाकिस्तान के रुख का प्रबल समर्थक था, लेकिन 1990 के मध्य से वह उतनी मजबूती से पाकिस्तान का समर्थन नहीं कर रहा है। चीन इस बात की संभावना देख रहा है कि उसका भारत के साथ व्यापार अगले 10 वर्षों में छह गुना बढ़ सकता है।
जम्मू-कश्मीर में धर्मांतरण पर अपनी राय दें सोनिया
नई दिल्ली। भाजपा ने जम्मू-कश्मीर के धर्मांतरण विवाद पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से जवाब देने की मांग की है। भाजपा ने कहा कि कांग्रेस अध्यक्ष को केंद्रीय मंत्री फारुख अब्दुल्ला के बयान पर अपनी स्थिति साफ करनी चाहिए। फारुख ने कश्मीर घाटी में ईसाई मिशनरियों के धर्मांतरण के कार्यों में लिप्त होने का विरोध किया है।
भाजपा प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर ने विगत दिनों (24 जनवरी) कहा कि जब झारखंड, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भाजपा लालच व प्रलोभन से किए जाने वाले धर्मांतरण का विरोध करती है तो उन्हें साम्प्रदायिक बता दिया जाता है। अब यही वात फारुख कह रहे हैं। केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश भी धर्मांतरण का विरोध कर चुके हैं, इसलिए सोनिया गांधी को देशवासियों को बताना चाहिए कि धर्मांतरण पर उनकी क्या राय है।
ईसाई मिशनरियों के समर्थन में उतरे गिलानी
नई दिल्ली। अलगाववादी संगठन हुर्रियत कान्फ्रेंस के कट्टरपंथी धड़े के नेता सैय्यद अली शाह गिलानी जम्मू-कश्मीर के ईसाइयों को हिम्मत देने के लिए खुलकर उनके समर्थन में आ गए हैं। उन्होंने राज्य सरकार की नाकामी के बीच शरई अदालत के उस आदेश को चुनौती देते हुए कहा कि वह चार ईसाई मिशनरियों को जम्मू-कश्मीर से वाहर भेजे जाने के पक्ष में नहीं हैं, यह तर्कहीन है। गिलानी ने दिल्ली से विगत दिनों (28 जनवरी) जारी बयान में कहा कि वादी में हर अल्पसंख्यक की हिफाजत करना हमारा फर्ज है। कुछ-एक लोगों को कश्मीर से वाहर करके धर्मान्तरण पर रोक नहीं लगाई जा सकती।    
ज्ञातव्य है कि राज्य की शरई अदालत ने 11 जनवरी को एक फैसले में चार पादरियों- सीएम खन्ना, चंद्रकांता खन्ना, गयूर मसीह और जीएम ब्रोस्ट को वादी में मुस्लिम युवक-युवतियों को बरगलाकर ईसाई बनाने के आरोप में दोषी मानते हुए हमेशा के लिए राज्य की सीमा से वाहर रहने का आदेश सुनाया। इसके अलावा सभी मिशनरी स्कूलों में इस्लाम की पढ़ाई और नमाज के लिए समय निर्धारित करने के अलावा सुबह की प्रार्थना सभा में अल्लामा इकवाल द्वारा लिखी दुआ को शामिल करने को कहा है। अदालत के इस आदेश के वाद न सिर्फ राज्य सरकार चुप है, बल्कि उदारवादी हुर्रियत कांफ्रेंस के नेता मीरवाइज उमर फारूक भी फैसले के समर्थन में हैं।

Page 3/ Editorial

सम्पादकीय

जम्मू-कश्मी में धर्मांतरण कभी न तो सत्तारूढ सरकारों और राजनैतिक दलों की चिंता का वि शय रहा है और न कट्टरपंथियों का। इस राज्य में धर्मांतरण केवल एकतरफा हुआ करता था। हिंदुओं या बौद्धों का धमांतरण कश्मीर घाटी के शासकों के लिए शायद स्वाभाविक प्रक्रिया थी जिस में किसी प्रकार के हस्तक्षेप की कोई आवश्यकता नहीं थी। सरकार का प्रत्यक्ष रूप से कोई सरोकार नहीं था, लेकिन कट्टरपंथी संगठनों का था, वे इसे इस्लामीकरण की आवश्य प्रक्रिया मानते थे। सत्तारूढ़ दलों के लिए अपना समर्थन आधार बढ़ाने की सुविधा थी। जब कभी कश्मीर घाटी में किसी हिंदू को लोभ या डर के आधार पर धर्म बदलने पर मजबूर होना पड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय ने प्रतिरोध किया तब भी सरकारों का व्यवहार उदासीन ही रहा है। घाटी में तो इस तरह की घटनाएं कभी कभी ही हुई क्योकि आतंकवादी मारकाट के दिनों में भी कश्मीरी हिंदुओं को आतंकवादियों ने तीन विकल्प दिए थे। लेकिन उन्होंने मिलने यानी धर्म बदलने के बदले भागने या मरने के अन्य दो विकल्पों को ही चुना। लेकिन सुदूर लध्दाख में प्रेस और प्रेक्षकों की नजरों से परे धर्मांतरण लगातार होता रहा है। ईसाइयों ने भी यहां अपनी भूमिका निभाई लेकिन मुस्लिम कट्टपंथी इस मामले में काफी सक्रिय रहे हे। हालांकि धर्मांतरण लध्दाख में काफी समय से चलता रहा है, लेकिन पिछले बीस तीस साल में लध्दाख की जनसंख्या में सांप्रदायिक संतुलण बिगड गया। बडे पैमाने पर धर्मांतरण से क्षुब्ध लद्धाख की बौद्ध बहुल जनता कुछ वर्ष पहले आक्रोश में सडकों पर उत्तर आई। इसी आंदोलन ने वाद में लद्धाख को जम्मू-कश्मीर राज्य से अलग केंद्र शासित क्षेत्र में बदलने की मांग का रूप ले लिया। वहां के लोगों को लगने लगा कि कश्मीर घाटी के मुस्लिम बहुल शासकों के हाथों में उन की धार्मिक और सांस्कृतिक अस्मिता सुरक्षित नही है। इस लिए जब कश्मीर घाटी में ईसाई मि शनरियों द्वारा कश्मीरी युवकों को धर्मांतरण के लिए प्रेरित करने की घटनाएं सामने आईं तो कश्मीर घाटी में कुछ मुसिम संगठनों का इंसाई विराधी आंदोलन और कथित  शरई अदालतों के फैसलों से आष्चर्य नहीं होता। लेकिन हैरानी की वात तो है कि सइद अलीषाह गीलानी जैसे घोशित कट्टपंथी और निजामे मुस्तफा के हिमायती ईसाइयों के पक्ष में बयान दें। दरअसल गीलानी को ईसाई पादरियों से कोई हमदर्दी नहीं है। शरई आदलत ने चार पादरियों को राज्य से निकल जाने को कहा तो इस में भी उन्ह परेशानी नहीं होती अगर उनहें चितां न होती कि कहीं उन की अपनी रालनैतिक दुकान बंद न हो जाए। अब तक कट्टपंथी गुटों के लिए गीलानी ही राजनैतिक सलाहकार बने हुए थ। किसी किसी मामले में तो उन्होंने मीरवाइज उमर फारूक को भी पीछे छोड दिया है। लेकिन  शरई अदालत नाम के संगठन के बीच में आने से यह खतरा पैदा हो गया है कि कालांतर में वह भी पाकिस्तान की  शरई अदालत की तरह निर्णायक स्थिति में न आए।

कट्टरपंथ के विकास की यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। अभी तक कश्मीर में ऐसा कोई संगठन नहीं है जो मजहबी अदालत की हैसियत रखता हो। सवाल उठता है कि क्या कथित  शरई आलत नाम के संगठन की पहल कश्मीर की रालनीति का मजहबी फतवों से नियंत्रित होने के दौर का संकेत है ? गीलानी अपने का कथित अल्पसंख्यक प्रेम केवल मजहबी राजनीति के अधिकार की जंग ही है।

जहां तक ईसाई मि शनरियों के घर्मासंतरण का प्रश्न है वे अपना षिकार दूरदाज के आर्थिक रूप से पिछडे क्षेत्रों को ही चुनते हे। भारत में उन्हाने स्वतंत्रता के वाद वनवासी राज्यों को ही अपनी गतिविधि का केंद्र बनाया है। झारखण्ड, छत्तीसगढ और औडिषा के गरीब इलाकों में आर्थिक प्रगति का लोभ धर्मांतरण का सबसे प्रभावी कारक रहा है। भारत की मुख्य राष्ट्रीय धारा से अलगाव भी एक कारक रहा है। लेकिन कश्मीर घाटी में ईसाई मि शनरियों की सक्रियता चाैंकाने वाली वात अवष्य है क्योंकि घाटी अर्थिक रूप् से पिछडी तेा है नही , कट्टरपंथी मुस्लिम गुटों की सक्रियता के कारण लोगों में मजहबीे जुनून पैदा करने की कोषिषें भी होती रहीं है। यह एहसास ईसाई मि शनरियों को भी रहा होगा कि कश्मीर में धर्मातरण की कोषि श उन के खिलाफ उग्र पतिक्रिया को जन्म देगी जो ईसाइत फेैलाने के उद्देष्य को और भी कठिन्न बना देगी। फिर भी अगर यह जोखिम  िलया गया तो प्रष्न उठता है कि क्या इस के पीछे कोई लम्बी तैयारी रही है? पिछले कुछ समय से ऐतिहासिक रूप से अपुश्ट मान्यता को फिर से जीवित करने की कोषि श की गई है कि ईसा मसीह अपने देषाटन के के दौरान कुछ समय कश्मीर में रहे थे। कुछ लोग एक कबर को ईसा से जोड कर दिखाते रहे हैं। लेकिन ये न तो नई वातें हैं और न इनका प्रभाव अब तक कश्मीर के जनमानस पर पडा है।

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धर्मान्तरण के लिए सरकारी निमंत्रण
आर.एल. फ्रांसिस
केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश ने दिल्ली में 20 जनवरी को कैथोलिक संगठन कैरिटस इंडियाके स्वर्ण जयंती समारोह का उद्घाटन करते हुए आर्चबिशपों, बिशपों सहित कैथोलिक ननों, पादरियों और श्रोताओं की सभा में बोलते हुए कहा कि कैथोलिक चर्च द्वारा संचालित संगठन नक्सल प्रभावित इलाकों में विकास करने में मदद करें लेकिन लक्ष्मण रेखाका सम्मान करें और धर्मांतरण की गतिविधियां नहीं चलाएं। लेकिन क्या जयराम रमेश का यह सरकारी निमंत्रण आदिवासी इलाकों में धर्मांतरण को बढ़ावा नहीं देगा? अभी तक का चर्च संगठनों का इतिहास इसके उलट गवाही दे रहा है। हालांकि मंत्री जी ने कहा कि वह कैरिटस के वारे में कैथोलिक संगठन के रूप में नहीं बल्कि कैथोलिक संचालित सामाजिक संगठन के रूप में वात कर रहे हैं। कैरिटस जलापूर्ति, आवास, पुनर्वास और प्राकृतिक आपदाओं के शिकार लोगों के लिए कार्य करता है। 

इसके अगले दिन ही कश्मीर से जुड़ी एक खबर इसी लक्ष्मण रेखाके एक और आयाम को रेखांकित करती है। वहां की एक शरीयत अदालत ने धर्मान्तरण विवाद पर पादरी सी.एम. खन्ना, गयूर मसीह, चंद्रकांता खन्ना और पादरी जिम ब्रेस्ट के राज्य में प्रवेश पर पाबन्दी का फैसला सुनाया और इसी के साथ घाटी के मिशनरी स्कूलों की निगरानी के साथ वहां इस्लामिक शिक्षा देने की पहल करने को भी कहा है। श्रीनगर स्थित आल इंडिया सेंट्स चर्च के पादरी सी.एम. खन्ना पर मुस्लिम युवकों को प्रलोभनदेकर धर्मान्तरण कराने के आरोप लगे थे। इस मामले में उनके विरुद्व धारा 153 ए और 295 ए के तहत मामला दर्ज कर उन्हें जेल भी भेजा गया था। यह दोनों धाराएं दो समुदायों के बीच आपसी वैमनस्य बढ़ाने और दूसरे की भावनाओं को आहत करने और अशांति फैलाने पर सख्त सजा का प्रावधान करती है।

हाल ही में एक राष्ट्रीय पत्रिका में प्रकाशित लेख के मुताबिक योजना-बद्ध तरीके से धर्मान्तरण की मुहिम चलाने की रणनीति अपनाई जा रही है। आंकड़े बताते है कि भारत में चार हजार से ज्यादा मिशनरी गुप्र सक्रिय हैं जो धर्मान्तरण की जमीन तैयार कर रहे है। इससे घाटी में महौल ईसाई मिशनरियों के विरुद्व होने लगा है। हुर्रियत के उदारवादी गुट के नेता मीरवाइज फारुक के नेतृत्व में कश्मीर के सभी इस्लामिक संगठनों के नेताओं, मौलवियों की बैठक मुत्तिहादा मजलिस-ए-उलेमानामक संगठन के नाम पर हुई जिसमें ईसाई मिशनरियों और अन्य गैर इस्लामिक ताकतों से निपटने के लिए तहफ्फुज-ए-इस्लामनामक संगठन का गठन किया।

संगठन ने घाटी के मिशनरी स्कूलों को धर्मान्तरण का अड्डा बताते हुए राज्य सरकार से इनकी निगरानी के साथ वहां इस्लामी शिक्षा देने की पहल करने को कहा है। ऐसे किसी भी साहित्य पर रोक लगाने की मांग की है जो इस्लामिक शिक्षाओं और सिद्धान्तों के विरुद्ध हो। कश्मीरी नेतृत्व धर्मान्तरण के प्रति लगातार चौंकन्ना रहता है। कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली से प्रकाशित एक अंग्रेजी दैनिक में इस तरह की खबरों के कारण चर्च नेतृत्व को सफाई देनी पड़ी थी लेकिन इस वार यह मामला शांत होता दिखाई नही दे रहा। घाटी की खबरों के मुताबिक, कुछ अलगाववादी नेताओं और संगठनों ने मीरवाइज और गिलानी के बीच धर्मान्तरण मुद्दे पर एकता कराने कराने का प्रयास किया। हालांकि, एकता तो नहीं हुई है, अलबत्ता दोनों गुट मिलकर एक साझा रणनीति बनाकर लोगों को सड़क पर लाने के मुद्दे पर सहमत हो गए हैं।

जम्मू-कश्मीर कैथोलिक आर्चडायसिस के बिशप पीटर सेलेस्टीन एलमपसरी और चर्च ऑफ नार्थ इंडिया अमृतसर डायसिस के बिशप पी.के. सामानरी ने सरकार से इस मामले में हस्तक्षेप करने का आग्रह किया है। घाटी में ईसाइयों की संख्या बेहद कम है वहीं जम्मू क्षेत्र में कठुआ, जम्मू और इसके आसपास ईसाइयों की कुछ आवादी है। कुछ वर्ष पूर्व प्रसार भारती द्वारा प्रसारित एक वृत्तचित्र इन सर्च ऑफ सैल्फ रिस्पैक्टमें इस क्षेत्र के ईसाइयों को बेहद दयनीय स्थिति में दिखया गया था, धर्मान्तरण के वाद भी उनके जीवन में कोई विशे श बदलाव नहीं हुआ। अधिक्तर आज भी सफाई कर्मचारी के रूप में अपना जीवन निर्वाह कर रहे है। जबकि राज्य में कैथोलिक एवं प्रोटेस्टेंट चर्चों के पास विशाल संसाधनों का भंडार है।

केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश स्पष्टवादी और स्वतंत्र सोच के हैं। उनके बयानों से कई वार उनकी सरकार को भी असहज स्थिति से गुजरना पड़ा है। धर्मान्तरण पर उनके बयान के गंभीर अर्थ हैं। चर्च के पास उपलब्ध विशाल संसाधनों का प्रयोग केन्द्र और राज्य सरकारें मानव कल्याण के लिए करने को आतुर हैं। भारत में किसी को भी चर्च के सेवा कार्यों से अपत्ति नहीं है, अपत्ति है इसकी आड़ में दूसरे की आस्था में अनावश्यक हस्तक्षेप से। भारत का संविधान किसी भी धर्म का अनुसरण करने की आजादी देता है उसमें निहित धर्मप्रचार को भी मान्यता देता है। समाज सेवा की आड़ में दूसरों की आस्था पर हमले की इजाजत नहीं देता। सेवा कार्यों और धर्मान्तरण के बीच यही एक लक्ष्मण रेखा है। जिसके सम्मान की आशा हर भारतीय चर्च संगठनों से करता है। धर्मांतरण से न केवल धर्म बल्कि भाषा और सामाजिक व्यवस्था भी पूरी तरह बदल जाती है अंततः जिसका परिणाम सांस्कृतिक परिवेश के परिवर्तन के रूप में होता है। मध्य एशिया में धर्मांतरण राजनीति का आधार बनता जा रहा है। इस्लामी व्यवस्था भी इसकी पक्षधर है लेकिन जिस रफ्तार से ईसाइयत फैल रही है और अपने पंथ को आधार बनाकर वे जिस तरह से दुनियां को चलाना चाहते हैं यह आज के समाज के लिए बड़ी चुनौती है। जनसंख्या के आंकड़े देश और दुनिया को बदलते हैं इसलिए धार्मिक उन्माद समस्त मानवता के लिए चुनौती है।

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घाटी केन्द्रित दृष्टिकोण : जम्मू के मुस्लिम क्षेत्र भी कठिनाई में
(भाग 1)
दयासागर
जम्मू व कश्मीर राज्य में संक्रमण के नए दौर के उभरने के संकेत दिखाई देने लगे हैं। अब तक भारत सरकार घाटी केन्द्रित दृष्टिकोण अपनाती रही है। महाराजा हरी सिंह के समय में भी सामाजिक भौगोलिक प्राथमिकताओं के कारण डोडा, राजौरी, पुंछ, बनिहाल के सभी क्षेत्र जम्मू के अंतर्गत रखे गये थे। आरम्भ से ही भारत सरकार विकास की वात कश्मीर या कश्मीरी के नाम पर अधिक और नौकरियों की वात कश्मीरी युवाओं के नाम पर करती रही है। प्रधानमंत्री और अन्य भारतीय नेता जिन कार्यक्रमों की वात करते हैं या वक्तव्य देते हैं वे समूचे जम्मू-कश्मीर की बजाय कश्मीर और कश्मीरियों के संदर्भ में होते हैं।

वर्ष 2005 में गुलाम नबी आजाद मुख्यमंत्री बने तो जम्मू की जनता ने उन्हें जम्मू से आए मुख्यमंत्री के रूप में हाथोंहाथ लिया। लेकिन आजाद साहब पर कश्मीर केन्द्रित राजनीतिक संस्कृति का ऐसा दवाव था कि वे स्वयं को अधिक कश्मीरी साबित करने के लिये अप्रत्यक्ष रूप से प्रयास करते रहे। वे अकसर कहते कि वे श्रीनगर के एस.पी. कालेज के विघार्थी रहे हैं। उन्होंने कभी भी जम्मू क्षेत्र के किसी शिक्षा संस्थान का नाम नहीं लिया जिसमें उन्होंने पढ़ाई की हो। कई अवसरों पर तो उन्होंने ऐसा भी कहा कि उनके बुजुर्ग कश्मीर घाटी के थे। यह भी एक कड़वा सच है कि जब नई दिल्ली में भाजपा की सरकार बनी तो कश्मीर के लिये उनका रवैया कांग्रेस से अलग नहीं रहा। इसमें भी संदेह नहीं है कि 1947 से अब तक कश्मीर की जनता को जम्मू-कश्मीर के अन्य भागों ही नहीं भारत के अन्य राज्यों के मुकाबले भी अत्यंत विशिष्ट दर्जा दिया गया है।

यह भी कहा जा सकता है कि ये दल और नेता मजबूर थे, क्योंकि 1946 से ही महाराजा हरी सिंह को भी दिल्ली में मौजूद सरकार के हाथों मात्र इसलिये उपेक्षा सहनी पड़ा थी कि शेख अब्दुल्ला की किसी भी मांग या प्रस्ताव को स्थान दिया जा सके। इन वातों को ध्यान मे रखकर ही कांग्रेस के गुलाम नबी आजाद की राजनीतिक मजबूरियों को समझा जा सकता है। भारत विरोधी गतिविधियों को 1989 के वाद भी कश्मीर में आराम से चलने दिया गया। जम्मू के वारे में कोई वात भी करता तो उसे उलझाने या दवाने की कोशिश होती। इस तरह से जम्मू प्रांत के अन्य जिलों के लोग भी परेशानी में पड गये।

12 नवम्बर 1981 को न्यायमूर्ति जे.एन. वजीर की अध्यक्षता में प्रशासनिक इकाइयों (जिलों) को सुव्यवस्थित करने के साथ-साथ अन्य मुद्दों के अध्ययन के लिये एक आयोग का गठन किया गया। व्यापक अध्ययन, विचार विमर्श और तथ्यों के अवलोकन के आधार पर वजीर आयोग ने 3 जनवरी 1984 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। आयोग ने जम्मू क्षेत्र में तीन और जिले बनाने की सिफारिश की थी। जम्मू में डोडा और ऊधमपुर जिलों में से एक-एक जिला बनाया जाना था। कशमीर के लिए केवल एक नए जिले (वारामुल्ला को बांडीपुर से अलग करने) की सिफारिश की गई। लगता है कि वजीर  आयोग 1978-79 में राज्य सरकार द्वारा कश्मीर मंडल में पहले ही बनाये गये तीन अतिरिक्त जिलों (अनंतनाग में से अनंतनाग और पुलवामा, श्रीनगर में से श्रीनगर और बडगाम, वारामुल्ला और कुपवाड़ा) को वैध मानने के लिये दवाव में था।

इसके वावजूद भी यदि सिफारिशें मान ली जातीं तो जम्मू मंडल में जिला प्रशासन इकाइयों की संख्या छह से नौ हो जाती जबकि 1984 में ही कश्मीर मंडल के जिले छह से केवल सात हो जाते। वजीर आयोग ने निश्चय ही क्षेत्र, पिछड़ेपन, स्थलाकृति, भौगोलिक निरंतरता और जनसंख्या वितरण को ध्यान में रखा होगा। पाकिस्तान अधिगृहीत कश्मीर और उससे जुड़े क्षेत्रों को छोड़ दें तो तो जम्मू क्षेत्र 26293 वर्ग किमी., कश्मीर 15948 वर्ग किमी. और लद्दाख सबसे बडा 96701 वर्ग किमी. है। जब वजीर आयोग कार्य कर रहा था तो कश्मीर मंडल में 5000 किमी. सडकों का जाल बिछा हुआ था जबकि जम्मू मंडल में केवल 3500 किमी. सडकें थीं। वारामुल्ला, अनंतनाग और श्रीनगर के अविभाजित जिले भी डोडा जिले के मुकाबले बहुत छोटे थे। वारामुल्ला और कुपवाड़ा जिलों को मिला दिया जाए तो उनका क्षेत्रफल 6977 वर्ग किमी. होगा जबकि अकेले डोडा जिले का क्षेत्रफल 11691 वर्ग किमी. है।

डोडा जिले से वनक्षेत्र को निकाल दिया जाए तब भी उसका क्षेत्रफल 5843 वर्ग किमी. है जबकि वारामुल्ला और कुपवाडा को मिलाकर उसके वनक्षेत्र निकाल दिये जाएं तो क्षेत्रफल मात्र 2689 वर्ग किमी. हो जाएगा। डोडा जिले की किश्तवाड़ तहसील का क्षेत्रफल 4550 वर्ग किमी. है। आमतौर पर सरकार जिला प्रशासनिक इकाई/सामुदायिक विकास खण्ड के आधार पर योजना निधि और अन्य प्रयोजनों के लिये धन की मात्रा निश्चित करती है। वजीर आयोग की सिफारिशें मान ली जातीं तो जम्मू मंडल के पिछडे़ क्षेत्रों को कश्मीर मंडल के मुकाबले जिलों के आधार पर अधिक धन मिलता और फिर किसी भी परिसीमन आयोग के लिये जम्मू के एक सदस्यीय विधानसभा खण्डों (विधानसभा क्षेत्र) को कश्मीर मंडल से कम रखना कठिन हो जाता। इन दो प्रमुख कारणों से पलड़ा जम्मू की तरफ हो जाता। इसीलिए कश्मीर केन्द्रित राजनीतिज्ञों ने वजीर आयोग की रिपोर्ट को 22 वर्ष तक दवाये रखा। 1984 से 2006 तक डोडा, ऊधमपुर और जम्मू के अन्य क्षेत्रों को कितनी हानि उठानी पड़ी होगी, इसकी केवल कल्पना की जा सकती। वजीर आयोग की रिपोर्ट को दवाए रखने के जिम्मेदार लोगों ने किश्तवाड़ और भद्रवाह, जो जम्मू क्षेत्र के सबसे निर्धन इलाकों में से हैं, के साथ बहुत बडा अन्याय किया है। यह विडंबना ही है कि जम्मू-कश्मीर की वन-सम्पदा का अधिकांश इन्हीं क्षेत्रों में है और वहां पर्यटन की भी काफी संभावना है। (जारी...)
(लेखक की पुस्तक जम्मू-कश्मीर : विलय का सच और सियातस का झूठ से साभार)

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लोकतंत्र में अलोकतंत्र
केवल कृष्ण पनगोत्र
गणतंत्र दिवस पर हर तरफ हर्षोल्लास होता है। इस अवसर पर हम भारत राष्ट्र को एक सूत्र में पिरो देने वाले एक विशिष्ट दस्तावेज की विशे शताओं और हर प्रकार की स्वतंत्रता का महिमागान करते हैं। 26 जनवरी 1950 को लागू होने वाले इस दस्तावेज की प्रस्तावना में भारत राष्ट्र की अनेकता में एकता और प्रत्येक स्तर के न्याय का ओज है। प्रस्तावना में कहा गया है- हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी, पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समानता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर 1949 ई. को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।

दुखद मात्र इतनाभर है कि विश्व में भारतीय प्रजातंत्र को अतुलनीय दर्शाने वाले इस महान दस्तावेज यानि भारत के संविधान की ओजस्विता को भी कहीं न कहीं इसे कार्यान्वित करने वाले ही फीकी कर रहे हैं। दिल्ली में सत्ता और राजनीति के गलियारों में बहुत लोग जानकर भी अनजान हैं कि इस देश के सुदूर उत्तरी हिस्से में एक भू-खंड ऐसा भी है जिसे भारत का अटूट अंग कहा जाता है, मगर एक अलग संविधान है। यह अटूट अंग जम्मू-कश्मीर है और इसका संविधान 26 अक्टूबर 1947 को राज्य के भारत में सम्पूर्ण विलय के वाद 26 नवंबर 1956 को वजूद में आया और सम्पूर्ण रूप से 26 जनवरी 1957 को लागू हुआ। देखा जाए तो जम्मू-कश्मीर के लोग 26 जनवरी 1950 के बजाए 26 जनवरी 1957 से ही राज्य का संविधान लागू होने के वाद से ही भारत के संविधान का महिमागान कर हैं, मगर यहां भारतीय संविधान की प्रस्तावना का मंतव्य राज्य के विधान की शर्तों के कारण क्रियान्वित नहीं हो पा रहा।

राज्य के अलग संविधान को लेकर भारतीय संविधानसभा में भी हसरत मोहानी द्वारा सवाल उठाए गए थे। मोहानी ने राज्य को विशे श दर्जे की मांग का विरोध यह कहकर किया था कि अगर भारत के करोड़ों मुसलमानों के लिए भारत का संविधान हानिकारक नहीं हो सकता तो कश्मीर के मुसलमानों के लिए कैसे हानिकारक हो सकता है। उन्होंने कहा था कि इससे फिरकापरस्ती को प्रोत्साहन मिलेगा। जम्मू-कश्मीर के लोग गणतंत्र दिवस के अवसर पर जब भारतीय संविधान की प्रस्तावना पर खुश होते हुए देश की पंथनिरपेक्षता को महिमामंडित करते हैं तो उस समय शायद ही उन्हें यह आभास हो रहा होगा कि वे देश में एक ऐसे विधान से भी बंधे हैं, जिसमें पंथनिरपेक्षता का जिक्र तक नहीं।

भारतीय संविधान की प्रस्तावना में पंथनिरपेक्ष लोकतंत्र की भावना उजागर होती है। कहने का भाव है कि बेशक जम्मू-कश्मीर के राजनेता जुवानी तौर पर गणतंत्र दिवस के दिन भारतीय संविधान का महिमागान करते समय धर्म निरपेक्षता की वातें जरूर करेंगे, मगर राज्य का संविधान एक ऐसी नीति की पैरवी नहीं करता जहां धर्मों-पंथों के प्रति तटस्थ रहा जाए। कई वार ऐसी मानसिकता की अनुभूति भी होती है। राज्य की आवादी का एक बड़ा हिस्सा आज तक इस मानसिकता का भुक्तभोगी है। 18 अप्रैल 2004 के दिन मुम्बई से प्रकाशित द फ्री प्रेस जर्नल के पृष्ठ 5 पर देश की एक बड़ी समाचार एजेंसी पीटीआई की रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी। इस रिपोर्ट में एक 81 वर्षीय पश्चिमी पाकिस्तानी रिफ्यूजी चौधरी हरिराम जो 24 साल की उम्र में 1947 के त्रासदीपूर्ण विभाजन के समय हिंदुओं पर हुई क्रूरता से बच निकले थे, की भारत, जम्मू-कश्मीर सरकार और राज्य से लोकसभा चुनाव के लिए वोट मांगने वाली सियासी पार्टियों के प्रति क्षोभ के कारणों का उल्लेख था। वास्तव में चौधरी हरिराम राज्य में एक लाख से भी ज्यादा उन पश्चिमी पाकिस्तानी रिफ्यूजियों की नुमाइंदगी करते हैं जो 1947 के भारत विभाजन त्रासदी के शिकार होकर जम्मू सूबे के विभिन्न हिस्सों में शरण लिए हैं।

राज्य की आवादी का यह हिस्सा भारतीय नागरिक की हैसियत से 1957 से लोकसभा के लिए वोट दे रहे हैं, मगर आज तक यह आवादी भारत के अटूट अंग जम्मू-कश्मीर की नागरिक नहीं। भारत का संविधान भारतीय नागरिक होने के नाते इन पश्चिमी पाक रिफ्यूजियों से प्रस्तावना में उल्लेखित सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय का वादा करता है। मगर इससे ज्यादा हास्यास्पद और दुखद और क्या हो सकता है कि सरकार का वादा आज तक पूरा नहीं हो रहा है। यह भारत में एक ऐसी अलग श्रेणी के नागरिक हैं जो भारत के नागरिक तो हैं, मगर जम्मू-कश्मीर के नहीं। जम्मू-कश्मीर के संविधान के अंतर्गत राज्य विधानसभा चाहे तो इन लोगों का राज्य की नागरिकता प्रदान कर सकती है। आखिर राज्य संविधान की सेक्शन 6, जिसमें राज्य के नागरिक को परिभाषित किया गया है, में बदलाव इतना कठिन है? अगर है तो क्यों? भारत गणराज्य में लोकतंत्र का यह क्रूर उपहास क्यों?

कहीं भारतीय संविधानसभा के दूरदर्शी सदस्य हसरत मोहानी की चेतावनी चरितार्थ होने तो नहीं जा रही। भारत गणराज्य में यह लोग किस तंत्र के गण हैं? भारत के जम्मू-कश्मीर में इनका क्या दो श है? खोट कहां है? यह लोग किस संविधान को महिमामंडित करें? बेशक पश्चिमी पाक रिफ्यूजी आज जम्मू-कश्मीर में गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रीय झंडे को गौरवपूर्ण सलामी देते होंगे, मगर हर जयहिंद के उद्घो श के साथ एक पीड़ादायक ऑह भी उनके दिल से जरूर निकल जाती होगी। 2004 में लोकसभा चुनावों से खिन्न 81 वर्षीय हरिराम ने पश्चिमी पाक रिफ्यूजियों के दर्द को ही महसूस करते हुए कहा था। हम जम्मू-कश्मीर के अनचाहे नागरिक हैं। आज यह हर रिफ्यूजी की आवाज है। इसे कौन महसूस करेगा? इन सवालों का जवाब कौन देगा? दिल्ली की सत्ता या जम्मू-कश्मीर के नीति नियंता।
(लेखक : जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं।)

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How far does the ISI money go? Quite far, for sure

Ramtanu Maitra 

The Week magazine, based in Kerala, India, came out recently with a comprehensive report on the massive arms seizure in Chittagong, Bangladesh, in 2004 made by two Bangladeshi policemen. The Week claimed it had unearthed official records on the case in India and Bangladesh, and that it had exclusive access to the 3,500-page Chittagong case diary.

Subsequently, a four-member team of the Bangladesh army's ordnance branch that investigated the arms haul confirmed that all 10 truckloads of arms and ammunition seized were manufactured in China by NORINCO, a state-owned arms manufacturer. The seized consignment, which included 1,290 submachine guns, 400 semi-automatic guns, 400 Thompson submachine guns, 150 rocket launchers, 2,000 grenade-launching tubes, 840 rockets, 24,996 hand-grenades and 11,40,520 bullets, was the largest arms haul in Bangladesh's history.

No question, it was a major consignment, and it was designed to supply to various secessionist and terrorist groups then operating in some of India’s northeastern states bordering at least two weakly governed nations; Bangladesh and Myanmar. In 2004, the year this huge consignment landed in Chittagong, Bangladesh was governed by the Bangladesh National Party (BNP), led by Begum Khaleda Zia. Originally formed by the anti-India and pro-Pakistan Bangladesh military, the BNP went about setting up a covert presence of Pakistani elements in Bangladesh to counter any effort by New Delhi to “grab” Bangladesh.

What could have been merely a bit of paranoia within a powerful section of the Bangladeshi military was exploited well by both Pakistan and the British-Saudi nexus. For her part, Begum Khaleda, a political novice when she took over leadership of the party in the 1980s, leaned heavily on the shoulders of the pro-Islamist and pro-Pakistan military faction. As a result, money started pouring in from Saudi Arabia; Britain sent the jihadi organizers; and the Pakistan ISI set up its base to train the jihadis to help Begum Khaleda stay in power, assassinate the pro-India and anti-jihadi elements, and maintain the terrorists and secessionists operating within some of India’s northeastern states.

An opportunist at best, Begum Khaleda was using the jihadis and the ISI to stay in power and keep her more formidable political opponent, Sheikh Hasina Wazed, the present prime minister and daughter of Bangladesh’s founder, Sheikh Mujibur Rehman, at bay. But as so often happens, by deriving her political power from these noxious support groups, Begum Khaleda became part and parcel of the militant elements, controlled mostly from Islamabad, London and Riyadh.

In January 2005, a Bangladeshi human rights group claimed that 31 Islamic militant outfits were operating at the time in the country targeting non-Muslims and seeking to establish a “greater Islamic nation” that also included parts of some adjacent Indian states. The Jama’atul Mujahideen Bangladesh (JMB) was the youth front of Al Mujahideen, the parent organization that began working in the mid-1990s. Other organizations, such as Jama’atul Jihad, Ahle Hadith Andolan Bangladesh (AHAB), Ahle Hadith Jubo Shangha, Jagrata Muslim Janata Bangladesh (JMJB), Harkat-ul-Jehad-al-Islami (HuJI), Hizbut Tahrir, Tawhidi Janata, Islami Jubo Shangha, Islami Shangha, Al Falah A’am Unnayan Shanstha and Shahadat-e al Hiqma were functioning under the wide umbrella of the Al Mujahideen network.

Their activities were mostly funded by the Saudis and the Pakistan ISI. While the Saudi source of money was its vast pool of oil, it was always a question how the ISI could get such unlimited funds. Nonetheless, it was evident that the funding was enough to maintain these jihadi groups, whose intent was to “Talibanize” Bangladesh with the blessings of Khaleda Zia’s BNP.

The money was also used to corrupt powerful individuals and pay off those who were playing ball with them. For instance, according to The Week’s report, the Chittagong case diary shows that the Directorate General of Forces Intelligence (DGFI), which is Bangladesh’s military intelligence agency, was penetrated by the ISI to the extent that its then-director, Maj.-Gen. (retd) Rezzakul Haider Chowdhury, was an ISI mole. Chowdhury was later promoted to the powerful post of Chief of Bangladesh’s National Security Intelligence (NSI), Bangladesh’s chief civilian intelligence agency. The NSI, too, was penetrated by the ISI; and its then-chief, Brig.-Gen. (retd) Abdur Rahim, who reported directly to the prime minister like the DGFI chief, was discreetly working for the ISI.

The Long Reach of the ISI –
That is just one example of how far ISI money travels. Here is another story, one that took place on the other side of the globe. On Dec. 7, Syed Ghulam Nabi Fai acknowledged receiving funding from the Pakistan government, as well as committing tax violations, according to court documents filed in US District Court in Alexandria. Fai faces up to eight years in prison. A sentencing hearing is scheduled for March 9, the Washington Post reported on Dec.8.

Since approximately 1990, US prosecutors charge, Fai has received at least $3.5 million from the government of Pakistan, including its Inter-Services Intelligence (ISI) agency, but he has failed to report the origin of that funding as required by law. “For the last 20 years, Mr. Fai secretly took millions of dollars from Pakistan intelligence and lied about it to the US government,” US Attorney Neil MacBride said in a statement. “As a paid operative of ISI, he did the bidding of his handlers in Pakistan while he met with US elected officials, funded high-profile conferences, and promoted the Kashmiri cause to decision-makers in Washington.”

What is interesting to note is that Fai has an India connection. He offered junkets to some of India’s foreign policy experts to speak at his forums, not for money perhaps, but to get valuable face-time in the West. Although it was known to most that Fai used to urge American lawmakers, a few of whom were beneficiaries of his contributions, to malign India for its alleged draconian policies in the Kashmir Valley — in fact, mere 10-minute discussion with Fai would reveal that he wanted India out of Kashmir — these knowledgeable experts just could not figure Fai out.

Are these middle-aged, or aged, elite really babes in the wood? It is difficult to believe that. Take, for instance, the case of Dileep Padgaonkar. When he was editor of the Times of India, he was, in his own words, the second-most-powerful individual in India after the prime minister. Since he is not known as a body-builder, one has to assume that he was referring to the power he derives from his knowledge of things.

Another such individual is Radha Kumar, the lady who protests too much. A professor with Jamia Millia in New Delhi, she reportedly submitted a letter to India’s Home Minister P. Chidambaram protesting remarks made by an individual about her attending a European Parliament conference organized by the Tramboo Centre in 2006 in Brussels. The Centre is run by Abdul Majeed Tramboo, a barrister and a Kashmiri from the Valley who has a strong association with the Pakistani establishment, ISI, and Ghulam Nabi Fai. Kumar says she has not taken any financial remuneration for functioning as the Centre's interlocutor of Kashmir. It could be true that Radha Kumar was not taking money; but that implies that she was swallowing hook, line and sinker whatever anti-India propaganda dished out to her.

Then there are others, such as Justice Rajinder Sachar, author of the famous Sachar Committee Report on the state of Indian Muslims; Harish Khare, media adviser to the prime minister; Rita Manchanda, the India/Pakistan Local Partner for Women Waging Peace; Ved Bhasin, editor, Kashmir Times; Harinder Baweja, editor (investigations) Headlines Today; Gautam Navlakha and Professor Kamal Mitra Chenoy, human rights activists; and, Praful Bidwai, well-known columnist — all lighted up the list of Indians that Syed Ghulam Nabi Fai had in his well-endowed list of eminent Indian speakers.

What is somewhat depressing, but not at all surprising, is that Padgaonkar and Radha Kumar were selected as members of a panel of interlocutors on Kashmir. It is not surprising because they were picked by Home Minister P. Chidambaram, whose personal integrity is in tatters following the revelation that he was on ‘in the know’ in the massive 2G scam that has made the ruling UPA government a body of scorn for hundreds of millions of Indians. It is depressing because it leads one to believe that Chidambaram wanted to have Fai’s input in the interlocution. That does not seem right, but that is the way it was.

ISI Blood Money
While Ghulam Nabi Fai was getting his money from the ISI to influence American lawmakers and bring in some “stars” from India to propagate his analysis of the Kashmir situation, where was the ISI getting its unlimited money for covert actions? Those with even a faint knowledge of international intelligence agencies, and the ISI, know very well that such huge volumes of funds come from drugs and other illicit activities. ISI has been getting a chunk of money for decades from the Afghan opium trade and letting precursors refine opium to heroin that travels from Pakistan to Afghanistan. The agency gets money, as the Chittagong arms case proves, from arms smuggling, as well.

In June 2006, the Kolkata-based Bengali news magazine Desh put together a comprehensive picture of the Kolkata-based terrorist networks’ linkages with Dawood Ibrahim, ISI and the BNP led by Begum Khaleda Zia. While Dawood is merely an underground criminal, handling drugs and guns and being controlled by foreign intelligence agencies operating out of Dubai and elsewhere, ISI and the BNP were working on a grand design to wipe out any Bangladeshi leader who would develop friendly relations with India. For this reason, a number of assassinations were attempted over the years against the present Prime Minister, Sheikh Hasina Wazed. Sheikh Hasina opposes extremist Islamic rule in Bangladesh and wants her country to become integrated with its neighbors, such as India, Nepal, Myanmar and Bhutan. None of these regional nations have any love lost for Islamic jihadis.

The Desh report reveals how vulnerable West Bengal had become under the CPI (M) Raj to international terrorists bent on hurting India. The report points to a 1999 plot to assassinate Sheikh Hasina that was hatched in Kolkata. Indian intelligence, working in league with their Bangladeshi counterparts foiled the plan. These sleuths followed the tracks and froze the bank transfer of cash, which, had it gone through, would have triggered LTTE suicide bombers into action to kill Sheikh Hasina.

These facts could hurt the feelings of some Indian elite who carry the banner of human rights in defending LTTE terrorists, but Desh said the group hatched the final plan at a meeting on June 6, 1999, at St. James Court Hotel in London. There a decision was taken to pay the LTTE, which had easy access into India, $10 million for their suicide bombers. The quid-pro-quo for the LTTE was that if Khaleda Zia came to power following the assassination, or even later, the LTTE would be granted the use of some of the islands off the Bangladesh coast for transit points for the drug-and-guns haul from Southeast Asia into Jaffna, in northern Sri Lanka.

The LTTE had previously used two islands (Qutubdia and Sonadia) as their drug-and-gun warehouses and safe houses. Their objective was to store their arms on these two islands for planned assaults in Sri Lanka, as well as to transfer them to other terror groups in India. According to Desh, the London meeting was attended, among others, by a well-known London-based radio broadcaster of Bangladeshi  origin who had taken part in the 1975 coup that killed Sheikh Mujib and most of his family; an Army officer; a former Pakistani Army officer and a front man for the ISI, Col. R.M. Ahsan, who owns Ahsan TradEx, a Karachi-based export-import firm; Lt. Col. Khondakar Abdur Rashid; and Lt. Col. S.H.M.B. Noor Chowdhury.

In other words, what Fai was getting — and using to arrange anti-India conferences to promote his and the ISI’s solution to the Kashmir issue — was not simply money from Pakistan’s treasury, but drug money and money that is paid for killing pro-India leaders. I hope India’s “babes in the wood” will be a little more careful next time around when the Fais and Tramboos of this world offer them spotlights in the West’s international conferences. (Courtesy : www.vijayvaani.com)

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PoK Refugees
Proff. Narender Singh
It was terrible moment in the history when people forced to leave their homes in what now constitutes the Pakistan occupied Kashmir (PoK) in 1947 when Pakistani forces attacked Jammu & Kashmir. Subsequently, there were two more phases of movement after the 1965 and 1971 wars between India and Pakistan. Those who migrated from PoK(mainly from Muzafarabad, Poonch,Kotli, Bhimber and Mirpur areas) are yet to be settled and live even today without 'refugee' status. The government's position has been that, since they have migrated from PoK, which is legally a part of India, they are technically not qualified to be categorized under the 'refugee' bracket. Hence, they cannot claim the benefits of refugees. For the same legal reasons, recently  the Indian government has refused to pursue the compensation that is supposed to be given to those people in Mirpur, whose properties have been submerged due to the construction of the Mangla dam, funded by the World Bank.

Today, there are more than 1,200,000 people from PoK staying in and around Jammu with no political status, nor with any promise from the State and Union governments on where they stand in the Kashmir conflict. It is unfortunate that this section has been left outside the purview of both the Round Table Conferences organized by the Interlocutors on J&K. There are twelve hundred thousand wounded souls of PoK, who were subjected to genocide by the Pakistani forces in October-November 1947. This raid destroyed not only the life and property of lakhs of people but also the very fabric of human society and relationships. Thousands of innocent people were mercilessly and brutally slaughtered, property worth millions of dollars was looted and destroyed, women of all ages were kidnapped, abducted and ravished, and unspeakable atrocities were perpetrated.

Pakistani troops attacked the state of Jammu and Kashmir on October 22. This resulted in a full-scale invasion. Unfortunately, the state of Jammu and Kashmir, and the Government of India failed, which resulted in the total migration of Hindus and Sikhs from the Pakistan occupied Kashmir. This made them refugees in their own state. The Central and the State Government of J&K set upon different schemes to rehabilitate them temporarily at different places, in houses, in shops and other available places. Refugees from Muzaffarabad desiring to settle in Kashmir valley, were not allowed to settle there. Some 300 families of Muzaffarabad who had settled in District Kupwara of Kashmir valley were uprooted again and pushed to Jammu.

In J&K, the State government has always been of the Kashmiris, by the Kashmiris and for Kashmiris. Since PoK refugees were not Kashmiris, they were not allowed to settle in the Kashmir valley. The J&K Government never wanted PoK refugees to settle in the territory. It was the central government's support that allowed some refugees to settle in the Jammu region. Many others were forced to settle in other states like Punjab, Rajasthan and UP. Neither the Union nor the State government has been sincere in settling these refugees. There were schemes, but the administrators of these schemes have been confusing relief measures and small ex-gratia grant, with rehabilitation. These are clear instances of poor, innocent, uprooted people, being deceived by their own government.

The PoK refugees have not been compensated for their properties left behind in PoK territory in 1947. Whenever this issue is raised with the Government of India, we are told that the PoK territory will be retrieved and PoK refugees will be sent back to their places to live in their own homes. These refugees were further told that payment of compensation at this junction would jeopardize India's case at the UN. Can we say with any stretch of imagination that government of India will ever retrieve PoK territory? Has our government enough capacity to achieve that goal? Common sense would answer these questions in "No" and "Never". The Government of India has been employing this excuse to delay this most vital issue of compensation for 60 years now. The fact remains that over a million PoKrefugees are denied the right to their property. They are being grossly fooled.

Even though the Government of India talks of retrieving PoK territory, it has practically closed the case of PoKrefugees as a non-issue and is going to the extent of treating the holocaust of 1947 as a non-event and PoK Refugees as non-entities. The Government of India is also confused over the status of PoK refugees, and whether they are 'refugees', 'migrants', 'displaced persons' or 'internally displaced persons'. In whatever category the PoKrefugees are placed, there are specific benefits for each category to which these people are entitled as human beings. But, we have been deprived of all such benefits. The Government of India is under an obligation to give us all such benefits.

In the resettlement and rehabilitation ofPoK refugees, the J&K Government had adopted a clear policy that no refugees can settle in the Kashmir valley and if possible all PoK refugees should be pushed out of J&K State. Thus, PoKrefugees have been victims twice of communal fundamentalism - first, they were uprooted from their homes and second, and they were treated most shabbily by the State Government with regard to rehabilitation, because they were non-Muslims. The J&K Government created an authority titled Custodian of Evacuee Property to safeguard the property of Muslims who migrated to Pakistan in 1947 and were settled there permanently as citizens of Pakistan, and fully compensated them for their properties left behind in J&K State. Instead, the J&K Government should have created an authority to assess the properties in PoK. In 1982, the J&K Government passed an Act in the assembly titled Resettlement Act 1982 by virtue of which Muslims who had migrated to Pakistan, and settled there as permanent citizens, could come back and claim their properties. This was yet another blow to the process of resettlement of PoK refugees. Main Demands-

Set up a commission to access the loses of PoK refugees in 1947. Politically, PoK Refugees are orphaned, as they do not have any segment/constituency of their own, despite the fact that 24 Assembly seats are kept reserved for the PoK area in the J&K Assembly. What purpose do these reserved seats serve? We do not know. While 1/3rd of the population ofPoK area is residing on this side of the Line of Control, why is it that even 1/3 of these reserved seats are not open for these refugees by creating floating constituencies or constituencies in exile? This has been done for the Kashmiri Pandits by providing them an Assembly segment of Habbakadal for which they (KPs) can cast their vote from any where in India Why has this not been done in the case of PoK Refugees?

Those displaced from PoK should be accorded refugee status so that they are provided all benefits under national and international laws. At the national level. Representative of  PoK refugees must be included in the dialogue on J&K at every level, being a first and natural party. At the technical level, an autonomousPoK Refugee's Development Board should be constituted with all financial powers and liberal aid for their upliftment and betterment. The houses and  the land on which thePoK Refugees are living at present as tenants should be allotted to them permanently. In PoK, the claims of moveable and immoveable property left behind in 1947 should be registered immediately. The claims of these properties should be settled at the present market rate. Until the final settlement of the issue, the benefits which are provided to Valley migrants should also be given to the PoKRefugees. These include monthly cash doles, ration money, and reservation for their wards in professional and technical colleges of the country, etc.

Unemployed educated PoK refugeeyouth should be given interest-free loans to enable them to establish their businesses, and these youth should also be given reservation in government jobs. In addition, with regard to those who had their accounts at the Mirpur branch of the J&K Bank, the money lying in this bank should be paid to the account holders or to their legal heirs with interest compounded from 1947. Finally, PoK refugees including those in Bhor, Chatha, Simbal, Gadigarh, Badyal Brahmana, Keerian Gandyal and Raj Bagh should be provided with all civic amenities and health services.

(Writer, Proff. Narender Singh is a Chairman of PoK refugees Sangharsh Morcha.)

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घुसपैठ में कमी पर सतर्कता जरूरी : राज्यपाल
जम्मू। जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल एन.एन. वोहरा ने कहा कि सीमापार से घुसपैठ से कमी आई है, लेकिन लगातार सतर्कता जरूरी है। गणतंत्र दिवस (26 जनवरी) के अवसर पर मौलाना आजाद स्टेडियम में आयोजित मुख्य समारोह में तिरंगा फहराने के वाद वोहरा ने कहा कि देश विरोधी तत्वों के नापाक इरादों को सफल नहीं होने दिया जाना चाहिए।
श्री वोहरा ने कहा कि पुलिस, सुरक्षा बलों व सेना ने हमेशा देश की एकता अखंडता के लिए काम किया है। राज्य में हालात काफी हद तक सामान्य हुए हैं। लोगों को भी उनकी मदद के लिए आगे आना चाहिए। सरकार ने युवाओं को रोजगार उपलब्ध करवाने के लिए कई योजनाएं शुरू की हैं। उन्होंने हर बच्चे तक शिक्षा पहुंचाने पर जोर दिया।
भ्रष्टाचार पर पूरी तरह से अंकुश लगाने पर जोर देते हुए राज्यपाल श्री वोहरा ने कहा कि राज्य सरकार ने सूचना अधिकार अधिनियम और कई कमीशन बनाए हैं। इस अवसर पर राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला व उनकी कैबिनेट के कई मंत्रियों सहित पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी उपस्थित थे।
इससे पूर्व, गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर जारी अपने बधाई संदेश में राज्यपाल श्री वोहरा ने कहा कि राज्य के विकास के लिए शांतिपूर्ण माहौल का होना बहुत जरूरी है। पंचायत चुनाव में 70 से 80 फीसदी तक मतदान इस वात का सबूत है कि लोग अब शांति चाहते हैं। उन्होंने कहा कि पंचायतों के गठन के वाद अब सरकार स्थानीय निकाय चुनाव करवाने के लिए प्रयासरत है। राज्यपाल ने विगत वर्ष की तरह मौजूदा वर्ष में राज्य में शांति व खुशहाली की कामना की और उम्मीद जताई कि मुख्यमंत्री व उनके मंत्रिपरि शद के सदस्य राज्य को विकसित करने के अपने अभियान में सफल होंगे।

आतंकियों के आत्मसमर्पण में भी गहरी चाल
श्रीनगर। जम्मू-कश्मीर में ठंडी पड़ रही अलगाववाद और आतंकवाद की आग को पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई फिर से हवा देने की ताक में है। पूर्व आतंकियों को पाकिस्तान अधिगृहीत कश्मीर (पीओके) से नेपाल के रास्ते कश्मीर आकर मुख्यधारा में शामिल होते देख आईएसआई ने अपने सक्रिय कैडर को भी इसी रास्ते जम्मू-कश्मीर भेजने की नई रणनीति अपनाई है।

इसका खुलासा विगत दिसम्बर में वारामूला में पकडे़ गए शोपियां निवासी मुहम्मद यूसुफ भट्ट और उसकी पाकिस्तानी पत्नी शहनाज से पूछताछ में हुआ है। नेपाल के रास्ते आए पति-पत्नी अपने साथ हथियार भी लाए थे। कड़ी पूछताछ के वाद यूसुफ ने बताया कि कश्मीरी युवकों के मुख्यधारा में शामिल होने से आईएसआई और आतंकी सरगना हताश हो चुके हैं।

यूसुफ ने बताया कि आईएसआई व आतंकी कमांडरों को पता है कि नेपाल के रास्ते लौट रहे कश्मीरी आतंकियों पर कोई गंभीर मामला नहीं बनता है और सुरक्षा एजेंसियां भी उन्हें प्रोत्साहित कर रही हैं। इसलिए अब आईएसआई नेपाल के जरिये ही अपने कैडर को कश्मीर में भेज रही है। इसके लिए पीओके में रुके ऐसे कश्मीरी युवकों को चुना जा रहा है जो कश्मीर जाकर बंदूक तो नहीं उठाना चाहते, लेकिन आतंकवाद और अलगाववाद के कट्टर समर्थक हैं।

प्राप्त जानकारी के अनुसार, ऐसे आतंकियों को न सिर्फ पाकिस्तानी पासपोर्ट प्रदान किया जाता है, बल्कि उन्हें नकदी और काठमांडू तक का हवाई जहाज का टिकट दिया जाता है। नेपाल में इन लोगों को आतंकी संगठनों के गाइड मिलते हैं जो वाकायदा इनके कश्मीर पहुंचने का बंदोबस्त करते हैं।

आईएसआई द्वारा कश्मीरी आतंकियों को निर्देश दिए जाते हैं कि वह सबसे पहले स्थानीय लोगों व सुरक्षा एजेंसियों का पूरा विश्वास हासिल करें। इसके वाद वह स्लीपर सेल की तरह काम करते हुए धीरे-धीरे नए कैडर को तैयार करें। कोई भी नया आतंकी लगातार आतंकी गतिविधियों को अंजाम नहीं देगा। अगर वह किसी जगह ग्रेनेड फेंकता है या पिस्टल शूटिंग में हिस्सा लेता है तो वह वारदात के वाद तीन-चार महीने तक शांत रहेगा। वारदात को अंजाम देने वाला कैडर अपने साथ कोई हथियार नहीं रखेगा। उसे हथियार वारदात से पूर्व उसी जगह दिया जाएगा, जहां वारदात होनी है।

कश्मीर रेंज के आईजीपी एस.एम. सहाय ने कहा कि आईएसआई और आतंकी संगठन नेपाल के रास्ते अपने कैडर को घाटी भेजने की फिराक में हैं। हम इस तथ्य को पूरी तरह ध्यान में रखते हुए सतर्कता बरत रहे हैं। नेपाल के रास्ते अपने परिवार के साथ लौट रहे पूर्व आतंकियों के वारे में पूरी छानबीन की जा रही है।

शौर्य चक्र पाने वाला पहला एसपीओ बना बरकत अली
नई दिल्ली/जम्मू। जम्मू-कश्मीर के डोडा जिले में वर्ष 2010 में लश्कर-ए-तैयवा के दो खतरनाक आतंकियों को मार गिराने में अदम्य साहस का परिचय देने वाला बरकत अली गणतंत्र दिवस समारोह में जम्मू-कश्मीर का शौर्य चक्र पाने वाला पहला विशे श पुलिस अधिकारी (एसपीओ) बन गया।
34 वर्षीय अली डोडा के थत्री वनक्षेत्र में 19 मई 2010 में राज्य पुलिस और 26 राष्ट्रीय राइफल्स द्वारा संयुक्त रूप से चलाए गए एक खोजी अभियान का हिस्सा था। वह दल को घने जंगल में उस जगह ले गया जहां आंतकी अबू अनस और अबू माज छिपे हुए थे। वह पहला व्यक्ति था जिसने उन्हें देखा। दोनों ओर से हुई भारी गोलीवारी में अली गंभीररूप से घायल हो गया। उसे विमान से इलाज के लिए ले जाया गया लेकिन अस्पताल ले जाते समय रास्ते में उसने दम तोड़ दिया।
अली के परिवार में उसके माता-पिता और पत्नी तस्लीमा हैं। मुठभेड़ के महज एक साल पहले ही उनकी शादी हुई थी। अली के पराक्रम को भुलाया नहीं गया और पुलिस बल में नियमित नहीं होने के वावजूद राज्य के पुलिस महानिदेशक कुलदीप खोड़ा ने उसके नाम की सिफारिश इस सम्मान के लिए की। उसकी पत्नी को स्थायी सरकारी नौकरी दी गई है।

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उच्च शिक्षा हासिल करना हुआ महंगा
जम्मू। महंगाई के इस दौर में अब उच्च शिक्षा हासिल करना भी महंगा हो गया है। वर्ष 2012-13 के अकादमिक सत्र से जम्मू-कश्मीर के कॉलेजों की दाखिला फीस में पांच से दस प्रतिशत के बीच बढ़ोतरी की गई है। इस संबंध में उच्च शिक्षा विभाग ने अधिसूचना भी जारी कर दी है। इससे पहले वर्ष 2004 में फीस में बढ़ोतरी की गई थी। उच्च शिक्षा विभाग में ओएसडी और डायरेक्टर कॉलेजिस डॉ. मुकबिल चिश्ती के मुताबिक- विद्यार्थियों पर अधिक बोझ नहीं डालते हुए सात वर्ष के वाद यह वृद्धि की गई है। विभिन्न कोर्सों में अलग-अलग फीस ढांचे हैं और इसमें वृद्धि दस प्रतिशत से अधिक नहीं होगी।
ध्यातव्य है कि कॉलेजों में बीए, बीएससी, बीकॉम, बीबीए, बीसीए के अलग-अलग कांबीनेशन उपलब्ध हैं और एक ही वार वार्षिक दाखिला फीस ली जाती है। इस समय विभिन्न कोर्सों की फीस दो हजार रुपये से लेकर साढ़े तीन हजार व बीबीए तथा बीसीए की पांच हजार से दस हजार रुपये के बीच है। औसतन तीन हजार रुपये के करीब दाखिला फीस बनती है और इसका दस प्रतिशत तीन सौ रुपये के करीब बनेगा।
जम्मू विश्वविद्यालय ने पिछले वर्ष फीस में वृद्धि की थी जिसका असर कॉलेजों पर भी पड़ा था। विश्वविद्यालय ने परीक्षा फीस में पंद्रह से लेकर बीस प्रतिशत तक के बीच वृद्धि की थी और कॉलेजों से लिए जाने वाले अन्य  चार्ज में भी बढ़ोतरी की थी, जिससे कॉलेजों में पिछले वर्ष अढ़ाई सौ रुपये से लेकर तीन सौ रुपये बढ़ गए थे। इस वार फिर से इतना ही फर्क पड़ेगा। राज्य में कुल 72 से अधिक डिग्री कॉलेज हैं जिसमें पार्ट वन, पार्ट सेकेंड व पार्ट फाइनल की कक्षाएं लगाई जाती हैं। बीबीए व बीसीए की फीस पहले ही अधिक है और इसमें अगर पांच प्रतिशत भी बढ़ोतरी हुई तो पांच सौ रुपये से अधिक का फर्क पड़ेगा।
कश्मीरी हिंदुओं का सरकार विरोधी प्रदर्शन
जम्मू। जम्मू-कश्मीर सरकार पर प्रधानमंत्री स्पेशल पैकेज लागू न करने का आरोप लगाते हुए विगत दिनों कश्मीरी हिंदुओं ने प्रेस क्लब के सामने प्रदर्शन किया और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से अपील की कि वह स्वयं हस्तक्षेप करें ताकि कश्मीरी हिंदू युवाओं को उनके स्पेशल पैकेज का लाभ मिल सके।
प्रदर्शनकारियों ने आरोप लगाया कि उमर अब्दुल्ला की सरकार प्रधानमंत्री स्पेशल पैकेज को लागू करने की दिशा में सकारात्मक कदम नहीं उठा रही। अगर जल्द ही उन्हें पैकेज का लाभ नहीं दिया गया तो हिंदू युवा सड़क पर उतर आएंगे। राज्य सरकार के उदासीन रवैये को देखते हुए हिंदू युवाओं ने इंसाफ के लिए दिल्ली जाने का फैसला किया है। 
पुनर्गठन से ही खत्म हो सकती है अनदेखी
जम्मू। राज्य के पुनर्गठन की मांग दोहराते हुए जम्मू स्टेट मोर्चा ने केंद्र व राज्य सरकार पर जम्मू संभाग के साथ भेदभाव का आरोप लगाया है। मोर्चा के प्रधान प्रो. वीरेंद्र गुप्ता ने सरकार के तीनों संभागों के बराबर विकास के दावों को जम्मूवासियों के साथ कोरा मजाक बताया। उन्होंने कहा है कि सरकार समानता की बड़ी-बड़ी वातें तो करती है, लेकिन स्थिति विपरीत है। गुप्ता ने कहा कि केंद्र ने डल झील के संरक्षण व साफ-सफाई के लिए 386 करोड़ की राशि जारी कर स्पष्ट कर दिया है कि सरकार को जम्मू के पर्यटन स्थलों की फिक्र नहीं है। हकीकत तो यह है कि पिछले वर्ष कश्मीर में पर्यटकों की संख्या करीब 2 लाख ही रही, जबकि जम्मू में माता वैष्णों देवी की यात्रा के लिए ही एक करोड़ से अधिक श्रद्धालुओं का जम्मू में पिछले वर्ष आना हुआ है। 

 चंदा उगाहते लश्कर के आतंकी गिरफ्तार
श्रीनगर। हवाला कारोवारियों पर कसते शिकंजे और नियन्त्रण रेखा पर चौकसी के चलते सीमा पार से वित्तीय मदद न मिलने से परेशान जम्मू-कश्मीर में सक्रिय लश्कर-ए-तैयवा के आतंकियों ने अब स्थानीय लोगों से जेहाद के नाम पर चंदा जमा करना शुरू किया है। खबर है कि आतंकियों ने स्थानीय ओवर ग्राउंड वर्करों (ओजीडब्ल्यू) को यह काम सौंप रखा है। ये अपने प्रभाव वाले इलाकों की मस्जिदों में नमाजियों से जेहाद व इस्लाम के नाम पर चंदा वसूलते हैं।
पुलिस ने उत्तरी कश्मीर में नियन्त्रण रेखा से सटे कुपवाड़ा के हंदवाड़ा में विगत दिनों लश्कर-ए-तैयवा के तीन ओजीडब्ल्यू को गिरफ्तार कर धन उगाही का पता लगाया है। इनकी पहचान मुहम्मद रफीक पुत्र खिजर मुहम्मद निवासी बदरा, आबिद हुसैन राथर पुत्र सोनउल्लाह निवासी मुकाम-हिंदवानपोरा और अब्दुल रशीद खोजा पुत्र अब्दुल रहीम निवासी करालगुंड के रूप में हुई है।
पुलिस अधिकारी मुहम्मद असलम ने बताया कि उनके पास बीते कुछ दिनों से लगातार सूचनाएं आ रही थी कि आतंकी संगठन के नाम पर स्थानीय मस्जिदों में आने वाले नमाजियों से चंदा जमा किया जा रहा है। उन्होंने बताया कि चंदा जमा करने वाले स्थानीय लोगों की भावनाओं को उकसाकर कश्मीर की आजादी, जेहाद और इस्लाम के नाम पर उनसे लश्कर-ए-तैयवा के जेहादियों के लिए जकात देने की वात कहते हैं। ये लोग कई जगह लोगों को धमकाकर उनसे जबरन वसूली भी करते हैं।
असलम ने बताया कि यह लोग हंदवाड़ा कस्बे से करालगुंड, मुकाम, हिंदवानपोरा और आसपास के गांवों में सक्रिय थे। इनकी गिरफ्तारी के लिए करालगुंड पुलिस स्टेशन थाना प्रभारी के नेतृत्व में एक विशे श दल बनाया गया, जिसने बड़ी होशियारी से इन लोगों को चंदा उगाहते रंगे हाथ गिरफ्तार कर लिया। इनके पास से लश्कर-ए-तैयवा के लेटरपैड व कुछ आपत्तिजनक प्रचार सामग्री भी मिली है। गिरफ्तार ओजीडब्ल्यू ने बताया कि लश्कर-ए-तैयवा के स्थानीय कमांडर तारिक ने उन्हें यह जिम्मा सौंपा था।
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