Monday 2 April 2012

वर्ष : 1, अंक : 12, नई दिल्ली, अप्रैल (प्रथम), कुल पृष्ठ 12

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A new chapter in Jammu & Kashmir
Jaibans Singh
What does the future hold for Jammu and Kashmir? This is an abiding question, central to not only people of the State but also others in the Nation and across the world whose destiny is somehow linked with this beautiful land. What adds significance to this question is the fact that the situation in the trouble torn region is being perceived to be on the mend and Kashmir watchers are now looking at turmoil being replaced by “normalcy”.
The Delhi-based Institute of Research on India and International Studies (IRIIS) has recently conducted a survey to elicit public opinion in the State and analyse the aspirations of the youth between the age group of 15-35 years. More than 1300 youth from six districts of Baramulla, Bandipora, Srinagar, Budgam, Anantnag and Kulgam were interviewed for this purpose. The findings indicated that the target population was more concerned about good governance than separatist politics. They rooted overwhelmingly for an efficient and corruption free regime. Only one percent of the youth opined that a merger with Pakistan could be a final solution to Kashmir’s problems. While speaking in a seminar held by IRIIS after the survey, the Governor of Jammu and Kashmir, NN Vohra, stated that the time had come for shifting full attention to governance issues. “Our concern this time should be to provide a space to youth to engage them productively,” he said.
If one were to see that portion of Jammu and Kashmir which is presently with the Indian Union then these positive elements of normalcy, development and good governance would gain credence as the path of the future; but if the region is taken as a whole by including those areas which are under Pakistani and Chinese occupation then the picture becomes rather dismal. Take for example the aspect of political freedom as it exists in the two regions. The Chief Minister of Jammu and Kashmir, Omar Abdullah, freely expresses his thoughts.

He has taken a position on the Armed Forces Special Powers Act (AFSPA) and Disturbed Areas Act (DAA) which is viewed with respect by the government at the centre and the Nation at large while being subject to a free and fair national debate. The same, however, does not apply to the leadership of the occupied territories where even political leaders speaking against the State are hounded and prosecuted, not to speak of the common man. Would the Prime Minister of POK or the Chief Minister of Gilgit–Baltistan take a similar position, they would undoubtedly end up behind bars or be killed. This is the difference between the two regions and peace cannot become an absolute reality till such time that this huge gap between the two areas is not filled.
Despite this freedom and aspiration for peace and development, vested interests in Jammu and Kashmir are not relenting from pursuing negative agendas of separatism and secession. Just a month back on March, 23, the All Parties Hurriyat Conference leader, Mirwaiz Umar Farooq, attended a meeting of an international body, the Organisation of Islamic Countries (OIC) and demanded from them practical steps towards “internationalising the Kashmir issue”. He waxed eloquent about human rights violations in Jammu and Kashmir without giving even lip service to the afflicted occupied territories. He also indulged in the oft repeated blame game of lack of concern of the Indian people and the Indian media with respect to the Kashmir cause. His bête noir, Syed Ali Shah Geelani was, however, not impressed by his performance since he soundly opposes the idea mooted by the Mirwaiz of foregoing international mediation on Kashmir, if India and Pakistan include the Kashmiri leadership in talks. Geelani obviously wants to keep the pot boiling by not agreeing to any middle path. These worthy gentlemen cannot agree between themselves; how do they expect the world to take them seriously?
There is an old Persian saying “I had no shoes and complained, until I met a man who had no feet”. The plight of the people of the occupied territories in Jammu and Kashmir can serve as a good example for those in the State who are constantly cribbing and raising redundant issues for vested interests. One good way forward would be to count ones blessings and work arduously to extend the same to those not fortunate enough to have them. In case the people of the occupied territories are facilitated in their fight for freedom and should the same be forthcoming, then the idea of a region which is reunited under some mutually acceptable political dispensation can start gaining some practical shape. India would be quite willing to forge ahead in an understanding of this nature as has been clarified by the Indian Prime Minister when he spoke of making “borders irrelevant”.
It is really unfortunate that some pressure groups in Kashmir are failing to understand that the masses wish to leave pain and turmoil behind them and move ahead to carve out a respectable and peaceful lives for themselves. They are no longer interested in “internationalizing the Kashmir issue” or any such impractical idea. These pressure groups are also not giving credence to the fact that it is their brethren across who are in need of international support and not those in Jammu and Kashmir. It is now time for the leadership in Kashmir to thrust personal agendas into the background to pave the way for a new chapter in Jammu and Kashmir. The thrust should be towards inclusive and not divisive agendas. The objective should be to present the right picture rather than playing to the tune of foreign inimical forces. If this becomes the agenda of the Kashmiri leadership during the forthcoming summer rather than going in for yet another cycle of disruption, then, it will find both the Indian government and the international community quite receptive.

Page 3/ Editorial

संपादकीय
अमरीकी नागरिक और कश्मीरी पृथकतावादी गुलाम नबी फई को शुक्रवार को एक अमरीकी अदालत ने दो साल कारावास की सजा सुनाई है। जानकारी हो कि फाई मूल रूप से कश्मीर का रहने वाला भारतीय नागरिक है। फई पर अमरीका में कश्मीर के मुद्दे पर गैर कानूनी ढंग से लॉबिंग करने के लिए पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई से धन स्वीकार करने का अभियोग चला था। अमरीकी न्यायाधीश लियाम ओ ग्रैडी ने उनकी अपील खारिज करते हुए फई को कारागार में दो साल कैद के बाद तीन साल की निगरानी में रखे जाने का फ़ैसला सुनाया है।
समाचार एजेंसी पीटीआई के अनुसार, न्यायाधीश ने गुलाम नबी फई को बताया, ‘मैं नहीं समझता कि आप ये मानने के लिए तैयार हैं कि आपने अपने काम से अमरीका को नुकसान पहुंचाया है। एफबीआई द्वारा बताए जाने के बाद भी आपने इस तथ्य को नजरअंदाज किया। आपने अमरीका से धोखाधड़ी करने के लिए षड्यंत्र रचा। आप जानते थे कि पाकिस्तान और आईएसआई आपको इसलिए धन दे रहे थे क्योंकि आपका काम उनके हितों को साधेगा।
इसके अलावा न्यायाधीश ने फई पर यह भी पाबंदी लगाई है कि वह पाकिस्तान की सरकार और आईएसआई से किसी तरह के संपर्क में ना रहें। गुलाम नबी फई को पिछले वर्ष 19 जुलाई को गिरफ़्तार किया गया था। बाद में उन्होंने अपने ऊपर लगे आईएसआई का एजेंट होने के आरोप स्वीकार कर लिए थे।
बीबीसी के संवाददाता जुबेर अहमद अमेरिका में फई द्वारा आयोजित किये सम्मेलन की याद करते हुए लिखते हैं, मैं कॉन्फ्रेंस शुरू होने से एक रात पहले फ़ई की दावत पर एक होटल गया, जहाँ फ़ई ने सूट और टाई में अपने ख़ास मेहमान यानी अमरीका में पाकिस्तानी राजदूत हुसैन हक़्क़ानी का स्वागत किया। पाकिस्तानी राजदूत ने बाद में मेहमानों का स्वागत  इस तरह से किया जैसे कि वो मेज़बान हों। मैं कई लोगों से मिला जिनमें भारत से आए जस्टिस सच्चर और कुलदीप नय्यर शामिल थे।
कॉन्फ्रेंस के बीच ही मुझे महसूस होने लगा था कि भारत का पक्ष ठीक से नहीं रखा जा रहा है। बाद में मैंने फ़ई से बीबीसी के लिए एक बातचीत के  दौरान पूछा कि हर कहानी के दो पहलू होते हैं और आपका सम्मेलन कश्मीर के भविष्य पर था तो इसमें भारत का पक्ष ठीक  से क्यों नहीं पेश किया गया?
फ़ई बोलने लगे कि उनकी दिली तमन्ना है कि भारतीय अख़बारों में कश्मीर पर उनका पक्ष छापा जाए। मैंने पूछा आपका पक्ष क्या है? उनका कहना था वो चाहते हैं कि कश्मीरियों को अपना भविष्य चुनने के लिए अधिकार मिलना चाहिए।
अब तस्वीर का दूसरा पहलू। 28 मार्च को जाने-माने स्तंभकार कुलदीप नैय्यर ने प्रभा-साक्षी में कश्मीर समस्या पर टिप्पणी करते हुए कहा, अगर कश्मीरी खुश नहीं हैं, और उनके द्वारा चुनी गई सरकार भी महसूस करती है कि समस्या का समाधान पाकिस्तान को साथ लेकर ही किया जाना चाहिए, तो फिर नई दिल्ली को हकीकत स्वीकार करनी पड़ेगी।
समस्या के हल के रूप में मेरा एक सुझाव है। दोनों सरकारें प्रतिरक्षा और विदेशी मामलों को छोड़कर बाकी सब कुछ कश्मीरियों के हवाले कर दें और सीमा को थोड़ा बंधनमुक्त बनाएं ताकि जम्मू-कश्मीर तथा आजाद कश्मीर के लोग आपस में मिल जुल सकें और साथ मिलकर अपने क्षेत्र के विकास की योजनाएं बना सकें। उनकी अपनी हवाई सेवा और व्यापार तथा विदेशों में सांस्कृतिक मिशन रहें। दोनों कश्मीर में आने-जाने के लिए वीजा का प्रावधान हो। आजाद कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा रहे तथा जम्मू-कश्मीर भारत का। संयुक्त राष्ट्र में लंबित मामले को वापस ले लिया जाए। मेरा सुझाव है कि जम्मू-कश्मीर से निवार्चित लोकसभा के सदस्य पाकिस्तान के नेशनल एसेम्बली में बैठें तथा आजाद कश्मीर से चुने गए प्रतिनिधि भारत की लोकसभा में।
लगभग यही सारी बातें और अधिक विस्फोटक और आपत्तिजनक ढ़ंग से टीम अन्ना के सदस्य प्रशांत भूषण और अरुंधती राय जैसे मानवाधिकारवादी भी उठाते रहे हैं। सवाल यह है कि पाकिस्तान के पक्ष में अथवा भारत के विरोध में गतिविधियां चलाने पर अमेरिका जैसे एक तीसरे देश में फई के खिलाफ न केवल कार्रवाई होती है अपितु सजा भी सुनाई जाती है। लेकिन भारत में, जो इसका स्वयं शिकार है, इस प्रकार की बातें करने, फई के आयोजनों में भाग लेने, वहां पारित होने वाले प्रस्तावों का न केवल समर्थन करने अपितु उन्हीं बातों को अपने स्तंभों में दोहराने पर सरकार कोई प्रतिक्रिया नहीं देती। परिणाम है कि भारत की छवि अपने ही नागरिकों के बीच आज एक लाचार देश की बनती जा रही है।
कश्मीर समस्या का हल समस्या को टालने से नहीं बल्कि उसे वैधानिक नजरिये से देखने, कुशल रणनीति का परिचय देने और तार्किक परिणति तक पहुंचाने से ही संभव है और इसके लिये तेजी से प्रयास किये जाने आवश्यक हैं।  
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रिफ्यूजियों की नरक तुल्य जिंदगी
प्रो. हरिओम
19 मार्च को नई दिल्ली स्थित जंतर-मंतर पर तीन दिवसीय धरना देने के लिए पश्चिमी पाकिस्तान के सैकड़ों रिफ्यूजी पहुंचे। जम्मू, सांबा और कठुआ जिले से बसों में सवार होकर रिफ्यूजी दिल्ली रवाना हुए। वे बेदर्द और असंवेदनशील केंद्र सरकार से सामान्य नागरिक और राजनीतिक अधिकार हासिल करने, राज्य में संपत्ति का अधिकार मांगने, जेएंडके सरकार के अधीन नौकरी प्राप्त करने, उच्च तकनीक और पेशेवर शिक्षा का अधिकार प्राप्त करने, बैंक से कर्ज लेने, सदन और स्थानीय निकाय चुनाव में मताधिकार की अनुमति मांगने के लिए सरकार को मनाने गए थे।
19 मार्च को भारतीय जनता पार्टी, जम्मू-कश्मीर नेशनल पैंथर्स पार्टी और जम्मू स्टेट मोर्चा के विधायकों ने भी विधानसभा में इस मुद्दे को उठाया और रिफ्यूजियों के प्रति राज्य सरकार के नकारात्मक नजरिये के विरोध में सदन से वाकआउट किया था। उन्होंने 22 मार्च को भी ऐसा ही किया। यह उनका पहला आंदोलन नहीं था। वे राज्य में सत्ता की कुर्सी पर बैठे लोगों के मानवीय दृष्टिकोण के खिलाफ वर्षों से आंदोलनरत हैं, लेकिन इसका कोई नतीजा नहीं निकला है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1947 में धार्मिक आधार पर भारत और पाकिस्तान के बंटवारे के बाद हजारों हिंदुओं जिसमें अधिकतर दलित वर्ग से संबंधित थे, जम्मू में आकर बस गए थे। यह सांप्रदायिक विभाजन था। वे द्विराष्ट्र सिद्धांत के आंदोलनकर्ताओं के हाथों प्रताड़ित, शोषित और शारीरिक उत्पीड़न से बचने और अपनी संस्कृति को बचाने के लिए जम्मू आकर बस गए थे। लाखों गैर मुस्लिमों जिसमें हिंदू और सिख शामिल थे, ने नव निर्मित पाकिस्तान में अपने घरों को छोड़ यहां आ गए। वे जम्मू-कश्मीर के अलावा भारत के दूसरे भागों में भी बस गए और पूर्णरूपेण भारतीय नागरिक बन गए।
पूर्व प्रधानमंत्री आई.के. गुजराल, पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी, जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल जगमोहन, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल एन.एन. वोहरा, ब्रिटेन में पूर्व भारतीय उच्चायुक्त और स्तंभकार कुलदीप नैयर, पूर्व केंद्रीय मंत्री और प्रसिद्ध पत्रकार अरुण शौरी, इनमें कुछ प्रसिद्ध नाम हैं। अगर वे जम्मू में बस गए होते तो उनकी स्थिति भी कुछ अलग नहीं होती। वे पाकिस्तानी रिफ्यूजियों की तरह अपने मौलिक अधिकारों के लिए लड़ रहे होते, जिसमें भारतीय समाज में गरिमापूर्ण जिंदगी जीना भी शामिल है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश में समाज का एक तबका हमारे सामान्य नागरिक और राजनीतिक अधिकारों की उपेक्षा कर रहा है। जम्मू और नई दिल्ली में 64 वर्षों से अधिक समय तक संघर्ष के बावजूद यह सब जारी है। इस संघर्ष में धरना, मार्च, प्रदर्शन, घेराव, याचिका दायर करना और गिरफ्तारियां आदि शामिल हैं।
इस बीच जम्मू उनके और पुलिस के बीच अनेकों संघर्षों, गिरफ्तारियों, असहाय लोगों के घायल होने और परित्यक्त रिफ्यूजियों जिसमें बच्चे और महिलाएं भी शामिल हैं, का गवाह बना है। इसमें राज्य सरकार विफल रही है। कारण, रिफ्यूजियों का संघर्ष उन लोगों द्वारा नियंत्रित होता है, जिनका मानना है कि इनको नागरिकता का अधिकार देने का मतलब अनुच्छेद 370 के तहत राज्य को जो विशेष दर्जा मिला हुआ है उसका न केवल क्षरण बल्कि राज्य की जनसांख्यिकी को भी बदलना होगा, जिससे सदन में जम्मू संभाग को अधिक प्रतिनिधित्व मिलेगा। केंद्र सरकार इसमें विफल साबित हुई है कारण वह कमजोर और दब्बू है। उसमें शासन कर रहे अभिजात्य कश्मीरियों के खिलाफ जाने का साहस नहीं है। स्थिति यह है कि सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने के बावजूद इन असहाय रिफ्यूजियों को किसी तरह की मदद नहीं मिली है।
अब सवाल उठता है कि क्या जंतर-मंतर पर तीन दिन तक धरना-प्रदर्शन करने से इच्छित परिणाम मिलेगा? दुर्भाग्यवश, इसका सकारात्मक जवाब नहीं है। किसी को भी निराशावादी नहीं बनना चाहिए, लेकिन नई दिल्ली में बैठे मंत्रियों के रवैये को देखकर कोई भी व्यक्ति दूसरे तरीके से नहीं सोच सकता। यह रेखांकित करने की जरूरत है कि रिफ्यूजियों ने दिल्ली में नौ महीने धरना दिया। यह बहुत पहले की बात नहीं है। प्रधानमंत्री ने उन्हें एक बार फिर भरोसा दिलाया है कि उनकी समस्याओं का समाधान किया जाएगा, लेकिन इन आश्वासनों से कुछ नहीं मिलने वाला है। सचमुच राज्य में इन रिफ्यूजियों की दशा दयनीय हो गई है। रिफ्यूजियों के नेतृत्वकर्ता के अनुसार, उन लोगों की विश्वसनीयता को जांचा-परखा नहीं गया है जो केंद्र सरकार की नौकरी पाने का प्रयास कर रहे हैं।
यह ध्यान देने योग्य है कि ये रिफ्यूजी केंद्र सरकार के अधीन नौकरी पाने योग्य हैं। जहां तक लोकसभा चुनावों की बात है तो वे आम चुनावों में अपने मताधिकार का प्रयोग करते हैं। हालांकि अभी भी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है, उनका संघर्ष एक दिन रंग-ला सकता है। उम्मीद की जाती है कि नई दिल्ली में बैठे अधिकारी इन रिफ्यूजियों, जिनकी जिंदगी नरक तुल्य हो गई है, को विशेष उपचार प्रदान करेंगे। यह एक मानवीय समस्या है। यदि हमारे प्रधानमंत्री जो खुद रिफ्यूजी हैं, अगर श्रीलंका के तमिलों को संतुष्ट करने के लिए श्रीलंका के खिलाफ मतदान करने के बारे में सोच सकते हैं और यह कहते हैं कि यदि अमेरिकी प्रायोजित प्रस्ताव से श्रीलंका में तमिल समुदाय का भविष्य सुरक्षित रहता है और वे समानता, गरिमा, न्याय और आत्मसम्मान से जिंदगी जीते हैं, जोकि हमारा उद्देश्य है तो हम प्रस्ताव के पक्ष में मतदान करने के लिए तैयार हैं। तो फिर वे जम्मू में शिथिल पड़ चुके पश्चिमी पाकिस्तानी रिफ्यूजियों के प्रति इसी प्रकार का नजरिया क्यों नहीं अपनाते हैं 
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पश्चिमी पाक शरणार्थियों का दर्द
खजूरिया एस. कांत
15 अगस्त को जब पूरा देश स्वाधीनता दिवस मना रहा था, जम्मू शहर के प्रेस क्लब पर पश्चिमी पाकिस्तान के हजारों हिंदू विस्थापित बांह पर काली पट्टी बांधे और गले व हाथ में प्रतीकात्मक जंजीरें डाले काला दिवस मना रहे थे। 1947 के विभाजन के समय पश्चिमी पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए हिन्दू राज्य और केंद्र सरकार के पक्षपाती रवैए के विरोध में बैनर, तख्ती के लिए नारे लगा रहे थे। "आजाद हिन्दुस्तान के गुलाम लोग", "हमें हमारा हक दो", "हम भी जीना चाहते हैं, हिन्दुस्थान के साथ" जैसे नारों के साथ वे खुद को जम्मू-कश्मीर के स्थायी निवासी का दर्जा दिए जाने की मांग कर रहे थे।
पिछले 65 वर्षों से करीब एक लाख विस्थापित हिंदू आजाद भारत में रह रहे हैं; पर सिर्फ नाम के लिए। जम्मू के साम्बा, कठुआ, बिसना, आरएसपुरा, जम्मू, अखनूर समेत जम्मू की सात तहसीलों में रहने वाले इन हिंदुओं को संविधान में प्रदत्त लोकतांत्रिक अधिकार तो दूर, जम्मू-कश्मीर के नागरिक का दर्जा भी नहीं दिया गया है। पश्चिमी पाकिस्तान शरणार्थी कार्यकारी समिति के अध्यक्ष लांभा राम गांधी कहते है, "आज भी हम गुलामों की जिंदगी जी रहे हैं, ऐसे में स्वतंत्रता दिवस मनाने का क्या मतलब है।" उन्होंने आगे कहा कि हमें मजबूरी में ऐसा दु:खद कदम उठाना पड़ा है। हम अब भी बिना किसी संवैधानिक और मौलिक अधिकार के जी रहे हैं, तो क्या हम स्वतंत्र हैं?
कृष्ण सिंह विभाजन के समय पाकिस्तान छोड़कर भारत आए थे। उस समय उनकी उम्र 8 साल थी। अब तो वे भी आस छोड़ चुके हैं कि हजारों विस्थापितों को राज्य के स्थाई निवासी का दर्जा मिल पाएगा। उन्होंने कहा कि सरकार ने हम लोगों को सड़क पर ला खड़ा किया है। राज्य में अब तक जितनी भी सरकारें आईं, सभी ने सिवाय वादे के इन्हें कुछ नहीं दिया। श्री लांभा कहते हैं- "हम लोगों ने 12 अगस्त 2005 से 19 मई 2006 तक दिल्ली के बोट क्लब पर लगातार धरना दिया। उस समय गृहमंत्री जी ने हमसे वादा किया था कि हमें हमारा मौलिक अधिकार दिया जाएगा; पर लगता है कि वह भी राजनीतिक चाल ही थी।" उन्होंने इस बात पर भी अफसोस जताया कि राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद ने भी उनकी मांगों पर ध्यान देने का आश्वासन देकर इस दिशा में कुछ नहीं किया।
इन विस्थापितों की इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी कि 1967 से ये लोकसभा चुनावों में तो मतदान करते आ रहे हैं; पर इन्हें राज्य का नागरिक नहीं माना जाता है। यानी भारत के संविधान के तहत ये भारतीय नागरिक हैं, लेकिन जम्मू-कश्मीर में बसने के 65 वर्षों के बाद भी ये राज्य के नागरिक नहीं माने जाते। इस कारण अन्य अधिकारों के साथ इन्हें राज्य चुनावों में वोट डालने का भी अधिकार प्राप्त नहीं है। 
जम्मू-कश्मीर के संविधान के अनुसार राज्य के स्थाई निवासी होने की शर्तों में एक शर्त यह है कि 14 मई 1954 तक वह व्यक्ति राज्य विषय के वर्ग 1 अथवा वर्ग 2 के अंतर्गत आता हो। चूंकि पश्चिमी पाकिस्तान से आए शरणार्थी उस समय उन इलाकों में रह रहे थे जो पाकिस्तान का हिस्सा बन गए थे। इसलिए वे 1927 के जम्मू-कश्मीर विधान के अनुसार राज्य विषय के अंतर्गत नहीं आते। इसलिए उन्हें राज्य के स्थाई निवासी का दर्जा नहीं दिया जा सकता। हालांकि राज्य विधानमण्डल के पास जम्मू-कश्मीर के संविधान के खण्ड 9(अ) के तहत अधिकार है कि वह स्थाई निवासी सम्बंधी प्रावधान में आवश्यक फेर-बदल कर सके, परन्तु ऐसा कोई प्रयास अब तक राज्य सरकार की ओर से नहीं किया गया है।
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तार्किक नहीं मीडिया का मखौल
केवल कृष्ण पनगोत्रा
लोकतंत्र के चार स्तंभ होते हैं। इनमें- विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया शामिल हैं। अनैतिकता, भ्रष्टाचार, स्वार्थ और सत्तालोलुप्ता के दीमक समान रूप से भारतीय लोकतंत्र के चारों पायों को चाट रहे हैं, मगर मीडिया का विस्तृत और बढ़ता स्वरूप इस दीमक के प्रभाव में नहीं रहा। वर्तमान में भारतीय लोकतंत्र में अगर कहीं कुछ शुभ और संतोषजनक है तो वह है मीडिया की स्वतंत्रता।
राज्य की शीतकालीन राजधानी जम्मू में विधानसभा सत्र के दौरान भारतीय लोकतंत्र के चौथे स्तंभ ने सियासतबाजी का एक नया दंभपूर्ण रूप देखा। जम्मू-कश्मीर से इतर भारत में भी मीडिया पर पहरे बिठाने और दबाने के प्रयास हुए हैं। तहलका डॉट काम के तहलके के बाद जिस प्रकार का घटनाक्रम और प्रतिक्रियाएं तत्कालीन सत्ता के गलियारों की ओर से व्यक्त की गई उनसे तो यही लगने लगा था कि लोकतंत्र के महत्वपूर्ण स्तंभ मीडिया पर पहरा बैठ जाएगा। सरकार पत्रकारिता की आचार संहिता तैयार करने में जुट गई। मगर जनता और न्यायपालिका की सहानुभूति और मीडिया जगत की प्रतिक्रिया से सरकार में बैठे लोकतंत्र विरोधी तत्वों को पीछे हटना पड़ा।
लोकतंत्र के कथित पैरोकार यह भी भूल जाते हैं कि लोकतंत्र की परिभाषा मात्र प्रौढ़ मताधिकार तक ही सीमित नहीं है बल्कि इससे आगे निकलकर सूचना यानी जानने और अभिव्यक्ति का अधिकार भी स्वस्थ लोकतंत्र का ही हिस्सा है। जम्मू-कश्मीर विधानसभा की ताजा घटना के संदर्भ में, जहां स्पीकर ने मीडिया को लेकर टिप्पणी की थी कि मीडिया उनके नियंत्रण में है और मीडिया को समाचार के स्रोत बताने चाहिए लोकतंत्र के संरक्षण के लिए पत्रकारों को दो दिन तक विधानसभा की कार्यवाही को मीडिया कवरेज से वंचित रखना पड़ा। प्रतिपक्ष विशेषत: पीडीपी ने पत्रकारों का साथ दिया। कारण चाहे राजनीतिक ही रहे हों लेकिन प्रतिपक्ष ने मीडिया की स्वतंत्रता को लोकतंत्र के लिए सर्वोपरि माना। मगर सत्ता और मीडिया के टकराव की जो नई इबारत जम्मू-कश्मीर में लिखी गई उसने सत्ता के दंभ की बानगी समूचे भारत में प्रस्तुत की है।
सत्ता और मीडिया का टकराव भारत में नया नहीं है। मीडिया पर लगाम लगाने की कई कोशिशें की गई हैं। फिर भी सभ्य नागरिक हलकों और आम जनता ने मीडिया से सहानुभूति की मिसाल कायम करते हुए लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को धराशायी नहीं होने दिया। सियासतबाजों की चले तो लोकतंत्र का जनाजा ही निकाल दें मगर स्वतंत्र मीडिया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का चौथा पाया अभी जनता की सहानुभूति और विश्वास पर अटल खड़ा है। इन परिस्थितियों में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या जनता को भ्रष्टाचारियों और उनके कुकृत्यों की जानकारी नहीं होनी चाहिए? क्या किसी भ्रष्टाचारी के कुकृत्यों की ताक-झांक नहीं होनी चाहिए? भारत विश्व का सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र माना जाता है। अत: इन प्रश्नों को दूसरे लोकतांत्रिक देशों के संदर्भ में भी जांचा-परखा जाना चाहिए।
एक बार अमेरिका के वाशिंगटन पोस्ट समाचार पत्र ने संयुक्त राज्य अमेरिका के सुरक्षा विभाग के गुप्त कारनामों को लेकर एक लेख प्रकाशित किया था। संबंधित दस्तावेज एक पूर्व विभागीय अधिकारी डेनियल ऐल्सवर्ग ने उपलब्ध करवाए थे। अमेरिका सरकार ने इस लेख के विरुद्ध अर्जी दायर की थी। 30 जून 1971 को अमेरिका अदालत के नौ सदस्यीय पीठ ने जो निर्णय दिया वह भारत में पत्रकारिता आचार संहिता और पॉलीटिक्स ऑफ सीक्रेसी के मुद्दे का लोकतांत्रिक भावनाओं के मद्देनजर एक सही और विश्लेषणात्मक उत्तर है।
इस आदेश में कहा गया था कि, जिस सच को सरकार छुपाना चाहती है उसे बेनकाब करके जनता के सामने लाना प्रेस की पहली जिम्मेदारी है। कूटनीति और सुरक्षा को लेकर रहस्यों को सामने लाना प्रेस का प्रथम दायित्व है। इसके लिए गोपनीयता की दुहाई नहीं दी जा सकती। हमारे देश में पत्रकारिता से जुडे़ लोगों को आए दिन जिस प्रकार की आलोचनाओं और प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है मीडिया की स्वतंत्रता से जुड़ा एक गंभीर मसला है। अमेरिका में तो उन नागरिकों की सुरक्षा के लिए बकायदा विसिलब्लोअर प्रोटेक्शन एक्ट 1989 नामक कानून बनाया गया है जो जनहित की गुप्त सूचनाएं देकर भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करते हैं मगर हमारे यहां दिनदहाड़े पुलिस और आपराधिक पृष्ठिभूमि के राजनेताओं द्वारा पत्रकारों और मीडिया के कार्यालयों पर हमले बोले जाते हैं।
किसी भी तरह से मीडिया को सूली देने के मंसूबे राजनीति के उस चरित्र को दर्शाते हैं जिसे गंदा खेल कहते हैं। अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति जॉर्ज वाशिंगटन ने कहा था- सरकार का अर्थ तर्क नहीं है और ही बयान देने की कला है। यह मात्र शक्ति है।.. एक क्षण के लिए इसे गैर जिम्मेदाराना आचार-व्यवहार की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। जम्मू-कश्मीर विधानसभा में मीडिया की महत्ता और लोकतांत्रिक व्यवस्था की खिल्ली उड़ाना क्या शोभनीय था? फिर भी मीडिया के सम्मान का स्वागत।
(लेखक : जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं।)
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1974 का इंदिरा-शेख समझौता
दयासागर
इसे कश्मीर समझौते के नाम से जाना जाता है। इस पर 13 नवंबर 1974 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और शेख मुहम्मद अब्दुल्ला (किस हैसियत से यह सार्वजनिक नहीं किया गया है) ने हस्ताक्षर किए। इसे अधिक से अधिक शेख अब्दुल्ला और इंदिरा गांधी की कांग्रेस के बीच समझौता माना जा सकता है। इस समझौते के बाद कांग्रेस ने फरवरी 1975 में सैय्यद मीर कासिम के स्वंय पदत्याग के बाद, शेख अब्दुल्ला को समर्थन देकर उनके जम्मू-कश्मीर का मुख्यमंत्री बनने का रास्ता साफ कर दिया था। इस समझौते की अंतर्वस्तु इस प्रकार है-
(1)- जम्मू-कश्मीर राज्य जो भारतीय संघ की एक सैंवधानिक इकाई है, का संघ के साथ अपने संबंधों में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 द्वारा परिचालित होना जारी रहेगा। (2)- विधि निर्माण की अवशिष्ट शक्तियां राज्य में निहित रहेंगी लेकिन भारत की प्रभुसत्ता और एकता को नकारने, विच्छिन्न करने, उस पर संदेह करने के उद्देश्य से की गई कार्रवाइयों को रोकने, भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग को अलग करने या भारत के राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय गान या संविधान का अपमान करने की चेष्टाओं को रोकने संबंधित कानून बनाने का अधिकार संसद में निहित रहेगा। (3)- जबकि भारतीय संविधान का जो भी प्रावधान रूपांतरणों और संशोधनों के बाद राज्य पर लागू किया गया है, ऐसे रूपातरणों और संशोधनों को अनुच्छेद 370 के अंर्तगत राष्ट्रपति के आदेशों से परिवर्तित या समाप्त किया जा सकता है, परन्तु भारतीय संविधान के जो प्रवाधान जम्मू-कश्मीर पर रूपांतरणों और संशोधनों के बिना पहले से ही लागू हैं, वे अपरिवर्तनीय हैं।
4. जम्मू-कश्मीर के लोक-कल्याण के मामलों, सांस्कृतिक मामलों, सामाजिक सुरक्षा, व्यक्तिगत कानून और कार्यविधिक मामलों को लेकर, राज्य की विशेष स्थिति के अनुरूप स्वंय अपने कानून बनाने की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने हेतु यह मान लिया जाता है कि राज्य 1953 के बाद संसद द्वारा बनाए गए या राज्य पर लागू किए गए कानूनों अथवा समवर्ती सूची से जुड़े किसी भी मामले पर पुनर्विचार कर सकता है कि उसके दृष्टिकोण से कौन से कानून में संशोधन होना चाहिए या उसे रद्द कर देना चाहिए। उसके बाद भारतीय संविधान के अनुच्छेद 254 के अनुसार उपयुक्त कदम उठाए जाने चाहिए। इस प्रकार के कानूनों को राष्ट्रपति की स्वकृति दिलाने के बारे में सहानुभूतिपूर्वक विचार किया जाएगा। भविष्य में भी संसद द्वारा बनाए गए कानूनों पर अनुच्छेद के भाग 2 के प्रावधानों के अंतर्गत यही दृष्टिकोण अपनाया जाएगा। किसी भी कानून को राज्य पर लागू करने से पहले राज्य सरकार की राय ली जाएगी और इस राय पर पूरा ध्यान दिया जाएगा।
5. अनुच्छेद 368 की परस्पर व्यवस्था के रूप में इस अनुच्छेद का एक उपयुक्त संशोधन राष्ट्रपति के आदेश द्वारा राज्य पर लागू किया जाएगा, शर्त यही है कि जम्मू-कश्मीर की विधानसभा द्वारा बनाया गया कोई भी कानून जो जम्मू-कश्मीर राज्य के संविधान में या उसके किसी भी प्रावधान के प्रभावों में निम्नलिखित मामलों से जुड़े परिवर्तन चाहता हो, तब तक प्रभावी नहीं होगा जब तक विधेयक राष्ट्रपति के अवलोकनार्थ सुरक्षित रखे जाने के बाद उनकी सहमति प्राप्त करे। ये मामले हैं- (I)- राज्यपाल की नियुक्ति, शक्तियों, प्रकार्यों, दायित्वों, विशेषाधिकारों, उन्मक्तियों से संबद्ध और (II)- चुनावों से जुडे़ निम्नलिखित मामले जैसे भारतीय चुनाव आयोग द्वारा चुनावों की देख-रेख, निर्देशन और नियंत्रण, पक्षपात के बिना मतदाता सूची में सम्मिलित किए जाने की पात्रता, वयस्क मताधिकार और विधान परिषद का गठन जो कि जम्मू-कश्मीर राज्य के संविधान के भाग 138, 139, 140, 150 में निर्दिष्ट हैं।
6. राज्यपाल और मुख्यमंत्री के नामकरण को लेकर कोई सहमति संभव नहीं हुई अत: यह मामला ऐसे ही रख दिया गया। शेख के मुख्यमंत्री बनने के बाद कानूनों की स्थिति का पुनरावलोकन करने के लिए कमेटी का गठन किया गया और यह निष्कर्ष निकाला गया कि कोई भी संशोधन या रद्दीकरण करना आवश्यक नहीं है क्योंकि किसी भी कानून के पिछे कोई दुर्भावना नहीं थी और न ही इन कानूनों की वजह से कोई दुष्परिणाम निकला। यहाँ भी प्रश्न उठता है कि क्या इंदिरा गाँधी को जम्मू-कश्मीर के एक व्यक्ति के साथ समझौता करने के लिए संसद का समर्थन प्राप्त था? क्या उन्होंने जम्मू-कश्मीर की जनता को विश्वास में लिया था जिनमें से कुछ को लगता था कि 1953 में शेख को इसलिए हटाया गया था कि उन्होंने देशद्रोह जैसा कोई काम किया था। जवाहर लाल नेहरु ने भी शेख अब्दुल्ला से इसी तरह के वादे किए थे। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय महत्व के मामलों के बारे में एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से व्यक्तिगत स्तर पर इस तरह के समझौते कैसे कर सकता है, भारत की जनता ने यह प्रश्न कभी नहीं पूछा। इन सारे समझौतों का परिणाम राज्य के तीन क्षेत्रों के लोगों को भुगतना पड़ा है और आज भी भुगत रहे हैं। इसी तरह के प्रश्न विधानसभा के उन सदस्यों के विवेक को लेकर किए जा सकते हैं। जिन्होंने सन् 2000 में 1974 के इंदिरा-शेख समझौते पर कोई टिप्पणी किए बिना ही स्वायत्तता प्रस्ताव पारित कर दिया था। इस समझौते को पुनरावलोकन की थोड़ी सी कसरत के बाद फाइलों में बंद कर दिया गया था। इन प्रश्नों का उत्तर जम्मू-कश्मीर की जनता को दिया जाना चाहिए ताकि वे समझ सकें कि उनके राज्य के मामले कैसे हैं और राज्य की आवश्यकताएं क्या हैं। भारत सरकार को भी इन प्रश्नों के उत्तर के साथ लोगों तक पहुँचना होगा। तभी उनकी सत्यता स्थापित हो पाएगी।  
(लेखक की पुस्तक जम्मू-कश्मीर : विलय का सच और सियासत का झूठ से साभार)
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माँ वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड का हुआ पुनर्गठन
हाईकोर्ट ने माँ वैष्णो देवी की गुफा के पास प्रस्तावित खनन परियोजना पर रोक लगा दी है और केंद्र सरकार व श्री माता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड को नोटिस जारी कर दो सप्ताह के भीतर अपना पक्ष रखने को कहा है।
जम्मू। राज्यपाल एनएन वोहरा ने विगत दिनों (27 मार्च) माता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड का पुनर्गठन किया। बोर्ड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी नवीन चौधरी ने बताया कि श्राइन बोर्ड के चेयरमैन व राज्यपाल ने नए सदस्यों को नामांकित किया है। इनमें दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन के पूर्व प्रबंध निदेशक ई. श्रीधरण, इंफोसिस फाउंडेशन बेंगलूरू की चेयरपर्सन सुधा मूर्ति, केंद्रीय विश्वविद्यालय जम्मू के वीसी डॉ. एस.एस. बलोरिया, राज्य के पूर्व पुलिस महानिदेशक डॉ. अशोक भान, पूर्व चीफ इंजीनियर एवं पब्लिक सर्विस कमीशन के सदस्य एच.एल. मैनी शामिल हैं।
ज्ञातव्य है कि ई. श्रीधरण ने दिल्ली में मेट्रो रेल चलाने में अहम भूमिका निभाई है। वह रेलवे बोर्ड के सदस्य भी रह चुके हैं। उन्हें पद्मश्री और पद्मविभूषण भी दिया जा चुका है। नारायण मूर्ति की पत्नी सुधा मूर्ति ने वर्ष 1996 में इंफोसिस फाउंडेशन स्थापित की थी। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ बेंगलूर से कंप्यूटर साइंस में एम.टेक. करने वाली सुधा मूर्ति समाज के गरीब तबके के लिए काम करती हैं। एस.एस. बलोरिया केंद्रीय विश्र्वविद्यालय जम्मू के वीसी से पहले राज्य के मुख्य सचिव रह चुके हैं। डॉ. भान ने पुलिस विभाग में विभिन्न अहम पदों पर काम किया है।
वहीं, विगत दिनों माँ वैष्णो देवी की पवित्र गुफा के निकट मैगजीन निकालने के लिए प्रस्तावित खनन परियोजना पर हाईकोर्ट ने फिलहाल रोक लगा दी। कोर्ट ने इस मामले में केंद्र सरकार व श्री माता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड को नोटिस जारी कर दो सप्ताह के भीतर अपना पक्ष रखने का आदेश दिया है। तब तक इस मामले पर स्टे लगा दिया है।
एडवोकेट विलक्ष्णा सिंह व दिवाकर शर्मा ने समाचार पत्रों में छपी खबर का हवाला दिया है, जिसमें लिखा गया है कि केंद्रीय पर्यावरण व वन मंत्रालय ने जेएंडके मिनरल्स डेवलपमेंट कॉरपोरेशन व नेशनल मिनरल्स डेवलपमेंट कॉरपोरेशन को पवित्र गुफा के निकट पैंथल में मैगनीज का खनन करने तथा डेड बंर्ट मैगनीज उत्पादन का प्लांट लगाने की अनुमति दी है। दोनों वकीलों ने कई आधार पर इस परियोजना को चुनौती देते हुए कहा कि यह क्षेत्र त्रिकुटा वाइल्ड लाइफ सेंच्युरी के बीच आता है। लिहाजा, इससे पर्यावरण संतुलन बिगड़ने का खतरा पैदा होगा।
याचिका में आगे कहा गया कि यह क्षेत्र श्राइन बोर्ड की संपत्ति है। उन्होंने इस मामले में श्राइन बोर्ड में आरटीआई भी दायर की थी, जिसके जवाब में बोर्ड ने स्पष्ट किया कि बोर्ड ने ऐसे किसी प्रोजेक्ट के लिए अपनी कोई जमीन नहीं दी और न ही बोर्ड अधिनियम के खिलाफ ऐसी कोई अनुमति दी है। याचिका में ऐसी किसी खनन को रोकने की अपील के साथ पूरी परियोजना को ही खारिज करने की मांग की गई। खंडपीठ ने पूरे मामले पर गौर करने के बाद फिलहाल इस मामले पर स्टे लगा दिया और दो सप्ताह के बाद अगली तारीख निर्धारित की। 
मां वैष्णो देवी के दरबार में उमड़ी भीड़
कटड़ा। चैत्र नवरात्र के अवसर पर मां वैष्णो देवी के मंदिर में देशभर से करीब 2.50 लाख श्रद्धालु हाजिरी लगा चुके हैं। मां वैष्णो देवी भवन के साथ ही अर्द्धकुंवारी के दर्शन के लिए भी श्रद्धालुओं की लंबी कतार लग रही है। इस समय प्रतिदिन 30-35 हजार श्रद्धालु पवित्र धाम पर माथा टेकने के लिए आधार शिविर कटड़ा पहुंच रहे हैं।
यात्रा पंजीकरण के लिए मुख्य बस अड्डे पर बोर्ड प्रशासन द्वारा स्थापित यात्रा पंजीकरण केंद्र में भी श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है। श्रद्धालुओं को मां वैष्णो के दर्शन के लिए कम से कम समय इंतजार करना पड़े, इसके लिए बोर्ड प्रशासन ने तीनों कृत्रिम गुफाओं के द्वार खोल दिए हैं। इसी तरह पवित्र स्थल अर्द्धकुंवारी में भी श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ रही है। पौराणिक कथा के अनुसार जब भैरो नाथ मां वैष्णो का पीछा कर रहा था तो इसी गुफा में मां वैष्णो ने नौ माह तपस्या की थी। वहीं श्रद्धालु मां वैष्णो के मंदिर सहित मार्ग पर बने जलपान केंद्रों पर फलाहार का लुत्फ उठा रहे हैं।
अमरनाथ यात्रा की अवधि बढ़ाने की मांग
लुधियाना। विश्व हिंदू परिषद (विहिप) के राष्ट्रीय प्रवक्ता डॉ. सुरेन्द्र जैन ने विगत दिनों (25 मार्च) कहा कि अमरनाथ यात्रा की अवधि कम कर संप्रग सरकार, श्राइन बोर्ड व जम्मू-कश्मीर सरकार ने हुर्रियत कांफ्रेंस व अलगाववादियों की ताकत बढ़ाई है। विहिप दस लाख शिवभक्तों की भर्ती कर देशव्यापी संघर्ष शुरू करेगी। ये शिवभक्त दो जून को अमरनाथ यात्रा पर जाएंगे।
डॉ. जैन ने संवाददाता सम्मेलन के दौरान चेतावनी देते हुए कहा कि यदि यात्रा अवधि 39 से 60 दिन नहीं की गई तो कश्मीर घाटी में आर्थिक नाकेबंदी की जाएगी। इसके तहत घाटी से न सामान दूसरे राज्यों को भेजने दिया जाएगा और न ही आने दिया जाएगा। उन्होंने अमरनाथ यात्रा मार्ग में लंगर लगाने वाली उन कमेटियों की निंदा की, जो यात्रा अवधि कम करने की बात कर रही हैं। उन्होंने कहा कि ये कमेटियां सेवा के नाम पर आर्थिक मदद लेकर अलगाववादियों की भाषा न बोलें। वे अपने इस कृत्य के लिए हिंदुओं से माफी मांगे। 
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पश्चिमी पाक रिफ्यूजियों के मुद्दे पर वाकआउट
जम्मू। पश्चिमी पाकिस्तान के रिफ्यूजियों के मुद्दे पर विगत दिनों (22 मार्च) एक बार फिर भाजपा और जम्मू स्टेट मोर्चा (जस्मो) के विधायकों ने सदन से वाकआउट किया। उत्तेजित विधायकों ने सरकार से रिफ्यूजियों को राज्य की स्थायी नागरिकता से वंचित रखने को सबसे बड़ा मानवाधिकार हनन करार दिया।
डिप्टी स्पीकर सरताज मदनी ने जैसे ही कार्यवाही शुरू करनी चाही, भाजपा और जस्मो के विधायकों ने अपनी सीटों पर खड़े होकर पश्चिमी पाक रिफ्यूजियों का मुद्दा उठा दिया। विधायक बार-बार डिप्टी स्पीकर का ध्यान शरणार्थियों की समस्याओं को हल करने और उन्हें स्टेट सब्जेक्ट प्रदान करने की तरफ दिलाने लगे। जस्मो विधायक अश्विनी कुमार शर्मा ने कहा कि शरणार्थियों का मसला 65 साल पुराना है। इन लोगों को आज तक स्टेट सब्जेक्ट नहीं मिला है। ये लोग दिल्ली गए हैं और वहां भी इन पर लाठियां बरसी हैं। भाजपा के जुगल किशोर, चौ. सुखनंदन और अशोक खजूरिया भी शरणार्थियों के समर्थन में बोलने लगे। यह देख सत्ताधारी नेशनल कांफ्रेंस के चीफ व्हिप मुबारक गुल और विधायक विमला लूथरा भी अपनी सीटों पर खडे़ हो गए। इससे सदन में शोर-शराबा होने लगा। हालांकि उस समय मुख्यमंत्री भी सदन में मौजूद थे, लेकिन उन्होंने इस मुद्दे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई। डिप्टी स्पीकर ने भी सरकार को कोई निर्देश जारी नहीं किया। इससे नाराज भाजपा विधायकों ने नारेबाजी शुरू कर दी। इसके बाद भाजपा और जस्मो विधायक सदन से वाकआउट कर गए।
इसके पूर्व भी (19 मार्च) पश्चिमी पाक रिफ्यूजियों को स्थायी नागरिकता के मुद्दे पर भाजपा, पैंथर्स पार्टी और व जम्मू स्टेट मोर्चा के सदस्यों ने विधानसभा से वाकआउट किया। भाजपा विधायक जुगल किशोर ने रिफ्यूजियों का मुद्दा उठाते हुए कहा कि ये लोग अपनी समस्याओं को हल कराने के लिए नई दिल्ली रवाना हुए हैं। क्या राज्य सरकार के पास इनकी समस्याओं का कोई हल नहीं है? प्रो. चमन लाल गुप्ता ने कहा कि रिफ्यूजियों को राज्य की स्थानीय नागरिकता और स्टेट सब्जेक्ट मिलना चाहिए। विदित हो कि 19 मार्च को दिल्ली स्थित जंतर-मंतर पर पश्चिमी पाक रिफ्यूजियों ने अपनी मांगों के समर्थन में प्रदर्शन किया था।
विधानसभा में पीओके पर हंगामा
जम्मू। विधानसभा में विगत दिनों (20 मार्च) पाकिस्तान अधिगृहीत कश्मीर (पीओक) को आजाद कराओ, पाकिस्तान की गुंडागर्दी- नहीं चलेगी, नहीं चलेगी के नारे गूंजे। भाजपा, पैंथर्स पार्टी और जम्मू स्टेट मोर्चा के विधायकों ने गिलगित-बल्तिस्तान को पाकिस्तान द्वारा चीन को सौंपे जाने के मंसूबे पर एतराज जताते हुए सदन से वाकआउट कर दिया।
वित्तमंत्री अब्दुल रहीम राथर ने इस मामले को केंद्र के अधीन बताते हुए कहा कि अगर वाकआउट करने वाले विधायक इस पर चर्चा के लिए गंभीर होते तो उन्हें पहले स्पीकर को नोटिस देना चाहिए था। उन्होंने कहा कि इन लोगों को बताना चाहिए कि उनके पास पाकिस्तान के इस मंसूबे की जानकारी कहां से पहुंची। सदन की कार्यवाही शुरू होते ही भाजपा, पैंथर्स पार्टी और जम्मू स्टेट मोर्चा के सदस्यों ने सदन का ध्यान गिलगित-बल्तिस्तान को चीन के हवाले किए जाने की पाकिस्तानी साजिश की तरफ दिलाया। पैंथर्स पार्टी के विधायक हर्ष देव सिंह ने कहा कि पीओके हमारे राज्य का हिस्सा है। संसद ने भी इस संदर्भ में एक प्रस्ताव पारित कर इसे वापस लेने की प्रतिबद्धता जताई है। अक्साई चीन को पहले ही पाकिस्तान चीन के हवाले कर चुका है। अब वह गिलगित-बल्तिस्तान को भी 30 साल के लिए चीन के हवाले कर रहा है, लेकिन हमारी राज्य सरकार इस मामले पर पूरी तरह खामोश है।
भाजपा के अशोक खजूरिया ने कहा कि सरकार को इस मुद्दे पर बयान देना चाहिए। इस सदन से भी कोई निर्देश जारी होना चाहिए। प्रो. चमन लाल गुप्ता ने कहा कि पीओके हमारा हिस्सा है। डिप्टी स्पीकर सरताज मदनी ने सभी को शांत करने का प्रयास किया। वह कुछ देर के लिए कामयाब भी रहे। लेकिन जल्द ही भाजपा विधायक जुगल किशोर, चौ सुखनंदन, शाम लाल चौधरी, अशोक खजूरिया और जम्मू स्टेट मोर्चा के विधायक अश्विनी कुमार शर्मा ने दोबारा उत्तेजित हो अपनी सीटों पर खडे़ हो गए। जुगल ने कहा कि पाकिस्तान गिलगित-बल्तिस्तान को चीन को तीस साल के लिए लीज पर दे रहा है और यह सरकार चुप बैठी है। विधानसभा को इस मुद्दे पर एक प्रस्ताव पारित करना चाहिए। लेकिन पीठासीन अधिकारी और सदन में बैठे मंत्रियों द्वारा इस मुद्दे पर कोई सकारात्मक रवैया न अपनाते देख भाजपा और पैंथर्स पार्टी के विधायकों ने नारेबाजी शुरू कर दी।   
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जम्मू-कश्मीर के बारे में प्रचलित धारणा बदलने की आवश्यकता  
भुवनेश्वर। जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में अलगाववादी राज्य होने की जो धारणा देश के आम लोगों में है, वह सही नहीं है। जम्मू-कश्मीर के कुल एक लाख वर्ग किमी क्षेत्रफल में से लद्दाख व जम्मू के 86 हजार वर्ग किमी. इलाके में आज तक एक भी भारत विरोधी प्रदर्शन नहीं हुआ है। इस कारण जम्मू-कश्मीर को गहराई से समझने के साथ ही लोगों में प्रचलित इस धारणा को बदले जाने की आवश्यकता है। उक्त बातें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय सह-सम्पर्क प्रमुख एवं जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र के संयोजक श्री अरुण कुमार ने कही।  
उन्होंने कहा, जहां तक भारत विरोधी प्रदर्शन का मामला है वह केवल कश्मीर घाटी में यानी 15 हजार वर्ग किमी के दायरे में होता है। इसमें भी सभी लोगों का इसे समर्थन नहीं रहता है। सुन्नी मुसलमान ही अलगाववाद का पक्ष लेते हैं। जितने भी तथाकथित कश्मीरी नेता हैं वह इसी संप्रदाय से हैं। शेष शिया मुसलमान व गुज्जर मुसलमान भी उनके साथ नहीं हैं। लेकिन कश्मीर में भारत विरोधी जब भी कोई प्रदर्शनों होता है उसे इस ढंग से प्रचारित किया जाता है मानो समूचे जम्मू-कश्मीर में अलगाववाद की भावना प्रबल है। जबकि जम्मू-कश्मीर के बहुत छोटे से हिस्से के कुछ लोगों में यह भावना है।
श्री कुमार ने कहा कि कश्मीर समस्या नई दिल्ली के कारण उत्पन्न हुई। नई दिल्ली यदि चाहे तो इसे आसानी से हल किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर में जो शक्तियां इस अलगाववाद के खिलाफ लड़ रहे हैं, वह इसके पीड़ित हैं। सरकार भी अलगाववादी व हिंसा करने वालों के लिए पैकेज देती है और जो देशभक्त नागरिक हैं उनको प्रताड़ित किया जा रहा है।
उन्होंने कहा कि कश्मीर कोई समस्या नहीं है, बातचीत पाक अधिगृहीत कश्मीर (पीओके) के बारे में होनी चाहिए। पीओके को कैसे भारत में लाया जाए, इसके लिए गंभीर प्रयास होने चाहिए। उन्होंने कहा कि जम्मू व लदाख के साथ खुलेआम भेदभाव हो रहा है। जम्मू की जनसंख्या कश्मीर की जनसंख्या से अधिक होने के बाद भी लोकसभा व विधानसभा के लिए सीटें कश्मीर की तुलना में कम हैं।
श्री कुमार ने कहा कि अनुच्छेद 370 के बारे में आम लोगों में गलत धारणा है। यह एक अस्थायी अनुच्छेद है। इसका दुरुपयोग हो रहा है। इस अनुच्छेद को तत्काल हटाना चाहिए। इस बारे में भी लोगों को जागरूक करने का प्रयास होना चाहिए। उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर के बारे में अध्ययन करना व सही जानकारियां लोगों तक पहुंचाना, इस उद्देश्य को लेकर जम्मू-कश्मीर अध्ययन केन्द्र की स्थापना की गई है।
पीओके में चीनी इंजीनियर
जम्मू। सीमा पर शांति की आड़ में जहां पाकिस्तान बुनियादी ढांचे को मजबूत कर रहा है, वहीं, पाकिस्तान अधिगृहीत कश्मीर (पीओके) में चीन भी अपने पैर जमाने में जुटा हुआ है। राजौरी, पुंछ से सटी सीमा की सुरक्षा का जिम्मा संभालने वाली सेना की 25 इन्फेंट्री डिवीजन के जीओसी मेजर जनरल के.एच. सिंह ने इस बात की पुष्टि की है कि पीओके में इस समय चीन के इंजीनियर और श्रमिक सक्रिय हैं। मेजर जनरल सिंह ने राजौरी में पत्रकारों से बातचीत में बताया कि असैन्य वर्दी में काम करने वाले ये लोग सेना के हैं या नहीं, यह अभी कहा नहीं जा सकता।
प्राप्त जानकारी के अनुसार, पीओके में चीन पावर प्रोजेक्ट, रेलवे और सड़कों को चौड़ा करने में जुटा हुआ है। इस कारण वहां चीनी सेना की गतिविधि निरंतर बढ़ती जा रही है। सिविल और सैन्य इंजीनियरों की देखरेख में चल रही इन परियोजनाओं की सुरक्षा का जिम्मा चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी संभाल रही है। सेना ने गिलगित-बल्तिस्तान व उससे सटे इलाकों में बुनियादी ढांचा मजबूत करने संबंधी रिपोर्ट सेना मुख्यालय को भेजी है।
रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि काराकोरम हाइवे को चौड़ा किया जाना आने वाले समय में सैन्य दृष्टि से बहुत बड़ी चुनौती हो सकती है। वहीं, संघर्ष विराम की आड़ में पाकिस्तान ने पिछले सात सालों में सीमा पर 886 बंकर, 261 मोर्चे, 398 टावर व 143 नई अग्रिम चौकियां बना दी हैं। उधर, पीओके में चीन जो ढांचा तैयार कर रहा है, उसका इस्तेमाल सैन्य हस्तक्षेप के लिए भी हो सकता है।
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विशेषाधिकार कानून पर नरम पड़ी सरकार
उमर अफस्पा की वापसी के लिए केंद्र पर लगातार दबाव बना रहे हैं। इस सिलसिले में उनकी चिदंबरम से कई दौर की वार्ता भी हो चुकी है, लेकिन सेना के कड़े प्रतिरोध की वजह से गतिरोध कायम है। हुर्रियत कांफ्रेंस और पीडीपी भी इस कानून को हटाने की पुरजोर वकालत कर रहे हैं। माना जा रहा है कि वार्ताकारों ने भी अपनी रिपोर्ट में अफस्पा को वापस लेने की सिफारिश की है।
नई दिल्ली। जम्मू-कश्मीर के अशांत क्षेत्रों से सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा) हटाने की संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत की गुहार से दबाव में आई केंद्र सरकार ने खुलासा किया कि उसने कानून में तीन संशोधनों का प्रस्ताव किया है। माना जा रहा है कि केंद्र सरकार सशस्त्र बलों से अग्रिम गिरफ्तारी वारंट और फायरिंग करने का अधिकार वापस ले सकती है। साथ ही शिकायतों के निस्तारण के लिए एक शिकायत निवारण तंत्र भी बना सकती है। संयुक्त राष्ट्र के विशेष प्रतिनिधि क्रिस्टोफ हेंस के अफस्पा वापस लेने के सुझाव पर गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने विगत दिनों (31 मार्च) ये संकेत दिए।
उल्लेखनीय है कि जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला अफस्पा की वापसी के लिए केंद्र पर लगातार दबाव बनाए हुए हैं। इस सिलसिले में उनकी गृहमंत्री चिदंबरम से कई दौर की वार्ता भी हो चुकी है, लेकिन सेना के कड़े प्रतिरोध की वजह से गतिरोध कायम है। यही नहीं अलगाववादी संगठन हुर्रियत कांफ्रेंस और पीडीपी भी इस कानून को हटाने की पुरजोर वकालत कर रहे हैं। माना जा रहा है कि केंद्रीय वार्ताकारों ने भी अपनी रिपोर्ट में अफस्पा को वापस लेने की सिफारिश की है।
चिदंबरम ने अफस्पा पर नरम पड़ते रुख का संकेत करते हुए कहा कि गृह मंत्रालय की राय में इसमें तीन संशोधन किए जाने चाहिए, लेकिन अभी यह प्रस्ताव सुरक्षा से संबंधित मंत्रिमंडलीय समिति के समक्ष लंबित है। इन संशोधनों पर मंत्रिमंडलीय समिति को अंतिम फैसला लेना है। हालांकि उन्होंने यह बताने से इंकार कर दिया कि केंद्र ने अफस्पा में किन संशोधनों का प्रस्ताव किया है।
चिदंबरम ने संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत की अफस्पा की टिप्पणी को हल्का करते हुए कहा कि हेंस ने सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही तरह की बातें कही हैं। ज्ञातव्य है कि हेंस ने अफस्पा को अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन बताते हुए भारत सरकार से आग्रह किया है कि वह इस विवादित कानून को निरस्त कर दे। संयुक्त राष्ट्र के न्यायेत्तर व मनमाने आचरण मामलों के विशेष प्रतिवेदक क्रिस्टोफ हेंस ने विगत दिनों (30 मार्च) दिल्ली में संवाददाताओं से कहा था कि अफस्पा सरकार की अतिशय शक्ति का प्रतीक बन गया है और लोकतंत्र में इसकी कोई भूमिका नहीं है। हेंस का यह बयान 12 दिन की भारत यात्रा के खत्म होने के मौके पर आया।  
हेंस ने कहा था कि उनके कश्मीर दौरे के दौरान लोगों ने अफस्पा को घृणित और कठोर कानून बताया। यह अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन करता है। संयुक्त राष्ट्र संधि से जुड़ी कई संस्थाओं ने भी ऐसी ही राय व्यक्त की है। अफस्पा के तहत सैनिकों के खिलाफ मुकदमा चलाने से पहले केंद्र से अनुमति लेने की शर्त ने जवाबदेही को लेकर गतिरोध पैदा कर दिया है। हेंस की रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के अगले वर्ष आयोजित होने वाले सत्र में पेश की जाएगी।
वहीं, मुख्यमंत्री उमर ने विगत दिनों (27 मार्च) कहा कि राज्य से अफस्पा को चरणबद्ध तरीके से हटाए जाने के संदर्भ में राज्य सरकार ने दो समितियों का गठन किया है। माकपा विधायक मुहम्मद यूसुफ तारीगामी द्वारा राज्य विधानसभा में पूछे गए सवाल के जवाब में मुख्यमंत्री ने कहा कि राज्य के विभिन्न हिस्सों से अफस्पा को हटाने के लिए राज्य सरकार संकल्पबद्ध है। इसको लेकर विभिन्न एजेंसियों द्वारा जताई गई शंकाओं को दूर करने व राज्य के उन हिस्सों को चिह्नित करने के लिए दो समितियों का गठन किया गया है। एक समिति जम्मू संभाग के लिए है और दूसरी कश्मीर संभाग के लिए। इन समितियों की रिपोर्ट जैसे ही सरकार को मिलेगी उस पर अमल की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी।
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अलगाववादी नेता फई को दो साल कैद की सजा
अदालत से नरमी बरतने का मीरवाइज ने किया था अनुरोध
वाशिंगटन। पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के लिए काम करने वाले कश्मीरी अलगाववादी गुलाम नबी फई को अमेरिका की एक अदालत ने विगत दिनों (30 मार्च) दो साल कैद की सजा सुनाई। फई को कश्मीर पर अमेरिका की नीति को अवैध तरीके से प्रभावित करने के लिए आईएसआई के साथ मिलकर काम करने के आरोप में यह सजा हुई है।
वाशिंगटन डीसी के उपनगर वजिर्निया के एलेक्जेंड्रिया की अदालत ने 62 वर्षीय फई को दो वर्ष कैद और रिहाई के बाद तीन साल तक निगरानी में रहने की सजा सुनाई। न्यायाधीश लियाम ओ ग्रैडी ने फई को पाकिस्तान सरकार और आईएसआई के किसी भी अधिकारी व एजेंट से संपर्क नहीं करने को कहा है।
फई को अमेरिका की संघीय जांच एजेंसी (एफबीआई) ने पिछले वर्ष 19 जुलाई को गिरफ्तार किया था। न्यायालय ने उसे आईएसआई से पैसा लेकर उसके एजेंट के तौर पर काम करने का दोषी करार दिया गया था। आईएसआई एजेंट होने का आरोप कबूल कर चुके फई ने अवैध रूप से अमेरिकी सांसदों के बीच लॉबिंग कर कश्मीर पर अमेरिकी नीति को प्रभावित करने की कोशिश की। 
फई की वकील नीना गिंसबर्ग ने कहा कि वह बेटी के स्नातक होने के बाद 25 जून को अदालत में आत्मसमर्पण करना चाहता है। अदालत ने उसका यह आग्रह स्वीकार कर लिया। न्यायाधीश ने फई से कहा कि वह जेल में रहकर भी कश्मीर की जनता के लिए काम करना जारी रख सकता है। वह जेल से लेख लिख सकता है और टेलीफोन पर कांफ्रेंस कर सकता है। सुनवाई के दौरान अदालत में करीब चालीस लोग थे। उनमें अधिकतर उसके दोस्त और परिवार के सदस्य थे।
न्यायाधीश ने फई से कहा, ‘मैं नहीं समझता कि तुम इस बात पर विश्वास करने के लिए तैयार हो कि तुमने अपने कामों से अमेरिका को बहुत क्षति पहुंचाई है। तुमने तब भी इसकी उपेक्षा की जब एफबीआई ने इसका तुम्हें ध्यान दिलाया।'
फई ने अदालत से कहा, 'अमेरिका में मैंने अपने परिवार और मित्रों को तथा कश्मीर के मुद्दे को जो क्षति पहुंचाई है उसे शायद शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। मेरी मंशा दुनिया में कभी किसी को नुकसान पहुंचाने की नहीं थी। अमेरिका को कभी नुकसान नहीं पहुंचाना चाहता था। मेरा एकमात्र लक्ष्य कश्मीर के लोगों और उनके आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए काम करना था।'
मामले में बहस के दौरान यह भी पता चला कि फई ने अपनी डॉक्ट्रेट डिग्री के बारे में अदालत से झूठ बोला था। अमेरिकी अभियोजक नील एच. मैकब्राइड ने अदालत को बताया, ‘फई के पास डॉक्ट्रेट की डिग्री नहीं है। जबकि वह खुद को डॉ. फई कहता है।’ 
मैकब्राइड ने फई को सजा सुनाए जाने से पहले अदालत को बताया कि जम्मू-कश्मीर के अलगाववादी नेता व हुर्रियत कान्फ्रेंस के नरमपंथी गुट के चेयरमैन मीरवाइज उमर फारूक को आईएसआई का समर्थन प्राप्त है। यही नहीं वह एजेंसी के इशारों पर काम करते हैं। मैकब्राइड ने अदालत को सौंपे 10 पृष्ठों के नोट में कहा, ‘कश्मीरी अमेरिकन कॉउंसिल (केएसी) के अध्यक्ष फई को पाकिस्तान, भारत और अमेरिका से करीब 53 लोगों का समर्थन प्राप्त है। इन लोगों ने न्यायाधीश लियाम ओ ग्रैडी को पत्र लिखकर फई को मामूली सजा देने का अनुरोध किया है। पत्र लिखने वालों में मीरवाइज के अलावा महात्मा गांधी के पौत्र राजमोहन गांधी, जम्मू के एक समाचार-पत्र के संपादक वेद भसीन और मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा प्रमुख रूप से शामिल हैं। ध्यातव्य है कि अदालत से नरमी बरतने की अपील करते हुए मीरवाइज ने अपने पत्र में खुद को राज्य का धार्मिक प्रमुख बताया था।  

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